वट सावित्री
मद्र देश के राजा अश्वपति बड़े ही धर्मात्मा, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे। प्रजा भी उनपर अपार स्नेह रखती थी। राजा अश्वपति सदैव परोपकार में लगे रहते थे। सब प्रकार का सुख होने के बाद भी राजा अश्वपति को एक महान दुःख यह था कि उनके यहाँ कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोरतम नियमों का पालन करते हुवे सावित्री देवी की आराधना करते हुवे अठारह वर्षों तक कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर सावित्री देवी ने राजा अश्वपति को दर्शन दिया और तेजस्विनी कन्या की प्राप्ति का वरदान दिया। राजा वरदान प्राप्त होने के बाद धर्मपूर्वक अपना राजकाज देखने लगे। समय आने पर राजा की बड़ी महारानी ने कमलनयनी सुन्दर कन्या को जन्म दिया। सावित्री देवी के आशीर्वाद से उत्पन्न कन्या का जातकर्म संस्कार आदि संपन्न होने के बाद कन्या का नाम सावित्री रखा गया। धीरे धीरे समय व्यतीत होता गया, नन्ही बालिका सावित्री ने युवावस्था में प्रवेश किया। सावित्री के सौंदर्य को देखकर सब यही कहते थे कि यह तो कोई देवकन्या है जो राजा के यहाँ अवतरित हुई है।
युवा सावित्री को देख राजा अश्वपति को उसके विवाह की चिंता होने लगी। राजा एक दिन सावित्री से बोले कि बेटी अब तुम विवाह योग्य हो गई हो और स्वयं अपने योग्य वर की खोज करो। राजा ने इस प्रकार कह कर अपने मंत्रियों के साथ सावित्री को जाने के लिए यात्रा का प्रबंध करने का आदेश दिया। यात्रा के लिए तैयार स्वर्ण रथ पर आरूढ़ होकर सावित्री पिता आज्ञा से बड़े बूढ़े मंत्रियों के साथ यात्रा पर चल पड़ी। अपनी यात्रा के दौरान सावित्री कई राजर्षियों के तपोवन में गई, उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। ब्राह्मणों को दान देते हुवे नाना प्रकार के पुण्य कर्म करते कई तीर्थों के दर्शन करते हुवे भ्रमण करती रही।
एक दिन राजा अश्वपति अपनी राजसभा में विराजमान थे और उस समय नारदजी पधारे, उनसे चर्चा कर ही रहे थे कि सावित्री अपनी यात्रा संपन्न कर वापस लौटी तथा पिता को और नारदजी को प्रणाम किया। नारदजी ने सावित्री को देखकर राजा से पूछा हे राजन, ये आपकी कन्या कहां से आ रही है और विवाह योग्य हो जाने पर भी आपने अभी तक इसका विवाह क्यों नहीं किया किया। तब राजा बोले देवर्षि, मैंने सावित्री को इसी कार्य के लिए भेजा था, अब आप इसी से सुनिए कि इसने किसे अपने योग्य समझा है। नारदजी से ऐसा कहकर राजा अश्वपति ने सावित्री से कहा कि बेटी तुम यात्रा का वृतांत सुनाओ।
सावित्री बोली शाल्व देश में एक धर्मात्मा राजा ध्युमत्सेन थे, जिनकी नेत्र ज्योति चली जाने और तत्समय उनका पुत्र काफी छोटा होने के कारण शत्रुओं ने आक्रमण कर उनका राज्य छीन लिया। तब वे गोद में अपने बालक को लेकर अपनी पत्नी के साथ वन चले गए और वहीं रहकर तपस्या करने लगे उन्हीं राजा का पुत्र सत्यवान सर्वथा मेरे योग्य है, उन्ही को मैंने अपने मन से पति चुना है।
