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Showing posts from 2020

अवधूत श्री दत्तात्रेय स्वामी एवं उनकी शिक्षा

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अवधूत श्री दत्तात्रेय स्वामी जी श्री अत्रि ऋषि एवं सती अनसूया जी के पुत्र और भगवान विष्णु जी के अंश से अवतीर्ण हुवे थे। श्री दत्तात्रेय स्वामी जी का गुजरात में गिरनार पर्वत पर विष्णुपद आश्रम प्रसिद्द है। गिरनार पर्वत के अलावा भी कई स्थानों पर श्री दत्तात्रेय स्वामी जी के आश्रम एवं पादुका स्थान प्रसिद्द हैं, जिनमे गांगनापुर, माहुर, मणिकर्णिका घाट,  कोल्हापुर, बांगर आदि स्थान हैं।  मार्गशीर्ष (अगहन) माह की पूर्णिमा तिथि को भगवान श्री दत्तात्रेय स्वामी जी का प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। श्रीमद भागवत में परम धार्मिक राजा यदु के वृतान्त से दत्तात्रेय स्वामी जी के शिक्षा ग्रहण करने का जो उल्लेख मिलता है उससे यह प्रमाणित होता है कि गुरु सिर्फ मानवदेहधारी ही नहीं हो सकता है अपितु शिक्षा मानवदेहधारियों के अलावा पशु पक्षियों और कीट पतंगों से भी ग्रहण की जा सकती है। भगवान श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने इसी प्रकार से चौबीस पृथक पृथक गुरु बनाकर उनसे शिक्षा प्राप्त की थी।   

हमारी प्राचीन व्यवस्थाऐ और वर्तमान वैज्ञानिक धारणा - (2)

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सनातन  हिन्दू धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है।  प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार नहीं होने के कारण हिन्दू धर्म में ज्ञान विज्ञान की शिक्षा धर्म के माध्यम से परम्पराओं और मान्यताओं के रूप में सिखाने का प्रयास हमारे पूर्वजों द्वारा किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि वैज्ञानिक नियमों पर आधारित विकास ही वास्तविक विकास होता  है, इसी कारण से हिन्दू धर्म को सनातन धर्म भी कहा जाता है क्योंकि सनातन धर्म की नींव ही वैज्ञानिकता पर आधारित है, जिसका प्रमाण प्रथम दृष्टया प्राचीन काल के कर्मो के अनुसार किये गए वर्ण विभाजन से जहां व्यक्ति के कार्य के अनुसार उसके वर्ण को विभाजित किया गया था। सभी वर्णों में भी पारस्परिक सद्भाव और समन्वय था। इसके अलावा हमारे पूर्वजों ने अनेकानेक वैज्ञानिक कसौटियों पर आधारित धार्मिक परम्पराएँ और मान्यताएँ निर्धारित की हुई है, लेकिन जब उन्हें वैज्ञानिक कसौटी पर कसा जाता था तो वे विज्ञान की  कसौटी पर खरी उतरती थी।   

युगों की कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ

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युग शब्द का अर्थ होता है निश्चित संख्या की कालावधि।  हमारे धर्म शास्त्रों में चार युगों की व्याख्या मिलती है सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग।  हमारे शास्त्रों में इन चारों युगो के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता  है, उसी आधार पर हम भी इन युगों के बारे में जानने का प्रयास करते हैं कि किस किस युग में किस प्रकार की व्यवस्थाएँ रही है, उस युग में हुए अवतारों के साथ ही उस युग के लोगो के बारे में प्रमाण और जानकारियों का  हमारे धर्म शास्त्रों में कुछ इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है, हालाँकि विभिन्न विभिन्न मत मतांतर के कारण मतभेद भी है फिर भी हम उस युग के बारे में मुख्यतः ज्ञानार्जन करते हुए कुछ अल्प ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करेंगे।     

श्री कृष्ण लीला - कुम्हार पर प्रभु कृपा

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                                                                     आप सभी को  दुर्गा प्रसाद शर्मा का जय श्री कृष्ण। वैसे तो भगवान श्री कृष्ण की कई सुन्दर लीलाएँ हैं किन्तु बाल लीलाओं का एक अलग ही आनंद है।  प्रभु की लीलाओं का बखान करने की हमारी तो कोई सामर्थ्य नहीं है बस इस बहाने से प्रभु का स्मरण हम और आप कर रहे हैं।  यशोदा नंदन श्री बाल कृष्ण जी की एक लीला जिसमे उन्होंने एक कुम्हार पर अपनी कृपा की।  ठाकुरजी की उस सुन्दर कथा को आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ। एक बार की बात है कि गोकुल की गोपियों के मुख से आये दिनों बाल कृष्ण की शिकायतों और उलाहनों से यशोदा मैया बड़ी व्यथित हो गई थी और वे गुस्से में आकर छड़ी लेकर बाल कृष्ण की ओर दौड़ी, जब प्रभु श्री कृष्ण ने मैया को क्रोध में अपनी ओर आते देखा तो वे अपना बचाव करने के लिए भागने लगे। ...

श्री गुरु रामदास जी

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  सिख मत के चतुर्थ गुरु श्री रामदास जी हुवे, गुरुदेव रामदास जी का जन्म वर्तमान पाकिस्तान के लाहौर की चुना मंडी में हुआ था। गुरु रामदास जी का पूर्व नाम भाई जेठा जी था।  बाबा हरिदास जी सोढ़ी खत्री इनके पिताजी थे और दयाकौर इनकी माता जी थी।  इनके परिवार की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर थी, मात्र सात वर्ष की आयु में ही इनके माता पिता का साया नहीं रहा होने के कारण इनकी नानीजी जी इन्हें अपने यहां बसर्के गांव ले आई थी। बसर्के गांव में कई वर्षो तक उबले हुवे चने बेचकर अपना जीवन यापन किया करते थे, किन्तु दयाभाव और उदारता इतनी थी की कई बार किसी जरूरतमंद या किसी के द्वारा याचना करने पर चने बेचना भूलकर चने उन्हें दे दिया करते थे। एक बार गुरुदेव अमरदास जी बसर्के गांव में जेठा जी के दादा जी के देहांत के समय इनके घर पर पधारे तब उन्हें जेठा जी से गहरा लगाव हो गया था। उसके बाद जेठा जी भी अपनी नानी के साथ गोइंदवाल ही आकर रहने लगे थे और वहां भी उबले चने बेचने का काम करने लगे साथ ही जेठा जी गुरु अमरदास जी की सेवा करते हुवे धार्मिक संगत में भी भा...

शरद पूर्णिमा

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सम्पूर्ण वर्ष भर की पूर्णिमा में आश्विन मास की पूर्णिमा अर्थात शरद पूर्णिमा का एक विशेष ही महत्त्व है। इस पूर्णिमा के बाद से ही हेमंत ऋतू की शुरुआत हो जाती है और धीरे धीरे ठण्ड का मौसम शुरू हो जाता है। ऐसी मान्यता है कि आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन ही चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है और  इस शरद पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा के प्रकाश के माध्यम से अमृत वर्षा होती है, जोकि मानव के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत ही लाभदायक होती है।  इसलिए शरद पूर्णिमा के इस समय को अमृत काल भी कहा जाता है।  

क्रांतिकारी बिरसा मुंडा

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स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान देने वाले कई महान क्रांतिकारियों के तो नाम भी आज की पीढ़ी को याद भी  नहीं है, और कई नाम गुमनामी के अंधेरों में चले गए हैं, ऐसा ही एक नाम है बिरसा मुंडा का। छोटा नागपुर के पहाड़ी इलाकों में 19 वीं सदी के अंत में उठी क्रन्तिकारी गूंज ने ब्रिटिश सरकार की नींद हराम कर दी थी। इस क्रांतिकारी गूंज का आव्हान करने वाले बिरसा मुंडा जिन्हें स्थानीय जनता एक भगवान के रूप में मानती थी। रांची से 45 किलोमीटर दूर स्थित एक गांव में किसान सुगना मुंडा के पुत्र का जन्म बृहस्पतिवार को होने के कारण इस बालक का नाम बिरसा पड़ा। बचपन से ही बालक का मन पढ़ाई की बजाय कुछ नवीन कार्य एवं उक्तियों में अधिक लगता था।  जब वह 16 वर्ष के थे तब उन्हें पढ़ने के लिए मिडिल स्कूल भेजा गया किन्तु वहां बिरसा अंग्रेजों की गुलामी से विचलित हो गए। स्कूल में उन्होंने बड़ी मुश्किल से चार साल निकाले कि एक दिन अपने सहपाठियों को कंधों पर हल रखकर खेत जोतते देख उनका किशोर मन विद्रोह कर बैठा।  वह दौड़कर अपने सहपाठियों के पास पंहुचा और देखा कि उनके कंधों पर फफो...

