प्राचीन गुरुकुलों वाली क्रीड़ाएँ (खेलकूद)
जिस प्रकार आज खेलकूद के रूप में क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, टेनिस, बैडमिंटन आदि खेल प्रमुखता से खेले जाते हैं, वैसी ही कुछ व्यवस्थाऍ हमारे प्राचीन काल की शिक्षा पद्धति में भी शिक्षा के साथ क्रीड़ा अथवा खेलों की हमारे गुरुकुलों में रही थी। शिक्षा के साथ क्रीड़ा का साथ तो प्रारम्भ से ही रहा है, तथा शिक्षा के अनिवार्य अंग के रूप में इसे स्वीकार भी किया गया है। खेलों का अभ्यास शारीरिक स्फूर्ति एवं स्वास्थ्य वृद्धि के लिए किया जाता रहा है। प्राचीन काल में सैकड़ों क्रीड़ाओं की विधाएँ प्रचलन में थी, जिनका उल्लेख हमारे शास्त्रों एवं पुराणों में भी मिलता है। हम यदि क्रीड़ाओं के प्रकारों पर विचार करें तो कुछ क्रीड़ाएँ मनोरंजन और हंसी मजाक के लिए खेली जाती थी, कुछ क्रीड़ाएँ आयोजकों और दर्शकों के आनंद के लिए खेली जाती थी, कुछ क्रीड़ाएँ मुख्य रूप से धर्मोत्सव आदि के समय ही खेली जाती हैं तथा कुछ मिश्रित क्रीड़ाएँ होती हैं। प्राचीन काल में गुरुकुलों एवं आमजनों के मध्य जो क्रीड़ाएँ होती थी, उनमें से कुछ क्रीड़ाएँ उनके प्राचीन नाम के साथ ही यहाँ उल्लेखित की जा रही है।
(१) कृत्रिम वृषभ/सिंह कीड़ा नामक इस खेल में बालकगण आपस में बैल अथवा सिंह के चर्म सा कपड़ा ओढ़कर उसी पशु की भांति शब्द करते हुवे लड़ते थे।, (२) निलयन क्रीड़ा कहा जाने वाला खेल दो प्रकार से खेला जाता था, पहले प्रकार में अन्य बालकगण छिप जाते थे और एक बालक उन्हें ढूंढता था। दूसरे प्रकार में बच्चे तीन श्रेणी में बंट जाते थे, पहली श्रेणी में भेड़/बकरी अथवा पशुधन बनते थे, दूसरी श्रेणी में पशुपालक और तीसरी श्रेणी में पशुचोर। इसमें पशुचोर श्रेणी वाले बच्चे पशुधन ले जाकर छिपा देते थे और पशुपालक श्रेणी के बालक उन्हें ढूंढते थे। भगवान श्री कृष्ण बाल अवस्था में भी इस क्रीड़ा उल्लेख आता है। (३) बंदर की भांति पेड़ों पर चढ़कर बच्चे छिपते फिरते थे। इस खेल को मर्कटोतप्लवन क्रीड़ा के नाम से जाना जाता था। (४) इसके अलावा एक अन्य शिक्यादिमोषण क्रीड़ा नामक खेल में गेंद जैसी वस्तु जिसकी है, उससे लेकर अन्य बालकों के द्वारा एक से दूसरे के पास फेंकी जाती है और वस्तु का मालिक बीच बीच में लेने की कोशिश करता है। वस्तु उसे तभी मिलती है जब वह एक से दूसरे के पास जाने से पहले प्राप्त करने में सफल हो जाता है।
(५) अहमहमिका स्पर्श क्रीड़ा के खेल में दूर बैठे हुवे बालक या किसी स्थान वस्तु को दौड़कर कौन पहले छू सकता है, और छूकर वापस पहले कौन आता है। उसके बारे में हार जीत होती थी। (६) बालकों को एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नाचते, झूमते, उठना, बैठना आदि क्रिया करते रहने को भ्रामण क्रीड़ा कहा जाता था। (७) एक गर्तादिलंघन क्रीड़ा नामक खेल में किसकी कितनी दूर तक कूदने की शक्ति है, इसकी परीक्षा होती थी। वर्तमान में इसका स्वरूप लम्बी कूद के रूप में देखा जा सकता है। (८) खेलते हुवे बालकों के दो समूहों द्वारा एक दूसरे ओर बिल्व या गेंद को इस प्रकार फेंका जाता है कि वे गेंद रास्ते में ही आपस में टकरा जावे, इस खेल को बिल्वादिप्रक्षेपण क्रीड़ा कहा जाता था। (९) अस्पृश्यत्व क्रीड़ा में एक बालक दूसरे को छुना चाहता है और दूसरा उससे बचना।