यह सुनकर नारदजी बोल उठे राजन यह तो बड़े दुःख की बात है, सावित्री को ज्ञान नहीं है उसने सत्यवान का वरण करने का विचार कर भूल कर दी है। नारदजी के कथनों से राजा भी चिंतित हुवे, उन्होंने नारदजी से पूछा कि देवर्षि सत्यवान मेरी पुत्री के योग्य क्यों नहीं है, क्या उसमें कोई गुण नहीं है। तब नारदजी बोले राजन। राजा ध्युमत्सेन का वह वीर पुत्र सत्यवान सूर्य के समान तेजस्वी, बुद्धिमान, वीर, क्षमाशील, दानी, ब्राह्मणभक्त, उदार, नयनाभिराम और रूपवान तो है ही साथ ही वह जितेन्द्रिय, विनयी, पराक्रमी, मिलनसार और सत्यवादी भी है। इतना सुनते ही राजा बोले देवर्षि जब आपने सत्यवान के इतने गुण बताये तो यह भी बताये कि उसमे दोष क्या है। तब नारदजी बोले राजन एक ही दोष के कारण सत्यवान के समस्त गुणों पर ग्रहण लग गया है और वह दोष भी साधारण नहीं है। आज से ठीक एक वर्ष बाद उसकी आयु समाप्त हो जाएगी और उसे देह त्याग करना होगी। ऐसा कहकर उन्होंने सावित्री को समझाने का प्रयास किया कि बेटी, अपने निर्णय पर पुनः विचार करो। इसपर सावित्री बोली पिताजी कुछ बातें एक बार ही हुवा करती है। सत्यवान दीर्घायु हो या अल्पायु मैंने एक बार उन्हे अपना पति स्वीकार कर लिया है, अब दूसरे पुरुष का वरण नहीं कर सकती। सावित्री के कथन सुनकर नारदजी भी प्रभावित हुवे और राजा से बोले कि राजन, सावित्री द्वारा अपनी बुद्धि तथा धर्म का आश्रय लेकर जो निर्णय किया है, उसे स्वीकार कर उसका विवाह कर दें। ऐसा कहकर सबको कल्याणकारी आशीर्वाद देकर नारदजी चले गए।
राजा अश्वपति ने सावित्री के विवाह के लिए आवश्यक तैयारी कर शुभ मुहूर्त में राजा ध्युमत्सेन के आश्रम पर पंहुचे और उनसे निवेदन किया कि राजर्षि, मेरी कन्या सावित्री को आप अपनी पुत्रवधु के रूप में स्वीकार करें।इसके पश्चात् सावित्री और सत्यवान का विधिविधान से विवाह संस्कार समपन्न हुआ । राजा अश्वपति कन्यादान के साथ ही यथायोग्य वस्त्राभूषण आदि देकर प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर को चले। सत्यवान को सर्वगुण संपन्न सुन्दर पत्नी प्राप्त हुइ तथा सावित्री को मनोवांछित पति प्राप्त हुआ। पिता के चले जाने पर सावित्री ने अपने आभूषण उतार कर तपोवनी वेशभूषा धारण कर अपने सेवा भाव, विनय और संयम कार्य कर सभी की प्रिय हो गई।
इस प्रकार उस आश्रम में रहकर तपस्या करते हुवे उनका दाम्पत्य जीवन व्यतीत हो रहा था। सावित्री को नारदजी की बात का स्मरण था, जिससे वह चिंतित रहती थी। समय का चक्र चलते चलते वह समय भी नजदीक आ गया जबकि सत्यवान की मृत्यु निश्चित थी। जब सावित्री ने देखा कि चौथे दिन सत्यवान की मृत्यु होना निश्चित है, तब सावित्री तीन दिनों निराहार व्रत धारण स्थिर बैठी रही। जब एक दिन शेष रहा तब रात्रि को सावित्री को बहुत दुःख हुवा, सारी रात आँखों में ही कैसे निकल गई मालूम ही नहीं पड़ा। प्रातःकाल सावित्री ने जल्दी अपने नित्यकर्मों से निवृत्त होकर अग्निहोत्र कर आश्रम के सभी ब्राह्मणों, वृद्धजनों, सास ससुर को प्रणाम किया। सभी ने सावित्री को सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया। सावित्री ने भी ईश्वर को साक्षी मान उस आशीर्वाद के सफल होने की सदइच्छा से आशीर्वाद ग्रहण किया।
इसके बाद जैसे जैसे नारदजी के कथनानुसार वह समय नजदीक आने लगा सावित्री व्याकुल होने लगी। उसी समय सत्यवान कंधे पर कुल्हाड़ी लेकर यज्ञ की समिधा लाने के लिए तैयार हुआ, तब सावित्री बोली कि आज आप अकेले न जावें, मैं भी आपके साथ चलूंगी। सत्यवान ने काफी समझाया कि वन का रास्ता कठिन है, तीन दिन से व्रत करने से दुर्बलता के कारण चलने में भी परेशानी होगी किन्तु सावित्री नहीं मानी। सावित्री के इस प्रकार हठ करने के कारण सत्यवान को भी