गुरुदेव श्री अमरदास जी

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सिख मत के तृतीय गुरु श्री अमरदास जी हुवे, गुरुदेव अमरदास जी का जन्म अमृतसर के बासरका गांव में हुवा था।  तेजमान भल्ला जी खत्री उनके पिताजी का नाम था और उनकी माताजी का नाम सुलक्षणी देवी था, जिन्हें लखमी जी और बखत कौर भी कहते थे। गुरु अमरदास जी का विवाह मनसा देवी के साथ संपन्न हुवा था, जिस विवाह के परिणामतः गुरुदेव अमरदास जी की चार संतान थीं, जिनमे दो पुत्रियां बीबी रानी और बीबी भानी तथा दो पुत्र बाबा मोहन जी और बाबा मोहरी जी थे।  गुरु अमरदास जी के पिता सनातनी हिन्दू होकर वैष्णव धर्म का पालन करते हुवे अपना कारोबार किया करते थे।  गुरु अमरदास जी भी अपने पिता की तरह ही वैष्णव विचारधारा के रहे होकर हिन्दू मतों, सिद्धांतो तथा धार्मिक नियमों का पालन करते थे तथा विशेष आचार विचार वाला ही उनका रहन सहन था।  वे प्रति वर्ष गंगास्नान के लिए हरिद्वार की यात्रा करते थे।  

वीरांगना रानी दुर्गावती

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एक ऐसी वीरांगना राज रानी जिनकी पोषाक रक्त से सनी हुई है, जिसके दाहिने हाथों की तलवार शत्रुओं के रक्तपान के लिए लालायित हो रही हो, जो घोड़े और हाथी पर सवार होकर रण में दानवदलिनी दुर्गा की भांति दानव रूपी शत्रुओं के दमन के लिए रणचण्डी बन गई हो, तो ऐसे परम पादपंकजों पर हर कोई नतमस्तक हो जाता है, ऐसी ही वीरांगना थी गोंडवाना की रानी दुर्गावती, जिन्होंने अपने जीवनकाल में 52 युद्ध लडे जिनमें से 51 युद्धों में वे विजेता रही। रानी दुर्गावती ने मालवा के बाज बहादुर को तीन बार और मुग़ल शासक अकबर को दो बार हराया।  विलक्षण चरित्र वाली रानी दुर्गावती का नाम अपनी वीरता, शक्ति और रणकुशलता के लिए इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है, इतिहास में उन्हें वह स्थान प्राप्त है जो बड़े बड़े वीरों को भी प्राप्त नहीं हो पाता है।

श्याम सखा सुदामा

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विप्रवर सुदामा जी के नाम से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है और फिर श्री कृष्ण भगवान से उनकी मित्रता का प्रसंग तो अत्यंत ही मधुरतम चरित्र स्मृति पटल पर अंकित कर देता है।  सुदामा जी अत्यंत ही निर्धन परिवार से रहे होकर यदि उन्हें दरिद्र भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।  सुदामाजी के चरित्र के श्रवण मात्र से ही अनायास मुँह से निकल जाता है कि ईश्वर भले ही किसी को गरीबी दे किन्तु दरिद्रता न दे।  सुदामा जी बाल्याकाल में अवंतिका नगरी आज की उज्जैन नगरी में स्थित महर्षि सांदीपनि जी के आश्रम में अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे वहीँ पर श्री कृष्ण जी एवं बलराम जी भी शिक्षा प्राप्ति के लिए आये और वही पर श्री कृष्णजी एवं सुदामाजी की मैत्री हुई थी।  श्यामसुंदर तो कुछ ही दिनों में गुरुगृह रहकर समस्त वेद वेदांग, शस्त्रादि एवं सभी कलाओं की शिक्षा ग्रहण करके चले गए और समय बीतने पर द्वारकाधीश भी हो गए। उधर सुदामाजी की भी शिक्षा पूर्ण होने पर वे भी गुरुदेव से आज्ञा लेकर अपनी जन्मभूमि पर वापस लौटे और विवाह करके ग्रहस्थाश्रम को स्वीकार किया।  एक टूटी सी झोपड़ी, गिनती के पात्र...

मातृ पितृ भक्त श्रवण कुमार

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माता पिता की भक्ति एवं सेवा की बात आते ही श्रवण कुमार का नाम अनायास ही स्मृति में आ जाता है। श्रवण कुमार वैश्य परिवार में उत्पन्न हुवे।  उनके माता पिता की नेत्र ज्योति चली गई थी। माता पिता के नेत्र ज्योति विहीन होने के बाद श्रवण कुमार बड़ी सावधानी और श्रद्धा के साथ अपने माता पिता की सेवा तो करते ही थे साथ ही उनकी प्रत्येक इच्छा को भी पूरा करने का भरसक प्रयास करते थे।  एक बार श्रवण कुमार के माता पिता की इच्छा तीर्थयात्रा करने की हुई, जिसे उन्होंनेअपने पुत्र श्रवण कुमार के समक्ष प्रकट की।  श्रवण कुमार ने अपने माता पिता की तीर्थयात्रा की इच्छापूर्ति के लिए एक कावड़ बनाई और उसमे दोनों को बैठाकर कावड़ अपने कंधों पर उठाए हुवे वे तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े।  

गुरु भक्त एकलव्य

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निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य धनुर्विद्या के ज्ञान प्राप्ति की अभिलाषा लिए सर्वश्रेष्ठ आचार्य और कौरव पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य जी के पास पंहुचा और उनके चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम किया।  आचार्य द्रोण द्वारा जब उससे आगमन का कारण पूछा जाने पर बालक एकलव्य ने अपनी धनुर्विद्या प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की, जिससे आचार्य द्रोण संकोच में पड़ गए क्योंकि कौरव और पांडव राजकुमारों को वे शस्त्र शिक्षा दे रहे थे और उसके लिए वे भीष्म पितामह से वचनबद्ध भी थे।  इसके अलावा राजकुमारों के साथ एक निषाद बालक को शिक्षा देने में किसी प्रकार की असामान्य स्थिति भी वे निर्मित नहीं होने देना चाहते थे।  इसलिए उन्होंने बालक एकलव्य को धनुर्विद्या की शिक्षा प्रदान करने में असहमति बताई।  