(१०) नेत्रबंध क्रीड़ा नामक खेल तीन प्रकार से खेला जाता था प्रथम एक बालक दूसरे के पीछे जाकर उसकी आँख बंद कर देता है, जिसे बंद आँख से ही पहचानना होता है , दूसरा नेत्र बंद करने पर छिपे बालकों को खोजना और तीसरा नेत्र पर कपडा बांध कर अन्य बच्चों को पकड़ना होता है। यह खेल हमने भी बचपन में खेला है। (११) एक बच्चा राजा और अन्य मंत्री आदि बन कर राज दरबार लगाकर खेलते हैं, इसे नृप क्रीड़ा कहा जाता था। (१२) दैव दैत्य क्रीड़ा में बालकों का एक समूह देवता बनता था दूसरा समूह दैत्य और एकदूसरे पर धूल आदि उड़ाकर खेलते थे। शिवाजी महाराज बचपन में यही खेल खेलकर यवनों को हराते थे। (१३) पेड़ों पर से जल में कूदकर एक दूसरे पर जल उड़ाते हुवे जल क्रीड़ा की जाती थी। (१४) जंगल में जाकर खेलना और फिर वहीं भोजन बना कर खाने को वन भोजन क्रीड़ा कहा जाता था, बाल कृष्ण गोपकुमारों के साथ वन भोजन किया करते थे। इसे हम पिकनिक के रूप में जानते हैं। (१५) समूह में नृत्य करने को रास क्रीड़ा कहते है, आज गरबा भी ऐसी श्रेणी का है।
(१६) चतुरंग क्रीड़ा आज के शतरंज, लूडो या चौपड़ के समान होती थी। (१७) कठपुतली अथवा गुडियो के खेल को शालभञ्जिका कहा जाता था। (१८) पेड़ पौधों का विवाह लेतोद्वाह क्रीड़ा कहलाता था, जैसा की हम देवोत्थानी एकादशी को तुलसी विवाह करते है। (१९) वीटा क्रीड़ा गुल्ली डंडे को तथा पिचकारी के खेल को कनकशृंगकोण क्रीड़ा के नाम से जाना जाता था। (२०) हमारे यहाँ कई जगहों पर आज भी नाव की रेस होती है, इसे नौ क्रीड़ा कहते थे। (२१) आज हम जिसे एक्टिंग कहते है वह उस समय नाट्य क्रीड़ा कही जाती थी, उसी प्रकार आज की पेंटिंग तब चित्र क्रीड़ा कहलाती थी। (२२) नट का खेल या आज सर्कस का रस्सी पर चलना, बैलेंस बनाना घट क्रीड़ा कहलाती थी। इसके आलावा भी अन्य कई खेल भी खेला करते थे जैसे हाथी और घोड़ों पर बैठकर गेंद खेलना, गीत, काव्य और मुद्रा से एक दूसरे से बात को कहना या समझाना।
इनमें से कुछ खेल तो आज लुप्त हो गए है, कुछ यथावत हैं और कुछ समय काल परिस्थिति के साथ बदले हुवे स्वरुप में हमें आज भी देखने को मिल रहे हैं। आज कई नए खेल आ गए है, हमारे बच्चे मोबाईल कम्प्यूटर पर खेल रहे हैं, जिससे वे खेल तो खेल रहे है अपना मनोरंजन भी कर रहे हैं, किन्तु शारीरिक गतिविधि तो कुछ हो ही नहीं रही है। जबकि खेलों का मुख्य उद्देश्य ही शारीरिक गतिविधि में अपनेआप को सक्रीय रखते हुवे स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना रहा था और है भी। ऐसी स्थिति में क्या हम आज फिर इन खेलों की ओर अग्रसर हो सकेंगे, क्या हम अपने बच्चों को कमरे में से मोबाईल कम्प्यूटर के सामने से हटा कर खेल के मैदान तक ले जा सकेंगे, यह सोचने वाली बात है।
