मेवाड़ की हाड़ी रानी

                          

राजस्थान के मेवाड़ राज्य के महाराणा राज सिंह जी के सलूम्बर प्रान्त के सामंत थे राव रतन सिंह चूंडावत ।  चूंडावत खानदान अपनी बहादुरी, सेवाभाव और कर्तव्य निष्ठा के लिए आज भी जाना जाता है, हाड़ी रानी इसी चूंडावत परिवार में हुई थी।  उस समय भारत देश पर मुग़ल शासन रहा होकर औरंगज़ेब का शासन था, जिसके शासनकाल में हमारे देश के कई मंदिरों को तोड़ दिया गया और लाखो लोगों का नरसंहार कर दिया गया था। मुग़ल शासक औरंगज़ेब जिसने अपने भाइयों तक का क़त्ल  कर दिया था और अपने पिता को भी कैद कर दिया था, इतना क्रूर शासक भी मेवाड़  के महाराणा राज सिंह का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। औरंगज़ेब  के शासन में कई राजपूत ठिकानों  ने उसके खिलाफ विद्रोह किया था, जिनमे मेवाड़ के महाराणा राज सिंह भी थे।  महाराणा राज सिंह मुग़ल शासक औरंगज़ेब के बहुत बड़े दुश्मन थे। 

एक बार औरंगजेब ने राजपूताना गौरव और वीरता के प्रतीक महाराणा राज सिंह को ललकारते हुवे मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। उस समय महाराणा राज सिंह जी द्वारा अपने सामंत राव रतन सिंह चूंडावत जी को एक पत्र लिख कर आदेश दिया कि मुगल सेना को मेवाड़ की सीमा पर ही परास्त कर दे।  चूंडावत जी का हाल ही में एक सप्ताह पहले ही हाड़ी रानी साथ विवाह संपन्न हुवा था और वे अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे।  महाराणा राज सिंह जी का पत्र मिलते ही उन्हें दुविधा हुई, एक तरफ पत्नी प्रेम था तो दूसरी तरफ राजपूताना शान और गौरव था। आखिर में अपने मन को कठोर करके  चूंडावत जी युद्ध के लिए तैयार हो गए किन्तु युद्ध पर जाते समय पत्नी के विरह के कारण मन काफी दुखी था।केसरिया बाना पहने युद्ध वेश में अपने पति को देख आश्चर्य मिश्रित शब्दों में रानी अपने पति  से बोली अपने पति के शौर्य और पराक्रम को देखने के लिए क्षत्राणियां ऐसे ही समय की प्रतीक्षा करती हैं।  चूंडावत जी बोले मुझे जल्दी ही जाना होगा पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो इसलिए हँसते हँसते विदा करो। हाडा सरदार के मन में भी आशंका थी कि यदि वे नहीं लौटे तो रानी का क्या होगा।  विदाई के समय हाडा सरदार का गला भर गया जो रानी से भी छुपा नहीं।  रानी को यह समझते देर नहीं लगी की उसका पति मोहग्रस्त होकर रणभूमि में जा रहा है।  उन्होंने तुरंत आरती का थाल लाकर पति को तिलक लगाकर आरती उतारी और बोली मैं विजयमाला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करुँगी।   

चूंडावत जी अपनी सेना के साथ युद्ध के लिए निकल गए किन्तु उनका ध्यान अपनी पत्नी की ओर ही लगा रहा, जब रहा नहीं गया तो आधे रास्ते से ही अपने विश्वस्त सैनिक को रानी के पास भेजा और स्मरण कराया कि वे जरूर लौटेंगे उनका इंतजार करना। रानी ने सैनिक को आश्वस्त कर लौटाया।  दूसरे दिन फिर दूसरा सन्देश वाहक वही सन्देश लेकर आया, तीसरे  दिन फिर तीसरा सन्देश वाहक रानी के नाम सरदार का एक पत्र लेकर आया जिसमे लिखा था कि प्रिये मैं यहाँ शत्रुओं से लोहा ले रहा हूँ शत्रुओं को आगे बढ़ने से रोक रखा है, यह तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है किन्तु तुम्हारी बहुत याद आ रही है पत्रवाहक के साथ अपनी कोई निशानी भेज दो जिसे देख कर मैं अपना मन हल्का कर लिया करूँगा।  हाड़ी रानी ने सोचा कि युद्ध में यदि मेरे पति मुझमे ही रमे रहे तो शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे और विजय कैसे प्राप्त करेंगे।  

यह सोच कर रानी के मन में विचार आया और वे सैनिक से बोली मैं तुम्हे अपनी अंतिम  निशानी दे रही हूँ इसे ले जाकर अपने सरदार को दे देना। उन्होंने सेवक से यह भी कहा कि चूंडावत सा से कह देना कि एक भी मुग़ल हमारी मातृभूमि पर अपना कदम नहीं रखने पाए।  सेवक के जी अन्नदाता हुकुम कहने के साथ ही हाड़ी रानी ने थाल मंगवाया और तलवार निकाल कर सेवक से कहा कि ले जाओ ये निशानी और दे देना अपने चूंडावत जी को।  सेवक ने सिर झुका कर अभिवादन किया तब तक तो हाड़ी रानी ने अपना खुद का मस्तक अपनी तलवार से काट कर थाल में रखकर थाल आगे कर दिया।  सेवक भी विस्मय से वह दृश्य को देखकर बोल उठा  ""जय भवानी, एक भी मुग़ल हमारी मातृभूमि पर अपना कदम नहीं रख पायेगा। ""  

सेवक दौड़ता हुवा हाड़ी रानी का मस्तक लेकर चूंडावत जी के पास पंहुचा और सम्पूर्ण स्थिति से उन्हें अवगत कराया। चूंडावत जी भी अपनी पत्नी रानी हाड़ी के इस बलिदान के आगे नतमस्तक हो गए और बोले रानी आपका यह बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा,  एक भी मुग़ल हमारी मातृभूमि पर अपना कदम नहीं रख पायेगा। चूंडावत जी ने अपनी पत्नी हाड़ी रानी का मस्तक को अपने गले में बांध लिया और मुगलों से युद्ध करने के लिए नरसिंह की भांति अग्रसर हुवे।  राजपूती सेना हर हर महादेव और जय भवानी का जयघोष करते हुवे मुगलो से युद्ध करने के लिए चल पड़ी।  घमासान युद्ध हुवा और शत्रु सेना के एक एक करके सिर काटने लगे।  

चूंडावत जी का यह भयानक रौद्र रूप देखकर मुग़ल सेना मैदान छोड़कर भाग गई और राजपुताना शान की विजय हुई।  तब चूंडावत  जी ने अपनी पत्नी हाड़ी रानी का मस्तक अपने हाथों में लेकर उसे देखते हुवे बोले कि रानी सा आपका बलिदान व्यर्थ नहीं गया एक भी मुग़ल हमारी मातृभूमि पर अपना कदम नहीं रख पाया है। यह कहते हुवे चूण्डावत जी बोले जब तुम ही चली गई हो तो मेरे जीवन में कोई अर्थ नहीं बचा है, यह कहते हुवे चूंडावत जी ने अपनी तलवार से अपना भी मस्तक काट दिया।  ऐसा अद्भुत बलिदान कभी देखने सुनंने में नहीं आया और न ही ऐसी महान आत्माओ के बारे में हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है। मातृभूमि के लिए ऐसा बलिदान देने वाली महान आत्माओ को शत शत नमन। 


 

 

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