प्राचीन गुरुकुल की शिक्षा और पर्व - आयोजन

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  प्राचीन समय में गुरुकुल की शिक्षा पद्धति में संस्कारों के अतिरिक्त व्यक्तित्व निर्माण, पूजा उपासना की विभिन्न पद्धति, रीति की महत्वपूर्ण शिक्षा उपासना के उपकरणों के माध्यम से, विभिन्न देवी देवताओं के रहस्य, अवतारों, उनके आयुधों के आधार पर दी जाती थी।  हमारे ऋषि मुनियों ने सिर्फ इतना ही नहीं किया बल्कि उन्होंने समाज को उन्नत और सुविकसित बनाने, उसमे सामूहिकता, ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा से कार्य करने, नागरिकता के कर्तव्य एवं दायित्वों के आधार पर परमार्थ परायणता, देशभक्ति और लोकमंगल की प्रेरणा की ऊर्जा प्रदान करने के लिए जिस दूरदर्शी प्रणाली का अविष्कार किया वह प्रणाली है - पर्व - आयोजन। 

बुजुर्गों से है परिवार की सुरक्षा

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आज हम पाश्चात्य संस्कृति को अपना कर हम अपनी मूल संस्कृति और संस्कारों से दूर होते जा रहे हैं।  हम अपने बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए तो चिंतित रहते हैं किन्तु हम अपने बच्चों को संस्कारित नहीं कर पा रहे हैं जिसके परिणामस्वयरूप नई पीढ़ी संस्कारविहीन होकर मात्र अपने स्वार्थ के वशीभूत क्या नहीं कर रही है।  इस स्थिति में सर्वाधिक पीड़ित पक्ष यदि है तो वह है वृद्धजन। समाचार पत्रों और न्यूज चैनल पर कई खबरें देख,सुन और पढ़कर बड़ा ही दुःख होता है कि उच्च शिक्षित बच्चे जिनके लिए उनके माता पिता ने अपनी समस्त इच्छाओं का गला घोंट कर उनके उज्जवल भविष्य के लिए अपने जीवन को दांव पर लगा दिया हैं वे ही बच्चे अपने माता पिता को कुछ नहीं समझते हैं और तो और उन्हें अपने साथ रखना तक नहीं चाहते, घर से बाहर कर देते है वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं।  आज ही मैंने एक कहानी पढ़ी, जो हो सकता है काल्पनिक हो किन्तु आज के परिपेक्ष्य में सत्यता के काफी करीब है, इसलिए आप सभी के साथ शेयर कर रहा हूँ।   

संझा (सांझी) पर्व

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भारतीय लोक कलाओं में भारतीय संस्कृति के स्वरुप और सौंदर्य के दर्शन तो होते ही है, इनमें चित्र कला एवं आकृतियों का भी अपना अलग ही महत्त्व है।  ऐसी ही एक कला है संझा या सांझी कला और इस कला के पर्व को संझा पर्व के रूप में भाद्रप्रद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक सोलह दिनों तक मनाया जाता है। श्राद्ध पक्ष अर्थात पितृ पक्ष में मनाया जाने वाला यह पर्व विशेषकर कुमारी कन्याओं का ही एक पर्व है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह पर्व सर्वप्रथम माता पार्वती ने मनवांछित वर प्राप्ति के लिए मनाया था।  इसके आलावा वृषभान दुलारी राधारानी द्वारा भी इस पर्व को मनाये जाने की मान्यता चली आ रही है। पुष्टिमार्गीय सेवा में पुरे सोलह दिनों तक फूलों की सांझी बनाइ जाती है। मालवा और निमाड़ की अपनी अनूठी लोक कला और परम्परा अनुसार एक विशिष्ठ पहचान रखने वाला पर्व है संझा पर्व। कला की अभिवयक्ति में जब धर्म का सम्पुट लग जाता है तो वह पवित्र और पूजनीय हो जाती है। पितृ पक्ष में मनाया जाने वाला यह पर्व कुमारी कन्याओं का अनुष्ठानिक व्रत वाला पर्व है।  कहा जाता है कि कुमारी कन्याएँ अपने ...

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

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  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मेँ कई ऐसे महानायक हैं जिन्होंने अपने महान कार्यों से देश को स्वतंत्र कराने में अहम भूमिका निभाई है, ऐसे ही एक महान नायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जिन्हें आधुनिक भारत का निर्माता और भारतीय क्रांति का जनक भी कहा जाता है। बाल गंगाधर तिलक का जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरी नामक स्थान पर एक सुसंस्कृत मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था, उनके पिता का नाम श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक था। श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक पहले रत्नागिरी में सहायक अध्यापक थे उसके बाद में वे पुणे और ठाणे में सहायक उप शैक्षिक निरीक्षक के रूप में कार्यरत थे। प्रारंभिक शिक्षा मराठी में पूर्ण होने के बाद बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के लिए पुणे भेजा गया। बाल गंगाधर तिलक ने डेक्कन कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद एक शिक्षक और शिक्षक संस्था के संस्थापक के रूप में उनका सार्वजानिक जीवन आरम्भ हुआ। 

गुरु श्री अंगद देव जी

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  परमपूज्य श्री गुरु नानक देव जी के पश्चात् सिखमत के द्वितीय गुरु श्री अंगद देव जी हुवे थे, जिन्हें द्वितीय नानक भी कहा जाता है। गुरुदेव अंगद देव जी का पूर्व नाम लहणा जी था। लहणा जी का जन्म पंजाब के फिरोजपुर के हरिके गांव में हुआ था।  भत्ते की सराह नामक स्थान इनका पैतृक स्थान कहा जाता है। गुरु अंगद देव जी के पिता फेरुमल जी खत्री और माता दया कुंवरि थे। लहणा जी का विवाह संघर गाँव निवासी देवीचंद जी खत्री की सुपुत्री बीबी खिबीजी के साथ संपन्न हुआ था। लहणा जी के दो पुत्र दासुजी और दातुजी तथा दो पुत्रियां बीबी अमरोजी और बीबी अनोखी जी थे।  मुग़ल शासक बाबर द्वारा हमले के समय भत्ते की सराह भी लूट ली गई होने के बाद लहणा जी ने भी अपना निवास स्थान भत्ते की सराह से हटा कर खडूर साहब को बना लिया था। पिता के देहांत के बाद पिता के समस्त कारोबार का भार और जिम्मा लहणा जी पर आ गया था किन्तु उन्होंने भी अपने पिता के उस कारोबार को बड़ी ही जिम्मेदारी से अच्छे तरीके से संभाल लिया था। उनकी ईमानदारी और सच्चाई के कारण सभी लोग उनका आदर करते थे और उन पर अटूट विश्वास भी करते थे। ...

भक्तराज केवट

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भक्ति में बड़ी शक्ति होती है, भक्ति के कारण भगवान भी भक्त के अधीन हो जाते हैं।  भक्त के लिए भगवान अवतरित तो होते ही हैं साथ ही भक्त के मन के अनुरूप कार्य भी करते हैं। भक्त प्रह्लाद, बालक ध्रुव, भक्त नरसी मेहता, शबरी जैसे कई दृष्टांत हमारे शास्त्रों में मिलते हैं, उसी श्रृंखला में त्रेता युग के भक्त निषादराज केवट का भी नाम सर्वोपरि है। किसी भी रामकथा, भागवत कथा अथवा भगवत प्रसंग में भक्तराज केवट के नाम का स्मरण अवश्य ही होता है। भक्तराज केवट की भक्ति में तो इतनी शक्ति थी कि भगवान श्री राम जी को भी भक्त का आश्रय लेना पड़ा और भक्त के कहने के अनुसार कार्य भी करना पडा। भक्त और भगवान की  इस अद्भुत लीला वाला भजन भी काफी प्रचलित है कि  "कभी कभी भगवान को भी भक्तों से काम पड़े जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े। ''  इस भजन में भक्त और भगवान  की लीला का इतना सुन्दर भाव मिलता है कि भगवान श्री राम जी को गंगा नदी के  पार जाना था जिसमे उन्हें केवट का सहयोग लेना था और केवट बगैर शर्त अपनी नाव उन्हें चढ़ाना नहीं चाहते थे।

