गंगा दशहरा
वराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि और बुधवार के दिन हस्त नक्षत्र में गंगा नदी का स्वर्ग से पृथ्वी पर आगमन हुआ था, उस दिन दस योग अर्थात ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, बुधवार, हस्त नक्षत्र, गर करण, आनंद योग व्यतिपात कन्या का चंद्र, वृषभ का सूर्य आदि विद्यमान होने के कारण इस दिन को गंगा दशहरा भी कहा जाता है। इसी प्रकार से स्कन्द पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को संवत्सरमुखी माना गया होकर इस दिन गंगा स्नान, व्रत, दान, तर्पण आदि करने से दस पापों से मुक्ति होना उल्लेखित है। इस दिन पवित्र गंगा नदी में स्नान का विशेष महत्त्व है, यदि कोई मनुष्य वहां तक जाने में असमर्थ हो तो नजदीक किसी भी नदी, सरोवर अथवा अपने घर पर भी पवित्र गंगा जी का ध्यान करते हुवे अथवा साधारण जल में थोड़ा गंगा जल मिलाकर भी स्नान कर सकते हैं। घर में गंगाजली को सम्मुख रखकर भी पूजा आराधना की जा सकती है।
गंगा अवतरण की कथा कुछ इस प्रकार है - इक्ष्वाकु वंश में राजा सगर भगीरथ और श्रीराम के पूर्वज थे। राजा सगर काफी न्यायप्रिय और प्रजापालक राजा थे, राजा सगर की दो रानियां थीं - केशिनी और सुमति। राजा सगर के राज्य में सब प्रकार का सुख वैभव था किन्तु उनके कोई संतान नहीं थी। जब दीर्घकाल तक उनकी दोनों पत्नियों को कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई एक बार ब्रह्मा जी के पुत्र महर्षि भृगु ने राजा सागर की सेवा से प्रसन्न होकर राजा सगर को वरदान दिया कि रानी सुमति से साठ हजार पुत्र तथा रानी केशिनी से एक पुत्र प्राप्त होगा, उस समय उन्होंने यह भी भविष्यवाणी की कि रानी सुमति से उत्पन्न साठ हजार पुत्र अभिमानी होंगे तथा रानी केशिनी का पुत्र से आगे उनके वंश की वृद्धि होगी। रानी केशिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम असमंजस रखा गया। इधर रानी सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया, वह सिर्फ एक बेजान पिंड था, जिससे राजा सगर काफी निराश हो गए और उसे फेंकने लगे, उसी समय आकाशवाणी हुई - 'सावधान राजा ! इस तूंबी में 60 हजार बीज हैं, जिन्हें घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में उससे तुम्हे 60 हजार पुत्र प्राप्त होंगे। राजा सगर ने आकाशवाणी सुनी और उन्होंने इस आकाशवाणी को सुनकर इसे विधाता का विधान मान कर जैसा कहा गया था, वैसा ही सुरक्षित रख लिया, समय आने पर उन मटकों से 60 हजार पुत्र उत्पन्न हुए। समय के साथ साथ राजा के सभी पुत्र बड़े हुवे, ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बढ़ा ही दुराचारी था जिससे सारी प्रजा परेशान थी। न्यायप्रिय राजा सगर ने प्रजा की परेशानी देखते हुवे पुत्र असमंजस को नगर से बहार कर दिया था, किन्तु असमंजस का पुत्र अंशुमान अत्यंत ही सदाचारी, परोपकारी और पराक्रमी था।
राजा सगर ने विश्व विजय के उद्देश्य से अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार कर विशाल यज्ञ मंडप का निर्माण करवाया तथा एक श्यामकर्ण अश्व छोड़कर उसकी रक्षा के लिए अपने पौत्र अंशुमान को सेना के साथ उस अश्व के पीछे भेजा। यज्ञ के सफल होने की आशंका से देवराज इंद्र ने भयभीत होकर अपना वेश बदलकर छलपूर्वक उस अश्व को चुरा लिया और चुपचाप कपिल मुनि के आश्रम में उसे बांध दिया। अश्व के चोरी होने की सुचना पाते ही राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आज्ञा दी कि अश्व चुराने वाले को किसी भी हालत में पकड़कर लाओ। आज्ञा मिलते ही राजा के सभी पुत्र अश्व की खोज निकल गए, जब पृथ्वी पर कही भी अश्व नहीं मिला तो वे उसे खोजते हुवे कपिल मुनि के आश्रम तक जा पंहुचे। वहां उन्होंने ध्यानमग्न कपिल मुनि को देखा साथ ही अश्व को भी वहीं बंधा हुआ देखकर सोचा कि मुनि ने ही अश्व चुराया है। यह सोचकर उन्होंने क्रोध में भरकर कपिल मुनि को अपशब्द कहकर अपमानित किया। उनके कोलाहल से वर्षों से समाधिस्थ कपिल मुनि की समाधि भंग हुई तथा उनकी क्रोधाग्नि से सभी राजकुमार जलकर भस्म हो गए। बाद में नारद मुनि से सुचना मिलने पर राजा सगर ने चिंतित होकर अपने पौत्र अंशुमान को कहा कि मेरे कारण तुम्हारे साठ हजार काका कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में भस्म हो गए अब तुम कपिल मुनि के आश्रम जाओ और उनसे क्षमा प्रार्थना कर अश्व को ले आओ।