(१०) नेत्रबंध क्रीड़ा नामक खेल तीन प्रकार से खेला जाता था प्रथम एक बालक दूसरे के पीछे जाकर उसकी आँख बंद कर देता है, जिसे बंद आँख से ही पहचानना होता है , दूसरा नेत्र बंद करने पर छिपे बालकों को खोजना और तीसरा नेत्र पर कपडा बांध कर अन्य बच्चों को पकड़ना होता है। यह खेल हमने भी बचपन में खेला है। (११) एक बच्चा राजा और अन्य मंत्री आदि बन कर राज दरबार लगाकर खेलते हैं, इसे नृप क्रीड़ा कहा जाता था। (१२) दैव दैत्य क्रीड़ा में बालकों का एक समूह देवता बनता था दूसरा समूह दैत्य और एकदूसरे पर धूल आदि उड़ाकर खेलते थे। शिवाजी महाराज बचपन में यही खेल खेलकर यवनों को हराते थे। (१३) पेड़ों पर से जल में कूदकर एक दूसरे पर जल उड़ाते हुवे जल क्रीड़ा की जाती थी। (१४) जंगल में जाकर खेलना और फिर वहीं भोजन बना कर खाने को वन भोजन क्रीड़ा कहा जाता था, बाल कृष्ण गोपकुमारों के साथ वन भोजन किया करते थे। इसे हम पिकनिक के रूप में जानते हैं। (१५) समूह में नृत्य करने को रास क्रीड़ा कहते है, आज गरबा भी ऐसी श्रेणी का है।
(१६) चतुरंग क्रीड़ा आज के शतरंज, लूडो या चौपड़ के समान होती थी। (१७) कठपुतली अथवा गुडियो के खेल को शालभञ्जिका कहा जाता था। (१८) पेड़ पौधों का विवाह लेतोद्वाह क्रीड़ा कहलाता था, जैसा की हम देवोत्थानी एकादशी को तुलसी विवाह करते है। (१९) वीटा क्रीड़ा गुल्ली डंडे को तथा पिचकारी के खेल को कनकशृंगकोण क्रीड़ा के नाम से जाना जाता था। (२०) हमारे यहाँ कई जगहों पर आज भी नाव की रेस होती है, इसे नौ क्रीड़ा कहते थे। (२१) आज हम जिसे एक्टिंग कहते है वह उस समय नाट्य क्रीड़ा कही जाती थी, उसी प्रकार आज की पेंटिंग तब चित्र क्रीड़ा कहलाती थी। (२२) नट का खेल या आज सर्कस का रस्सी पर चलना, बैलेंस बनाना घट क्रीड़ा कहलाती थी। इसके आलावा भी अन्य कई खेल भी खेला करते थे जैसे हाथी और घोड़ों पर बैठकर गेंद खेलना, गीत, काव्य और मुद्रा से एक दूसरे से बात को कहना या समझाना।
इनमें से कुछ खेल तो आज लुप्त हो गए है, कुछ यथावत हैं और कुछ समय काल परिस्थिति के साथ बदले हुवे स्वरुप में हमें आज भी देखने को मिल रहे हैं। आज कई नए खेल आ गए है, हमारे बच्चे मोबाईल कम्प्यूटर पर खेल रहे हैं, जिससे वे खेल तो खेल रहे है अपना मनोरंजन भी कर रहे हैं, किन्तु शारीरिक गतिविधि तो कुछ हो ही नहीं रही है। जबकि खेलों का मुख्य उद्देश्य ही शारीरिक गतिविधि में अपनेआप को सक्रीय रखते हुवे स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना रहा था और है भी। ऐसी स्थिति में क्या हम आज फिर इन खेलों की ओर अग्रसर हो सकेंगे, क्या हम अपने बच्चों को कमरे में से मोबाईल कम्प्यूटर के सामने से हटा कर खेल के मैदान तक ले जा सकेंगे, यह सोचने वाली बात है।
काफी सारे खेलों के नाम आपने बताएं हैं आजकल के बच्चे तो इन खेलों को जानते भी नहीं है वाकई काफी सारे खेल लुप्त हो गए हैं खेलों का मुख्य उद्देश्य ही शारीरिक क्षमता को बढ़ाना था परंतु आज के युग में कंप्यूटर और मोबाइल ने बच्चों को आलसी बना दिया
ReplyDeleteधन्यवाद।
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