दानवीर भामाशाह जी

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भारत देश के इतिहास में भामाशाह जी का नाम देश सेवा और मातृ भूमि के प्रति अगाध प्रेम के साथ ही दानवीरता के लिए आज भी अमर है।  राजस्थान के मेवाड़ राज्य में एक तेली परिवार में भामाशाह जी का जन्म हुवा था, इनके पिता भारमल जी को राणा सांगा द्वारा रणथम्बौर के किले का किलेदार नियुक्त किया था। भामाशाह जी बाल्यकाल से ही महाराणा प्रताप के मित्र और सहयोगी तो थे ही साथ ही वे उनके विश्वासपात्र सलाहकार भी रहे थे। संग्रहण की प्रकिया से खुद तो दूर रहते ही थे साथ ही लोगों को भी प्रेरित करने में भामाशाह जी अग्रणीय थे।  भामाशाह जी की निष्ठा, सहयोग और धन सम्पदा के  दान का महाराणा प्रताप के जीवन में काफी महत्वपूर्ण योगदान  रहा है। मातृभूमि की रक्षा में जब महाराणा प्रताप का सबकुछ धन आदि नहीं रहा तब भामाशाह जी ने अपनी सम्पूर्ण धन सम्पदा, जिसके बारे में बताया जाता है कि उस सम्पत्ति से 25 हजार सैनिकों का 11 वर्ष तक का खर्च पूरा किया जा सकता था, उन्हें अर्पित कर दी, और स्वयं भी महाराणा की सेवा में  आ गए।

मेवाड़ की हाड़ी रानी

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                           राजस्थान के मेवाड़ राज्य के महाराणा राज सिंह जी के सलूम्बर प्रान्त के सामंत थे  राव रतन सिंह   चूंडावत ।  चूंडावत खानदान अपनी बहादुरी, सेवाभाव और कर्तव्य निष्ठा के लिए आज भी जाना जाता है, हाड़ी रानी इसी चूंडावत परिवार में हुई थी।  उस समय भारत देश पर मुग़ल शासन रहा होकर औरंगज़ेब का शासन था, जिसके शासनकाल में हमारे देश के कई मंदिरों को तोड़ दिया गया और लाखो लोगों का नरसंहार कर दिया गया था। मुग़ल शासक औरंगज़ेब जिसने अपने भाइयों तक का क़त्ल  कर दिया था और अपने पिता को भी कैद कर दिया था, इतना क्रूर शासक भी मेवाड़  के महाराणा राज सिंह का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। औरंगज़ेब  के शासन में कई राजपूत ठिकानों  ने उसके खिलाफ विद्रोह किया था, जिनमे मेवाड़ के महाराणा राज सिंह भी थे।  महाराणा राज सिंह मुग़ल शासक औरंगज़ेब के बहुत बड़े दुश्मन थे। 

नाग पंचमी

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भारत देश में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी के रूप में मनाया जाता हैं, देश के कुछ भागों में यह पर्व कृष्ण पक्ष की पंचमी को भी मनाया जाता है। हिन्दू धर्म में नाग पंचमी का एक विशेष महत्त्व है।  भगवान शंकर के गले में सुशोभित नाग को देवता के रूप में पूजने का यह त्यौहार भी शिवजी के प्रिय श्रावण मास में ही आता है। भगवान शिव के गले में हार के रूप में सुशोभित और भगवान विष्णु की शैया बने नाग को भी देवता मन कर पूजा आराधना करने का पर्व है नाग पंचमी। पुराणों में यक्ष, किन्नर और गन्धर्वो दे साथ नागों का भी वर्णन आता है, देवों के लिए समर्पित नागों का स्थान पाताल में माना जाता है और इनका उद्गम महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू से माना जाता है। पुराणों में भगवान सूर्य के रथ में भी द्वादश नागों का उल्लेख मिलता है जोकि प्रत्येक मास में उनके रथ के वाहक माने जाते हैं, इन बारह स्वरुप में ही मुख्य रूप से पूजन किया जाता है। वर्षा ऋतू में नाग भूगर्भ से निकल कर बाहर आ जाते हैं और वे किसी प्रकार की हानि न पंहुचाये आइल उन्हें प्रसन्न करने के लिए भी पूज...

हरियाली अमावस्या

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अमावस्या की तिथि का धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टी से तथा अन्य कई पहलुओं से हमारे हिन्दू धर्म में एक अलग ही महत्त्व है, अमावस्या तिथि के स्वामी पितृदेव होने कारण अधिकांशतः इस तिथि को पितृ तृप्ति हेतु पितृ कार्य अर्थात श्राद्ध, तर्पण, पितृ शांति हवन पूजन, ब्राह्मण भोजन, दान धर्म के कार्य संपन्न किये जाते हैं। पवित्र श्रावण मास की अमावस्या का अपना एक अलग ही महत्त्व है, श्रावण मास की इस अमावस्या को हरियाली अमावस्या के नाम से जाना जाकर इसे एक उत्साह एवं भक्तिभाव के साथ शिव पार्वती की पूजा आराधना कर त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि एक पेड़ दस पुत्रों के समान होता है, पेड़ लगाने से सुख के साथ पुण्य की भी प्राप्ति होती है इस कारण बारिश के मौसम में प्रकृति पर आई बहार की ख़ुशी के साथ भगवान शिव की आराधना और पितृ पूजन के साथ ही इस दिन वृक्षारोपण भी किया जाता है। हमारे धर्म शास्त्रों में वृक्षों में देवता का वास  जैसे पीपल में त्रिदेव, बेल में शिव, आंवले में लक्ष्मीनारायण आदि, भ...

मार्कण्डेय पर शिव कृपा

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भगवान शिव के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण काफी दुःखी रहा करते थे। पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा से उन्होंने अपनी पत्नी मरुद्गति के साथ भगवान शंकर जी को प्रसन्न करने के लिए उनकी आराधना एवं कठोर नियमों का पालन करते हुवे तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर  भगवान शिव उनके समक्ष प्रकट हुवे और उनसे पूछा कि हे मुने, तुम उत्तम गुणों से रहित चिरजीवी पुत्र चाहते हो या अल्पायु गुणवान पुत्र तुम्हें चाहिए।  मुनि कुछ सोच कर बोले प्रभु सद्गुण रहित दीर्घजीवी पुत्र से किसी का क्या भला होगा, मुझे तो धर्मात्मा गुणवान पुत्र चाहिए, भले ही वह थोड़े समय तक जीवित रहे। भगवान शंकर वरदान देकर अंतर्धान हो गए। समय आने पर मुनि के यहाँ एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ।  बालक के गर्भाधान संस्कार से लेकर बाद तक के समस्त संस्कार विधिपूर्वक संपन्न कराये गए।  रूप और तेज में साक्षात् शिव के समान प्रतीत होने वाले बालक का नाम मार्कण्डेय रखा गया।  मृकण्ड मुनि को पता था कि उनके पुत्र को मात्र सोलह वर्ष की ही आयु प्राप्त हुई है, आयु के विषय में कुछ मतभेद भी है कुछ जगह बारह व...