सावित्री को साथ ले जाने की सहमति देना पड़ी। तब सावित्री अपने सास ससुर के चरण स्पर्श उनसे पति के साथ जाने की आज्ञा प्राप्त कर अपने पति के साथ वन की ओर चल पड़ी। सावित्री के मुख पर हंसी किन्तु ह्रदय में दुःख था। दोनों पति पत्नी पहले फलों को टोकरी में इक्क्ठा किया, फिर सत्यवान समिधा के लिए लकड़ियां काटने लगा। लकड़ियां काटते काटते परिश्रम के कारण सत्यवान को पसीना आने लगा और सिर में असहनीय पीड़ा होने पर वह लकड़ी काटना छोड़कर वट वृक्ष की छाया में बैठी अपनी पत्नी के पास जाकर बोला कि आज सिर काफी पीड़ा हो रही है, सारा शरीर पीड़ा से टूट रहा है, ह्रदय में भी काफी पीड़ा है, खड़े रहने की शक्ति नहीं है, प्रिये मै सोना चाहता हूँ। सावित्री ने पति के पास जाकर उसे संभाला और सत्यवान का मस्तक अपनी गोद में रखकर वहीं वट वृक्ष की छाया में बैठ गई।
नारदजी के बताये अनुसार नियत समय आ गया था, इतने में ही सावित्री को लाल वस्त्रधारी एक सांवला पुरुष दिखाई दिया, जो सूर्य के समान तेजस्वी था, नेत्र लाल थे, हाथ में पाश लिए हुवे भयंकर स्वरुप में सत्यवान के पास खड़ा उसी की ओर देख रहा था। उन्हें देखकर सावित्री ने सत्यवान का मस्तक भूमि पर रख, उठकर उन्हें प्रणाम किया और बोली आप कोई साधारण मनुष्य नहीं है, कोई देवता है, कृपया अपना परिचय देवें। वह पुरुष और कोई नहीं स्वयं यमराज थे। वे सावित्री से बोले सावित्री तू पतिव्रता और तपस्विनी है, मै यमराज हूँ और तेरे पति की आयु समाप्त हो गई है, इसलिए मैं उसे लेने आया हूँ।
सावित्री बोली भगवन मैंने तो सुना था कि जीवों को लेने आपके दूत आते है, आप स्वयं कैसे पधारे। इसपर यमराज बोले हे सावित्री, सत्यवान परम धर्मात्मा है और वह दूतों के द्वारा ले जाने योग्य नहीं होने से मैं स्वयं उसे लेने आया हूँ। इतना कहकर यमराज ने सत्यवान के शरीर से जीवात्मा को अपने पाश में बांध कर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। यह देखकर सावित्री दुःखी होकर यमराज के पीछे पीछे चल दी। तब यमराज बोले सावित्री तू कहाँ जा रही है, वापस लौट जा और अपने पति के शरीर का दाह संस्कार कर। पति की सेवा के ऋण से तू मुक्त हो चुकी है और पति के साथ जहाँ तक आना चाहिए वहाँ तक आ चुकी। इस पर सावित्री बोली भगवन नारी के लिए पति का अनुसरण ही परम धर्म है और जहाँ मेरे पति जाये वहाँ मुझे भी जाना चाहिए। सावित्री के वचनों से यमराज प्रसन्न होकर बोले सावित्री, सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त कोई भी वर मुझसे मांग ले। सावित्री बोली भगवन मेरे ससुर की नष्ट हो गई नेत्र ज्योति उन्हें वापस प्राप्त हो जाय, साथ ही वे बलवान और तेजस्वी हो जाय। यमराज बोले ऐसा ही होगा।
इस प्रकार वरदान देकर यमराज ने सावित्री को लौट जाने का कहकर आगे बढ़े किन्तु सावित्री साथ ही चल रही थी, वह बोली भगवन जहाँ मेरे पति रहेंगे मुझे भी वहीं आश्रय मिलना चाहिए, इसलिए मै अपने पति के साथ ही चलूंगी और दूसरा कारण मुझे आपका सत्संग प्राप्त हो रहा है, संत समागम कभी निष्फल नहीं होता। यमराज बोले सावित्री मै तुम्हारी इस बात से प्रसन्न हूँ तुम सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त दूसरा एक वर और मांग लो। सावित्री बोली धर्म के साथ रहने वाले मेरे ससुर को उनका खोया हुआ राज्य स्वतः प्राप्त हो जाय। यमराज ने यह वरदान भी