अंशुमान अपने काकाओ द्वारा बनाये रास्ते से कपिल मुनि के आश्रम जा पंहुचे, वहां उन्होंने मुनि से क्षमा प्रार्थना की। अंशुमान के मधुर व्यवहार से कपिल मुनि प्रसन्न हो गए और वर मांगने को कहा। इस पर अंशुमान बोले कि आप कृपा करके हमारा अश्व लौटकर मेरे काकाओं का उद्धार किस प्रकार होगा इसका उपाय बताने की कृपा करें। कपिल मुनि ने अश्व लौटते हुवे कहा पुत्र इनका उद्धार गंगाजल से तर्पण पर ही होगा। इस प्रकार अश्व आ जाने पर अश्वमेघ यज्ञ अंशुमान ने पूर्ण करवाया। यज्ञ पूर्ण हो जाने पर राजा सगर अंशुमान को राजकाज सौंपकर गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाने हेतु हिमालय पर तपस्या करने चले गए। तपस्या पूर्ण करते उसके पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया। अंशुमान को जब राजा सागर की मृत्यु की जानकारी हुई तो उन्हें दुःख हुआ, बाद में वे भी अपने पुत्र दिलीप को राजकाज सौपकर अपने दादा के अधूरे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हिमालय चले गए किन्तु उन्हें भी सफलता नहीं मिली। कालांतर में दिलीप ने भी अपने पुत्र भगीरथ को राजकाज सौपकर अपने पूर्वजों के अधूरे उद्देश्य की प्राप्ति हेतु तपस्या के लिए हिमालय चले गए किन्तु वे भी असफल रहे।
राजा दिलीप के बाद भगीरथ ने गंगा जी को लाने का निश्चय किया। उनके कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने अपने मंत्रियों को राजकाज सौपकर हिमालय जाकर तपस्या की। उनकी कठोर तपस्या से ब्रह्मा जी प्रसन्न हो प्रकट हो गए और वर मांगने को कहा। भगीरथ बोले मै आपके दर्शन से धन्य हुआ यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मेरे पूर्वज राजा सगर के पुत्रों के उद्धार के लिए गंगाजल प्रदान करें साथ ही इक्ष्वाकु वंश को बढ़ाने के लिए मुझे पुत्र प्रदान करें। ब्रह्मा जी ने कहा वत्स शीघ्र तुम्हारे यहाँ पुत्र होगा, किन्तु गंगा का जल देने में कठिनाई यह है कि स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के आने का वेग पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। ब्रह्मा जी यह भी कहा कि गंगा का वेग सहन करने की क्षमता महादेव के अतिरिक्त किसी अन्य में नहीं है, इसलिए पहले उन्हें प्रसन्न करना होगा। ऐसा कहकर ब्रह्मा जी अंतर्धान हो गए। उसके बाद भगीरथ ने मात्र वायु ग्रहण करते हुवे महादेव जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। भगीरथ की कठोर तपस्या से प्रसन्न हो शिव जी उन्हें दर्शन देकर बोले मैं तुम्हारी तपस्या से अति प्रसन्न हूँ और मैं अपने मस्तक पर गंगा को धारण कर तुम्हारी मनोकामना को पूरा करूँगा।
गंगा जी जो सुरलोक छोड़कर जाना नहीं चाहती थी वे चिंतित हो गई और अपने प्रचंड वेग से शिवजी को बहाकर पाताल ले जाने के विचार से अवतरित हुई। महादेव जी भी गंगा की इच्छा भांप चुके थे, सो उन्होंने अपनी खुली जटाओं पर गंगा के आते ही जटाओं में गंगा को बांध लिया जिससे गंगा बाहर निकलने तक में असमर्थ हो गई। शिवजी की जटाओं में बंधी गंगा को बाहर लाने के लिए भगीरथ ने पुनः महादेव जी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर महादेव जी ने हिमालय पर बिन्दुसर में गंगा को छोड़ दिया। महादेव जी की जटाओं से छूटते ही गंगा सात धाराओं में बंट गई, उसमे से एक धारा भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ी। भगीरथ जिधर जिधर जाते गंगा की धारा उधर चल पड़ती। रास्ते में जाहनू ऋषि का आश्रम था जहां ऋषि यज्ञ कर रहे थे, यज्ञ सामग्री भी गंगा के साथ बह जाने पर नाराज ऋषि ने गंगा का सम्पूर्ण जल पी लिया, भगीरथ जी को बड़ी चिंता हुई उन्होंने जाहनू ऋषि से गंगा को मुक्त करने की प्रार्थना की तब उन्होंने गंगा को अपने कानों से बहा दिया और अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार भी किया। तब से गंगा का एक नाम जाह्नवी भी पड़ा। इसके पश्चात गंगा भगीरथ के पीछे पीछे उस स्थान पर पंहुची जहां भगीरथ के पूर्वज राजा सागर के जले हुवे साठ हजार पुत्रों की राख थी, गंगा दशहरा के ही दिन गंगाजल के स्पर्श से उन सभी सगर पुत्रों का उद्धार हो गया। हर हर गंगे।
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