हमारी प्राचीन व्यवस्थाऐ और वैज्ञानिक धारणाऐ

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वर्तमान के कोरोना काल में जिन व्यवस्थाओं से हम रूबरू हो रहे हैं उसमें सहसा हमें अपने दादा दादी वाले समय की स्मृति हो जाती है कि उन्होंने किस प्रकार की व्यवस्थाऐं बना रखी थी कि दैनिक जीवन में आपको क्या करना है क्या नहीं करना है। अपने जुते  चप्पल कहाँ उतारना है, बाहर के कपड़े कहाँ रखना है, कैसे भोजन करना है, अपनी दिनचर्या किस प्रकार रखना है, घर से बाहर जाने पर बगैर नहाये रसोई में प्रवेश नहीं करना आदि मर्यादाएँ और पाबंदियाँ उस समय हमें  बड़ी बुरी लगती थी किन्तु आज हम उन्हीं मान्यताओं का अनुसरण कोरोना के भय के कारण कर रहे हैं, ऐसे में लगता है कि हम गलत हैं या हमारे बुजुर्ग गलत थे।  हमारे  पूर्वजों ने हमारे लिए अपने अनुभवों का अद्भुत ज्ञान हमें विरासत में प्रदान किया है किन्तु हम उसे अपना नहीं पा रहे हैं या यह कहें कि आज के आधुनिक युग में हम पिछड़े हुए कहलाना नहीं चाहते हैं।  

गुरु पूर्णिमा

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गुरु का मनुष्य के जीवन में काफी महत्त्व है। गुरु शब्द का शाब्दिक अर्थ यदि देखा जाए तो गु अर्थात अंधेरा और रु अर्थात अंधेरे को दूर करने का प्रतीक। दोनों शब्द हमारे मस्तिष्क और आत्मा को जाग्रत कर हमारे जीवन के अंधकार को दूर करते हैं। हिन्दू कैलेण्डर अनुसार आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को गुरुपूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। हमारे सनातन हिन्दू धर्म में गुरु का स्थान भगवान से भी ऊपर माना गया है, क्योंकि गुरु बिन न तो ज्ञान मिलता है और न मानव जीवन अनुशासन का पालन कर भक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। तभी तो कहा है कि गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आप की जो गोविन्द दियो मिलाय । गुरु का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है इसी बात को समझने और समझाने के लिए इस पर्व को मनाया जाता है।  इसदिन लोग श्रद्धा पूर्वक अपने गुरुजनों का पूजन कर उन्हें याद करते हुवे उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते है और उन्हें अपनी सामर्थ्य अनुसार भेंट दक्षिणा प्रदान कर उनका आभार व्यक्त करते है।    

दादाजी धूनीवाले

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श्री श्री १००८ श्री केशवानंद जी महाराज जोकि दादाजी धूनीवाले के नाम से सभी की स्मृति में विद्यमान हैं। भारत के महान संतों में उनका नाम पूर्ण आस्था और सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रतिदिन पवित्र अग्नि (धूनी) के समक्ष ध्यानमग्न बैठने के कारण लोग उन्हें धूनी वाले दादाजी के नाम से स्मरण करने लगे थे। कहा जाता है कि वे सदैव घूमते रहते थे, यह भी मान्यता है कि वे शिव तथा दत्तात्रय भगवान के अवतार थे।  दादाजी धूनीवाले के दरबार में आने से बिनमांगी मुराद पूरी होने की भी कई कथाएँ प्रचलित है। दादाजी ने सम्पूर्ण भारत में यात्रा कर अंत में दादाजी ने मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में समाधि ली थी वहीं पर उनका दरबार उनके समाधि स्थल पर विद्यमान है, जहाँ दादाजी के समय से ही आज तक निरंतर धूनी प्रज्वलित है। देश विदेश में दादाजी के असंख्य भक्त हैं,जो प्रत्येक वर्ष गुरु पूर्णिमा पर दादाजी के धाम पर उनका आशीर्वाद लेने आते हैं।  

पंचाग की समझ अति आवश्यक

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सनातन धर्म की रक्षार्थ हमें जागरूक होना होगा और हमारी नव पीढ़ी को भी जागरूक करना होगा।  इसके लिए जहाँ हमें अपने बच्चों को शुरू से ही संस्कारित करना होगा वहीं उन्हें बचपन से ही अपने धर्म के बारे में जानकारी भी देते रहना है।  बच्चों को जहाँ अपनी परम्परा और रीती रिवाजों से अवगत कराते हुवे अपने धर्म के प्रति उनमें बचपन से ही रुझान बना रहे इस बारे में भी हमें प्रयास करना होगा।  आज पाश्चत्य संस्कृति के प्रति आकर्षित होकर हम उसका अनुसरण करते जा रहें हैं, उस पर भी हमें रोक लगानी होगी।  आज पाश्चत्य संस्कृति के प्रति आकर्षित होकर हम अपनी संस्कृति और अपनी मर्यादाएं भूलकर फूहड़ता और अश्लीलता की ओर बढ़े चले जा रहे हैं, जिसमें सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति आये दिन पाश्चत्य संस्कृति अनुसार विभिन्न प्रकार के डे अर्थात दिवस मनाने से हो रही है। इसमें प्रमुख हैं 31 दिसंबर, न्यू ईयर डे, वैलेंटाइन डे की आड़ में पूरा सप्ताह कोई न कोई डे मनाने के तरीकों से हमारे धर्म और संस्कृति  को हम कितना नुकसान पंहुचा रहे हैं, कितना धर्म के विपरीत आचरण हमारे द्वा...

चन्द्र शेखर आज़ाद

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भारत की स्वतन्त्रता संग्राम के अत्यंत ही साहसी स्वतन्त्रता सेनानी चन्द्र शेखर आज़ाद का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाभरा नामक गांव (जो आजकल आजाद नगर के नाम से जाना जाता है) में एक ब्राह्मण परिवार में पंडित सीताराम जी तिवारी एवं जगदानी देवी के पुत्र के रूप में २३ जुलाई १९०६ में हुआ था। चन्द्र शेखर आज़ाद के पिताजी अत्यंत ही ईमानदार और बात के धनी थे, वहीं स्वाभिमानी और साहसी भी थे,  चन्द्र  शेखर आज़ाद को अपने पिता से ही इन गुणों की प्राप्ति हुई थी । चन्द्र शेखर आज़ाद को उनकी माताजी संस्कृत का विद्वान् बनाना चाहती थी इस कारण १४ वर्ष की आयु में उन्हें बनारस में संस्कृत पाठशाला में अध्धयन हेतु भेजा गया किन्तु बालक चन्द्र शेखर आज़ाद तो देश को अंग्रेजों से आजाद कराने हेतु संकल्पित हो गए थे।   

संत श्री सिंगा जी

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संत सिंगा जी निमाड़ मध्य प्रदेश के महान संत हो गए हैं।  निमाड़ की जनता आज भी  उनके द्वारा रचित भजनों का  बड़े ही प्रेम और भक्तिभाव से गान करती है।  पिपलिया के पास घने जंगल मेँ नदी के तट पर संत सिंगा जी ने समाधि ली थी, प्रतिवर्ष आश्विन माह में इनके समाधिस्थल पर आज भी बहुत बड़ा मेला लगता है।  जहाँ लाखों की संख्या में जनता अपना मस्तक नवाने के लिए जाती है।  संत सिंगाजी के कई भक्तजन आज भी अपने कई कामों के लिए विशेषकर पशुओं के खो जाने या पशुओं की किसी समस्या के लिए संत सिंगा जी से मन्नत लेकर कार्य सिद्धि पर मन्नत उतारने उनके समाधिस्थल पर पंहुचते है।  

संत श्री पीपाजी महाराज

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राजस्थान  के झालावाड़ जिले के गागरोन गढ़ का सैन्य दृष्टि से काफी महत्त्व रहा था।  शत्रुओं के मंसूबो को विफल करने वाले भारतीय दुर्गों में यह दुर्ग सदैव अग्रणी रहा होकर कई मुग़ल बादशाह अपनी सेना के साथ अपना युद्ध कौशल यहाँ नहीं दिखा पाए थे।  इस स्थान की प्राकृतिक छटा भी काफी मनोरम और सुन्दर है। हरे भरे पेड़, झाड़ियां और लताकुंज के साथ ही जलप्रपात तथा कालीसिंध व सहायक नदियों से घिरा हुआ यह दुर्ग अत्यंत ही अनुपम प्राकृतिक छटा के कारण सहसा आकर्षित करता है।  इसी गागरोन दुर्ग में राजपरिवार में भक्त प्रवर संत पीपाजी महाराज का जन्म हुआ था।  राजकुमार प्रतापसिंह (पीपाजी) इसी स्थान पर प्रकृति की गोद में पले बढ़े।  बाल्यकाल से ही स्वभावतः धार्मिक प्रवृति वाले पीपाजी ने अपने पिताजी की मृत्यु के बाद राजगद्दी संभाली, वे युवा और सुन्दर थे।  उन्होंने कुल बारह राजकुमारियों से विवाह किया किन्तु सबसे छोटी रानी सीता पर उनका अधिक स्नेह था। राजसी विलासपूर्ण वातावरण में भी वे धर्म विमुख नहीं हुऐ उनके राज्य में धार्मिक कार्य सदैव होते रहत...