सावित्री को देकर वापस लौट जाने का कहा। किन्तु सावित्री पूर्ववत साथ चलते हुवे बोली भगवन मैंने सुना है कि मन, कर्म और वचन से किसी भी प्राणी के साथ गलत न करके सब पर समान रूप से दयाभाव कर दान देना, सत्कार्य करना श्रेष्ठ पुरुषों का कार्य है और वैसे तो सभी लोग यथाशक्ति विनम्र व्यवहार करते है, किन्तु श्रेष्ठ पुरुष अपने पास आये शत्रु पर भी दया ही करते हैं। सावित्री के इस प्रकार धर्मानुकूल वचनों से यमराज ने फिर प्रसन्न होकर कहा कि सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त तीसरा वर मांग लो। सावित्री बोली भगवन मेरे पिता राजा अश्वपति के कोई पुत्र नहीं है उन्हें सौ पुत्र प्रदान करें। यमराज सावित्री को वरदान देकर वापस लौटने का कहकर आगे बढ़े।
सावित्री पूर्ववत यमराज के पीछे पीछे चलते हुवे बोली मैं तो अपने पति के पास हूँ और पति से दूर रहना भी नारी के लिए दुःख की बात होती है। आप शत्रु मित्र का भेद नहीं रखते हैं और सभी के साथ समान न्याय करते हैं इसलिए आप धर्मराज भी कहलाते है, अच्छे मनुष्यों अपने आप से अधिक संतों एवं सत्पुरुषों पर विश्वास करते है। सावित्री की बातों से यमराज ने प्रसन्न होकर कहा कि सावित्री मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ और सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त चौथा वर मांग लो। सावित्री बोली भगवन मुझे भी कुल की वृद्धि करने वाले सौ पुत्र प्राप्त हों और वे सभी बलशाली और पराक्रमी हों। यमराज बोले तेरी यह अभिलाषा भी पूर्ण होगी, अब तू बहुत दूर चली आई है, वापस लौट जा।
सावित्री यमराज के बार बार वापस लौटने कहने के बाद भी उनसे चर्चा करते हुवे साथ चलते बोली प्रभु सत्पुरुष सदैव धर्मानुसार आचरण करते हैं और सत्पुरुषों का सानिध्य कभी व्यर्थ नहीं जाता, उनसे किसी को भय भी नहीं होता तथा सत्पुरुषों के लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता है। भूत और भविष्य के आधार भी वे ही होते हैं। परोपकर सदाचार है, ऐसा मानकर सत्पुरुष प्रति उपकार की आशा रखे बगैर ही निरंतर परोपकार ही किया करते है। सावित्री की बातों को सुनकर यमराज भी द्रवित हो गए और बोले पुत्री तुम्हारी धर्मानुकूल बातों से मैं अति प्रसन्न हूँ, अतः तू कोई अनुपम वर मांग ले। तब सावित्री बोली अब तो आप मेरे पति सत्यवान के जीवन का ही वरदान दीजिये, इससे ही आपके सत्य और धर्म की रक्षा होगी। आप मुझे सौ पुत्रों का आशीर्वाद दे चुके हैं जो कि मेरे पति के बगैर संभव ही नहीं है पति के बगैर तो मैं किसी भी प्रकार के सुख की और जीवन की इच्छा ही नहीं रखती हूँ। यमराज भी वचनकद्ध हो चुके थे। उन्होंने सत्यवान को मृत्युपाश से मुक्त कर सत्यवान को नवीन आयु भी प्रदान की। इस प्रकार सती सावित्री ने अपने पतिव्रत के प्रताप से अपने पति को मृत्यु के मुख से तो लौटाया ही साथ साथ उनकी बुद्धिमानी और चतुराई से पतिकुल और पितृकुल दोनों का ही उद्धार भी हो गया।
ज्येष्ठ मास में आने वाली अमावस्या और पूर्णिमा को आज भी हमारे देश की माता बहनें सती सावित्री की प्रेरणा स्वरुप अपने पति की सुरक्षा एवं अपने घर परिवार और परिजनों की खुशहाली और सम्पन्नता के उद्देश्य से वट सावित्री का पूजन अर्चन करती है। सती सावित्री के चरणों में सादर प्रणाम।
पर्व उत्सव एवं त्यौहार