सनातन धर्म - व्यक्तिगत सोलह संस्कार

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हमारे पूर्वजों द्वारा हिन्दू सनातन धर्म में कई व्यवस्थाएं बड़ी सोच समझ कर निर्धारित की थी जैसे - मानव जीवन को आश्रम वर्णादि में  विभक्त करना, व्यक्ति को सोलह संस्कारों से संस्कारित करना इन सभी के पीछे एक गहरी सोच छिपी हुई है। प्राचीनकाल से ही सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही होकर प्रत्येक संस्कार का अपना अलग ही महत्त्व है। संस्कार शब्द अपने आप में व्यापक शब्द है और बहुत सरे अर्थ अपने में छिपाये हुए है।    

प्राचीन गुरुकुल की शिक्षा में चौंसठ कलाएँ

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प्राचीनकाल में शिक्षा का काफी विस्तृत क्षेत्र था, जिसमे शिक्षा के साथ ही कलाओं का भी अपना अलग ही स्थान होता था। विभिन्न कलाओं की भी विधिवत शिक्षा गुरुकुल में प्रदान की जाती थी।  हमारे शास्त्रों में भी इन कलाओं के बारे में काफी कुछ उल्लेख मिलता है। कलाएँ अनंत हैं जिनके नाम की भी हम कल्पना नहीं कर सकते हैं, फिर भी मुख्य रूप से चौंसठ कलाएँ मानी गई है, जिन कलाओं को चौंसठ कलाओं के रूप  में जाना जाता है।  विभिन्न शास्त्रों में तथा विभिन्न ऋषि मुनियों आदि ने भी अपने अपने विचार अनुसार इन कलाओं को समझाया है, जिनमें कुछ मतभेद भी हैं। उनमें से शुक्राचार्य जी के द्वारा अपने नीतिसार में किये गए उल्लेख अनुसार इन चौंसठ कलाओं को संक्षिप्त में इस प्रकार समझने का प्रयास किया जा सकता  है - 

राजमाता जीजा बाई

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छत्रपति शिवाजी महाराज की पुण्यमयी माताजी जीजा बाई अपने बाल्यकाल से ही हिन्दू जाति के मान सम्मान  और गौरव की रक्षा के लिए सदैव समर्पित रही थी।  सोलहवीं सदी में सिंदखेड के यदुवंशीय देशमुख जाधवराव की पुत्री के रूप में जीजा बाई का जन्म हुआ था।  दक्षिण भारत में सतारा के राज्य संस्थापक सुजान सिंह मेवाड़ के महाराणा प्रताप के वंशज थे, जो कि भोसवंत या भौंसले कहलाया करते थे। इस  भौंसले वंश के मालोजी नामक सरदार बड़े ही वीर और पराक्रमी थे।  सिंदखेड के अधिपति जाधवराव से उनके काफी अच्छे सम्बन्ध थे।  एक बार होली के उत्सव पर मालोजी सिंदखेड में थे, जहां उन्होंने जाधवराव की छोटी पुत्री जीजा बाई को देखकर कहा कि यह तो मेरे पुत्र शाहजी की वधु होने योग्य है, जाधवराव जी की सहमति के बाद उस समय बचपन में ही जीजाबाई और शाहजी का विवाह हो गया था।  

गंगा दशहरा

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वराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि और बुधवार के दिन हस्त नक्षत्र में गंगा नदी का स्वर्ग से पृथ्वी पर आगमन हुआ था, उस दिन दस योग अर्थात ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, बुधवार, हस्त नक्षत्र, गर करण, आनंद योग व्यतिपात कन्या का चंद्र, वृषभ का सूर्य आदि विद्यमान होने के कारण इस दिन को गंगा दशहरा भी कहा जाता है। इसी प्रकार से स्कन्द पुराण के अनुसार  ज्येष्ठ  मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को संवत्सरमुखी माना गया होकर इस दिन गंगा स्नान, व्रत, दान, तर्पण आदि करने से दस पापों से मुक्ति होना उल्लेखित है। इस दिन पवित्र गंगा नदी में स्नान का विशेष महत्त्व है, यदि कोई मनुष्य वहां तक जाने में असमर्थ हो तो नजदीक किसी भी नदी, सरोवर अथवा अपने घर पर भी पवित्र गंगा जी का ध्यान करते हुवे अथवा साधारण जल में थोड़ा गंगा जल मिलाकर भी स्नान कर  सकते हैं। घर में गंगाजली को सम्मुख रखकर भी पूजा आराधना की जा सकती है।          

शिष्य को संत कबीरदास जी की शिक्षा

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महान संत कबीरदास जी का जन्म एक अत्यंत ही गरीब जुलाहा परिवार में हुआ था।  कबीरदास जी के पिताजी का कपडे बुनने का कामकाज पीढ़ियों से चला आ रहा था। कबीरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के रहे थे, और अपने पारिवारिक कपड़ा बुनने के कारोबार में हाथ बंटाते थे। पिताजी के बाद भी वे अपना वही कार्य करते हुवे अपना जीवनयापन करते थे। भगवान की भक्ति में सदैव लीन कबीरदास जी कपड़ा बुनते हुवे भी भगवान के ही ध्यान में रहकर भजन और दोहे का गान किया करते थे, उन पर ईश्वरीय कृपा भी थी।  कबीरदास जी पर ईश्वरीय कृपा और उनके भजनों तथा दोहों से प्रभावित कई लोग उनके भक्त हो गए थे, जिसमे कई प्रतिष्ठित सेठ, साहूकार, जमींदार भक्त भी थे।   

प्राचीन गुरुकुलों वाली क्रीड़ाएँ (खेलकूद)

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जिस प्रकार आज खेलकूद के रूप में क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, टेनिस, बैडमिंटन आदि खेल प्रमुखता से खेले जाते हैं, वैसी ही कुछ व्यवस्थाऍ हमारे प्राचीन काल की शिक्षा पद्धति में भी शिक्षा के साथ क्रीड़ा अथवा खेलों की हमारे गुरुकुलों में रही थी। शिक्षा के साथ क्रीड़ा का साथ तो प्रारम्भ से ही रहा है, तथा शिक्षा के अनिवार्य अंग के रूप में इसे स्वीकार भी किया गया है।  खेलों का अभ्यास शारीरिक स्फूर्ति एवं स्वास्थ्य वृद्धि  के लिए किया जाता रहा है।  प्राचीन काल में सैकड़ों क्रीड़ाओं की विधाएँ प्रचलन में थी, जिनका उल्लेख हमारे शास्त्रों एवं पुराणों में भी मिलता है।  हम यदि क्रीड़ाओं के प्रकारों पर विचार करें तो कुछ क्रीड़ाएँ मनोरंजन और हंसी मजाक के लिए खेली जाती थी, कुछ क्रीड़ाएँ आयोजकों और दर्शकों के आनंद के लिए खेली जाती थी, कुछ क्रीड़ाएँ मुख्य रूप से धर्मोत्सव आदि के समय ही खेली जाती हैं तथा कुछ मिश्रित क्रीड़ाएँ होती हैं। प्राचीन काल में गुरुकुलों एवं आमजनों के मध्य जो क्रीड़ाएँ  होती थी, उनमें से कुछ क्रीड़ाएँ उनके प्राचीन नाम  के साथ ही यहाँ उल्लेखित की ज...

भक्त के माध्यम से भक्तों का गर्व दमन

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द्वापर युग में भगवान श्री नारायण ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया था, वहीं त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था।  श्री राम और श्री कृष्ण दोनों अलग अलग युग में अवतरित होकर भी थे तो एक ही।  प्रभु श्री राम के परम भक्त हनुमान जी का स्मरण तो प्रभु के साथ ही किया जाता है। भगवान अपने प्रिय भक्तों को अभिमान से ग्रस्त नहीं रहने देना चाहते है, और जितना जल्दी हो अभिमान से उसे मुक्त करा देते हैं।   

माताश्री अहिल्या बाई होल्कर

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महारानी अहिल्या बाई होल्कर इन्दौर के राजाधिराज खण्डेराव होल्कर की  राजरानी और मल्हारराव होल्कर की पुत्रवधु थी।  सत्रहवीं सदी के आखिर में मराठों के हिन्दू राष्ट्र के संकल्प को जब पूरा करने के लिए सर्वप्रथम छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस कार्य का प्रारम्भ किया,  बाद में बाजीराव पेशवा ने उस कार्य को आगे बढ़ाया।  बाजीराव पेशवा के स्वामिभक्त सहायकों में दामाजी गायकवाड़, राणोजी सिंधिया सहित मल्हारराव होल्कर प्रमुख थे। ये मराठा साम्रज्य विस्तार के  कार्य में लगे हुवे थे।  एक बार मल्हारराव होल्कर विद्रोहियों का दमन करने के लिए पुणे जा रहे थे।  उस समय रास्ते में एक शिव मंदिर में उन्होंने अपना  डेरा डाला था, वहीं पर आनंदराव (मनकोजी) सिंधिया की होनहार कन्या अहिल्या को उन्होंने पहली बार देखा और बलिका अहिल्या से काफी प्रभावित हुए होकर उसे अपने साथ ही इन्दौर ले आये तथा अपने पुत्र खण्डेराव होल्कर के साथ उसका विवाह कर दिया।  

अतिथि सेवा में बलिदान

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मेवाड़ के गौरव राजपुताना कुल भूषण वीर योद्धा महाराणा प्रताप के उस समय का यह प्रसंग है,  जब कि वे  वन वन भटक रहे थे।  बात उस समय की है जब  महाराणा प्रताप साथ महारानी, अबोध बालक और  पुत्री थी।अकबर जैसे शत्रु की सेना उनके पीछे पड़ी हुई थी।  महाराणा को कभी किसी गुफा में, कभी वन में, कभी किसी नाले में छिपकर रात बितानी पड़ती थी।  वन के कंद फल हमेशा नहीं मिल पाते थे।  घांस के बीजों की रोटी भी कई कई दिनों तक नहीं मिल पाती थी।  बच्चे सूख कर कंकाल से हो गए थे।  

महायोद्धा पृथ्वीराज चौहान

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पृथ्वीराज चौहान का जन्म वर्ष 1149  में अजमेर के राजा सोमेश्वर जी चौहान के पुत्र के रूप में हुआ था, पृथ्वीराज चौहान की माता का नाम कमलादेवी था।  पृथ्वीराज चौहान जन्म से ही अत्यंत ही प्रतिभाशाली बालक थे, जो सैन्य कौशल में तो निपुण थे, साथ ही कई विधाओं में भी वे निपुण थे।  अयोध्या नरेश राजा दशरथ के ही समान उन्हें भी शब्द भेदी बाण चलाने में महारथ प्राप्त थी, जिसमें कि आवाज के आधार पर निशाना लगाया जाता है ।   पृथ्वीराज चौहान पशु पक्षियों के साथ बातें करने की कला भी जानते थे। 

मानवता

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मानवता शब्द भले ही छोटा सा हो किन्तु इसका तात्पर्य काफी गहराई लिए हुऐ है। जैसा कि हमारे सनातन धर्म में कहा गया है कि मानव जीवन बड़ा ही दुर्लभ होता है, और मानव जीवन यदि सुधर गया तो ईश्वरीय शक्ति प्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति और नहीं सुधरा तो अधोगति।  मानव जीवन में व्यक्ति मात्र आहार, निंद्रा, आमोद प्रमोद तक ही सीमित न रहे और उससे हटकर यदि कार्य करे तो सही मायने में जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकता है, और इसके लिए उसे मानवता का आश्रय लेना अत्यंत ही आवश्यक है। आजकल कई लोग सिर्फ दया भाव को ही मानवता मानते हैं तथा पाश्चात्य संस्कृति से आकर्षित होकर सनातनी और शास्त्रोक्त आचार विचार की प्रवृति को मानवता के विरुद्ध मानते हैं। जबकि सनातन धर्म अनुसार सदाचार, परोपकार, दया, अहिंसा, सेवा,  त्याग,  भक्ति आदि मानवोचित सद्गुणों पर आधारित कार्य एवं व्यवहार ही मानवता माने गए हैं।

प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली

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प्राचीन काल में भारतीय वैदिक विधान के अनुसार बालक का प्रथम विद्यालय माता का गर्भ ही माना जाता था। इसीलिए जिस समय स्त्री गर्भवती होती थी, तब हमारे बुजुर्ग लोग कहा करते थे कि उस समय प्रसूता को धार्मिक कथाएँ पढ़ना सुनना, अच्छी बातें, अच्छा आचरण और व्यवहार वाले वातावरण में रहने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए और उस समय जितना अधिक हो सके उसे खुश रहने को कहा जाता था। यह भी कहा जाता है कि प्रसूता को जैसा वातावरण मिलता है, आने वाली संतान पर भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है।  इसी प्रकार से प्रसूता को यह भी समझाईश दी जाती रही है कि उसे इस काल में क्रोध एवं किसी भी प्रकार के राग द्वेष से भी दूर रहना चहिये। परमवीर योद्धा अभिमन्यु के प्रसंग से भी यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि जिस समय अभिमन्यु माता उत्तरा के गर्भ में था, उस समय पिता अर्जुन द्वारा बातों ही बातों में चक्रव्यूह के भेदन की चर्चा करने मात्र से उसे चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान हो गया था, किन्तु माता उत्तरा को अर्जुन की पूरी बात सुनने के पहले ही नींद आ जाने से चक्रव्यूह से  निकलने का ज्ञान उस...