नारदजी के बताये अनुसार नियत समय आ गया था, इतने में ही सावित्री को लाल वस्त्रधारी एक सांवला पुरुष दिखाई दिया, जो सूर्य के समान तेजस्वी था, नेत्र लाल थे, हाथ में पाश लिए हुवे भयंकर स्वरुप में सत्यवान के पास खड़ा उसी की ओर देख रहा था। उन्हें देखकर सावित्री ने सत्यवान का मस्तक भूमि पर रख, उठकर उन्हें प्रणाम किया और बोली आप कोई साधारण मनुष्य नहीं है, कोई देवता है, कृपया अपना परिचय देवें। वह पुरुष और कोई नहीं स्वयं यमराज थे। वे सावित्री से बोले सावित्री तू पतिव्रता और तपस्विनी है, मै यमराज हूँ और तेरे पति की आयु समाप्त हो गई है, इसलिए मैं उसे लेने आया हूँ।
सावित्री बोली भगवन मैंने तो सुना था कि जीवों को लेने आपके दूत आते है, आप स्वयं कैसे पधारे। इसपर यमराज बोले हे सावित्री, सत्यवान परम धर्मात्मा है और वह दूतों के द्वारा ले जाने योग्य नहीं होने से मैं स्वयं उसे लेने आया हूँ। इतना कहकर यमराज ने सत्यवान के शरीर से जीवात्मा को अपने पाश में बांध कर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। यह देखकर सावित्री दुःखी होकर यमराज के पीछे पीछे चल दी। तब यमराज बोले सावित्री तू कहाँ जा रही है, वापस लौट जा और अपने पति के शरीर का दाह संस्कार कर। पति की सेवा के ऋण से तू मुक्त हो चुकी है और पति के साथ जहाँ तक आना चाहिए वहाँ तक आ चुकी। इस पर सावित्री बोली भगवन नारी के लिए पति का अनुसरण ही परम धर्म है और जहाँ मेरे पति जाये वहाँ मुझे भी जाना चाहिए। सावित्री के वचनों से यमराज प्रसन्न होकर बोले सावित्री, सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त कोई भी वर मुझसे मांग ले। सावित्री बोली भगवन मेरे ससुर की नष्ट हो गई नेत्र ज्योति उन्हें वापस प्राप्त हो जाय, साथ ही वे बलवान और तेजस्वी हो जाय। यमराज बोले ऐसा ही होगा।
इस प्रकार वरदान देकर यमराज ने सावित्री को लौट जाने का कहकर आगे बढ़े किन्तु सावित्री साथ ही चल रही थी, वह बोली भगवन जहाँ मेरे पति रहेंगे मुझे भी वहीं आश्रय मिलना चाहिए, इसलिए मै अपने पति के साथ ही चलूंगी और दूसरा कारण मुझे आपका सत्संग प्राप्त हो रहा है, संत समागम कभी निष्फल नहीं होता। यमराज बोले सावित्री मै तुम्हारी इस बात से प्रसन्न हूँ तुम सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त दूसरा एक वर और मांग लो। सावित्री बोली धर्म के साथ रहने वाले मेरे ससुर को उनका खोया हुआ राज्य स्वतः प्राप्त हो जाय। यमराज ने यह वरदान भी सावित्री को देकर वापस लौट जाने का कहा। किन्तु सावित्री पूर्ववत साथ चलते हुवे बोली भगवन मैंने सुना है कि मन, कर्म और वचन से किसी भी प्राणी के साथ गलत न करके सब पर समान रूप से दयाभाव कर दान देना, सत्कार्य करना श्रेष्ठ पुरुषों का कार्य है और वैसे तो सभी लोग यथाशक्ति विनम्र व्यवहार करते है, किन्तु श्रेष्ठ पुरुष अपने पास आये शत्रु पर भी दया ही करते हैं। सावित्री के इस प्रकार धर्मानुकूल वचनों से यमराज ने फिर प्रसन्न होकर कहा कि सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त तीसरा वर मांग लो। सावित्री बोली भगवन मेरे पिता राजा अश्वपति के कोई पुत्र नहीं है उन्हें सौ पुत्र प्रदान करें। यमराज सावित्री को वरदान देकर वापस लौटने का कहकर आगे बढ़े।