भक्त राज नरसी मेहता

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भक्ति की जहां बात चले और भक्त राज नरसी मेहता का नाम नहीं लिया जाय, ऐसा संभव ही नहीं है। गुजरात के नरसी मेहता बहुत बड़े कृष्ण भक्त हुवे थे। आज भी भक्तराज नरसी मेहता का नाम समस्त भारतवर्ष में बड़े ही सम्मान और आदर के साथ लिया जाता है, साथ ही उनकी कथा आदि के माध्यम से भी उनका और उनकी भक्ति का वर्णन किया जाता है। नरसी मेहता जी का जन्म गुजरात के काठियावाड़ में जूनागढ़ शहर में एक नागर ब्राह्मण कुल में हुआ था।  नरसी जी को उनके बाल्यकाल से ही कुछ साधु संतों का सानिध्य और सत्संग का अमृतपान प्राप्त होता रहा होकर उसी सानिध्य के परिणामस्वरूप कृष्ण भक्ति की प्राप्ति उन्हें हुई। 

अमर शहीद सुखदेव

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स्वतन्त्रता संग्राम के दौर में अंग्रेजों को बैचेन कर देने वाले कई क्रांतिकारियों के किस्से आज भी बड़े गर्व से याद किये जाते हैं। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को हैरान परेशान कर रखा था।  जिसमें चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगत सिंह, राजगुरु,  सुखदेव सहित अनेकों ज्ञात अज्ञात क्रांतिकारियों का नाम आज भी उसी सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है।  इनमें से एक अमर शहीद सुखदेव थापर भी हैं, जिनका जन्म वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के लायलपुर जिले स्थित नौधरा नामक गांव में दिनांक 15 मई 1907 को हुआ था। सुखदेव थापर के पिता जाने माने  समाजसेवक रामलाल जी थापर थे तथा इनकी माताजी का नम श्रीमती रल्ली देई था।

वट सावित्री

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मद्र देश के राजा अश्वपति बड़े ही धर्मात्मा, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे।  प्रजा भी उनपर अपार स्नेह रखती थी।  राजा अश्वपति सदैव परोपकार में लगे रहते थे।  सब प्रकार का सुख होने के बाद भी राजा अश्वपति को एक महान दुःख यह था कि उनके यहाँ कोई संतान नहीं थी।  संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोरतम नियमों का पालन करते हुवे सावित्री देवी की आराधना करते हुवे अठारह वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर सावित्री देवी ने  रा जा अश्वपति को दर्शन दिया और तेजस्विनी कन्या की प्राप्ति का वरदान दिया।  राजा वरदान प्राप्त होने के बाद धर्मपूर्वक अपना राजकाज देखने लगे।  समय आने पर राजा की बड़ी महारानी ने कमलनयनी सुन्दर कन्या को जन्म दिया। सावित्री देवी के आशीर्वाद से उत्पन्न कन्या का जातकर्म संस्कार आदि संपन्न होने के बाद कन्या का नाम सावित्री रखा गया। धीरे धीरे समय व्यतीत होता गया, नन्ही बालिका सावित्री ने युवावस्था में प्रवेश किया।  सावित्री के सौंदर्य को देखकर सब यही कहते थे कि यह तो कोई देवकन्या है जो राजा के यहाँ अव...

वीरांगना महारानी पद्मावती

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इतिहास में  मेवाड़ और वहां के राजपूताना योद्धाओ का शौर्य स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहा हैं।  मेवाड़ में चित्तौड़ गढ़ पर तो सदैव ही यवन आतताइओ की नजर रही है और इस भूमि पर राजपूत योद्धाओं एवं  यवनों के मध्य कई युद्ध हुवे भी हैं, जिनमें राजपूत योद्धाओं ने यवनों के दाँत खट्टे कर दिए थे।  तेरहवी शताब्दी में चित्तौड़ गढ़ के राज सिंहासन पर राणा लक्ष्मण सिंह आसीन थे, जिनकी आयु उस समय मात्र बारह वर्ष की थी।  राज्य की देख रेख उनके काका श्री भीम सिंह (जिन्हें रतन सिंह भी कहा करते थे) करते थे।  इनके नाम को लेकर कई इतिहासकारों में मतभेद है, किन्तु अधिकांशतः रतन सिंह नाम ही मान्य है। रतन सिंह जी की पत्नी का नाम पद्मावती था, जिन्हें पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता रहा है। मेवाड़ में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में महारानी पद्मावती के समान सौंन्दर्य किसी का नहीं था, वे अपने नाम के अनुरूप ही अपूर्व सुंदरी थी।  महारानी पद्मावती सुन्दर होने के साथ ही वीरांगना और बुद्धिमती भी थी।  महारानी पद्मावती की अपूर्व सुंदरता की चर्चा सुनकर ही अल्लाउद...

संयुक्त परिवार

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संयुक्त परिवार में रहने का एक अलग ही आनंद है, परिवार में रहना सुरक्षित है।  जब तक संयुक्त परिवार रहता है, परिवार का प्रत्येक सदस्य एक अनुशासन में रहता है।  उसे कोई भी गलत कार्य करने के पूर्व कई  सोचना पड़ता है, क्योंकि उस पर सदैव पारिवारिक मर्यादाओं का अंकुश रहता है, साथ ही उसे गलत राह पर जाने से रोकने और समझाने वाले  सदस्य भी परिवार में उपस्थित रहते हैं। 

श्री गुरु नानक देव जी के चरित्र का प्रसंग

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परम श्रद्धेय श्री गुरु नानक देव जी द्वारा जिस धार्मिक पंथ से इस विश्व को अवगत करवाया था वह सिख पंथ, गुरुमत अथवा खालसा पंथ के नाम से किसी भी परिचय का मोहताज़ नहीं है।  सिख पंथ में दस गुरुजन हुवे, जो समस्त संसार के धार्मिक इतिहास में अद्वितीय तो रहे उनका नेतृत्व भी अद्वितीय रहा।  सभी गुरुजन द्वारा जहाँ मुगलों के कुशासन का मुकाबला किया वहीं मानव समाज (चाहे वह किसी भी जाति धर्म का हो) का उत्थान करने में भी काफी योगदान दिया।  उन्होंने एक ही सिख में (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) चारों  वर्णों  के चारों गुणों को एकत्र कर यह आदेश दिया कि वह निरंतर हरिनाम श्री वाहेगुरु का जप करे, आठों प्रहर दूसरों की सेवा के लिए अपने तन मन धन से तत्पर रहे और अपनी गृहस्थी के निर्वाह के लिए सत्य व्यवहार करे साथ ही तलवार देकर ऐसी शक्ति से भी परिपूर्ण किया जिससे समय पर वह अपने धर्म की तथा देश की रक्षा भी कर सके।

भगवान श्री नरसिंह जी का प्राकट्य

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हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु नामक दो असुर भाइयों के कारण समस्त जगत व्याकुल था।  हिरण्याक्ष द्वारा  पृथ्वी को रसातल में ले जाने पर भगवान विष्णु ने वाराह अवतार धारण कर उसका वध किया।  हिरण्याक्ष के वध पर हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हो अपने भाई के वध का बदला लेने एवं अपने आप को अजेय और अमर बनने की इच्छा से हिमालय पर जाकर कई वर्षों तक कठोर तप कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया।  तब ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया कि उसे किसी अस्त्र शस्त्र से, ब्रह्मा जी द्वारा रचित किसी प्राणी से, रात में, दिन में, जमीन पर, आकाश में,घर में या बाहर, बारह महीनो में से किसी महीने में भी नहीं मारा जा सकेगा ।

छत्रपति शिवाजी महाराज की गुरुभक्ति का एक प्रसंग

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छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरुदेव श्री समर्थ रामदास स्वामी जी महाराज अपने सभी शिष्यों से अधिक स्नेह छत्रपति शिवाजी  महाराज से करते थे। एकबार शिवाजी  महाराज के साथियों के मन  में यह विचार आया कि शिवाजी राज परिवार के होने के कारण गुरुदेव सर्वाधिक स्नेह उनसे करते हैं। जिसका ज्ञान होने पर गुरुदेव ने अपने शिष्यों का संदेह दूर करने के उद्देश्य से शिष्यमंडली के साथ जंगल में गए वहाँ गुरुदेव समर्थ एक गुफा में उदरशूल का बहाना करके लेट गए।