सावित्री पूर्ववत यमराज के पीछे पीछे चलते हुवे बोली मैं तो अपने पति के पास हूँ और पति से दूर रहना भी नारी के लिए दुःख की बात होती है। आप शत्रु मित्र का भेद नहीं रखते हैं और सभी के साथ समान न्याय करते हैं इसलिए आप धर्मराज भी कहलाते है, अच्छे मनुष्यों अपने आप से अधिक संतों एवं सत्पुरुषों पर विश्वास करते है। सावित्री की बातों से यमराज ने प्रसन्न होकर कहा कि सावित्री मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ और सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त चौथा वर मांग लो। सावित्री बोली भगवन मुझे भी कुल की वृद्धि करने वाले सौ पुत्र प्राप्त हों और वे सभी बलशाली और पराक्रमी हों। यमराज बोले तेरी यह अभिलाषा भी पूर्ण होगी, अब तू बहुत दूर चली आई है, वापस लौट जा।
सावित्री यमराज के बार बार वापस लौटने कहने के बाद भी उनसे चर्चा करते हुवे साथ चलते बोली प्रभु सत्पुरुष सदैव धर्मानुसार आचरण करते हैं और सत्पुरुषों का सानिध्य कभी व्यर्थ नहीं जाता, उनसे किसी को भय भी नहीं होता तथा सत्पुरुषों के लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता है। भूत और भविष्य के आधार भी वे ही होते हैं। परोपकर सदाचार है, ऐसा मानकर सत्पुरुष प्रति उपकार की आशा रखे बगैर ही निरंतर परोपकार ही किया करते है। सावित्री की बातों को सुनकर यमराज भी द्रवित हो गए और बोले पुत्री तुम्हारी धर्मानुकूल बातों से मैं अति प्रसन्न हूँ, अतः तू कोई अनुपम वर मांग ले। तब सावित्री बोली अब तो आप मेरे पति सत्यवान के जीवन का ही वरदान दीजिये, इससे ही आपके सत्य और धर्म की रक्षा होगी। आप मुझे सौ पुत्रों का आशीर्वाद दे चुके हैं जो कि मेरे पति के बगैर संभव ही नहीं है पति के बगैर तो मैं किसी भी प्रकार के सुख की और जीवन की इच्छा ही नहीं रखती हूँ। यमराज भी वचनकद्ध हो चुके थे। उन्होंने सत्यवान को मृत्युपाश से मुक्त कर सत्यवान को नवीन आयु भी प्रदान की। इस प्रकार सती सावित्री ने अपने पतिव्रत के प्रताप से अपने पति को मृत्यु के मुख से तो लौटाया ही साथ साथ उनकी बुद्धिमानी और चतुराई से पतिकुल और पितृकुल दोनों का ही उद्धार भी हो गया।
ज्येष्ठ मास में आने वाली अमावस्या और पूर्णिमा को आज भी हमारे देश की माता बहनें सती सावित्री की प्रेरणा स्वरुप अपने पति की सुरक्षा एवं अपने घर परिवार और परिजनों की खुशहाली और सम्पन्नता के उद्देश्य से वट सावित्री का पूजन अर्चन करती है। सती सावित्री के चरणों में सादर प्रणाम।
पर्व उत्सव एवं त्यौहार
विस्मृत संस्कृति से परिचय सराहनीय प्रयास निरंतरता बनी रहे। वट सावित्री जानकारी पढ़ कर मज़ा आया।
ReplyDeleteये सब हिन्दू धर्म की नींव है। निशा जोशी।
आपकी सराहना ही हमारा उत्साहवर्द्धन का मुख्य स्त्रोत है और आपका निरंतर पठन हमारे उद्देश्य की पूर्ति है। जय श्री कृष्ण।
Deleteकाफी रोचक जानकारी है यह लगातार प्रयास करते रहिए एवं हमारी संस्कृति को एवं इस तरह की जानकारियों को सभी तक पहुंचाते रहिए
ReplyDeleteभारतीय संस्कृति के प्रति जागरूकता,उत्सुकता से यदि निरन्तर पठन होता रहा तो अवश्य ही हमारा संकल्प पूर्ण होगा। जय श्री कृष्ण।
Deleteआजकल की पीढ़ी नहीं जानती हैं यह सब आपका यह संदेश सभी के पास पहुंचे और हमारी संस्कृति को उसकी पहचान मिले यह सब बुजुर्गों से सुना था परंतु आप निरंतर प्रयास करते रहे एवं और भी जानकारियां समय-समय पर देते रहे
ReplyDeleteधन्यवाद। जय श्री कृष्ण।
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