संत श्री पीपाजी महाराज

राजस्थान  के झालावाड़ जिले के गागरोन गढ़ का सैन्य दृष्टि से काफी महत्त्व रहा था।  शत्रुओं के मंसूबो को विफल करने वाले भारतीय दुर्गों में यह दुर्ग सदैव अग्रणी रहा होकर कई मुग़ल बादशाह अपनी सेना के साथ अपना युद्ध कौशल यहाँ नहीं दिखा पाए थे।  इस स्थान की प्राकृतिक छटा भी काफी मनोरम और सुन्दर है। हरे भरे पेड़, झाड़ियां और लताकुंज के साथ ही जलप्रपात तथा कालीसिंध व सहायक नदियों से घिरा हुआ यह दुर्ग अत्यंत ही अनुपम प्राकृतिक छटा के कारण सहसा आकर्षित करता है।  इसी गागरोन दुर्ग में राजपरिवार में भक्त प्रवर संत पीपाजी महाराज का जन्म हुआ था।  राजकुमार प्रतापसिंह (पीपाजी) इसी स्थान पर प्रकृति की गोद में पले बढ़े।  बाल्यकाल से ही स्वभावतः धार्मिक प्रवृति वाले पीपाजी ने अपने पिताजी की मृत्यु के बाद राजगद्दी संभाली, वे युवा और सुन्दर थे।  उन्होंने कुल बारह राजकुमारियों से विवाह किया किन्तु सबसे छोटी रानी सीता पर उनका अधिक स्नेह था। राजसी विलासपूर्ण वातावरण में भी वे धर्म विमुख नहीं हुऐ उनके राज्य में धार्मिक कार्य सदैव होते रहते थे, भजन पूजन के अलावा साधु संतो और ब्राह्मणो का भोजन अनवरत चलता रहता था। पीपाजी महाराज अपनी कुल परंपरा अनुसार शक्ति के उपासक थे किन्तु एक भगवद भक्त मण्डली के कारण कालांतर में वे वैष्णव हो गए थे।  

पीपाजी महाराज गागरोन राज्य के वीर साहसी राजा थे, वे अपनी प्रजा का विशेष ध्यान रखते थे।  दिल्ली सल्तनत के सुल्तान फिरोज तुगलक के आक्रमण करने पर उसे उन्होंने बुरी तरह  परास्त किया था किन्तु युद्ध पश्चात् रक्तपात से उनका मन विरक्त हो गया था। एक बार  उनके राज्य में एक बैष्णव भक्त मण्डली का आगमन हुआ।  सेवकों से सुचना मिलने पर राजा पीपाजी अपनी रानियों से सलाह कर भक्त मण्डली के पास गए और राजमहल में पधार कर भजन, उपदेश श्रवण करने और मण्डली को भोजन कराने की इच्छा व्यक्त की। राजा के आग्रह पर मण्डली ने राजमहल में राजा का आतिथ्य स्वीकार किया।  भजन तथा उपदेश का श्रवण हुआ,  राजा और उनकी रानियों ने भक्त मण्डली की खूब सेवा की। संतो को भी बड़ा आनंद हुआ, वे स्वामी रामानंद जी के भक्त थे, उन्होंने तृप्त होकर ईश्वर से आराधना की कि राजा को और अधिक भक्ति प्रदान करें।  प्रभु ने भी अपने भक्तों की प्रार्थना स्वीकार कर राजा पीपा राव जी को  निन्द्रावस्था में स्वप्न द्वारा अपना भक्त बनने हेतु प्रेरित किया।

अति भयानक स्वप्न से राजा पीपाजी बड़े चिंतित हुवे और रानी सीता के साथ देवी मंदिर पंहुचे।  देवी के समक्ष शीश नवाते ही आवाज़ हुई कि राजा  किसी भक्त के पास जाओ, उसी की कृपा से तुम सही मार्ग पा सकोगे। राजा पीपाजी ने सुबह होते ही भक्त मण्डली के प्रमुख को बुलावा भेजा। उनके आने पर राजा बोले हे भक्त जी मुझे अपने गुरु के पास ले चलिए, मैं उनके दर्शन का अभिलाषी हूँ। संत बोले राजन आप काशी चले जाओ वहां आपको उनके दर्शन होंगे। संत वचन सुनकर राजा पीपाजी ने रानी सीता को साथ लेकर उस समय के श्रेष्ठ भक्त शिरोमणि आचार्य श्री रामानंद जी स्वामी की शरण में उनसे दीक्षा लेने की इच्छा लेकर काशी की ओर प्रस्थान किया।  इधर राजा के परिवारजन उनके साधु बन जाने की आशंका से चिंतित हो गए।  

राजा पीपाजी काशी पंहुच कर जब आचार्य श्री रामानंद जी स्वामी की शरण में उपस्थित हुवे।  स्वामी जी तो पीपाजी को कसौटी पर परखने के लिए तैयार थे, वे उनसे नहीं मिले और दूरी बना ली, जिससे राजा दुखी हो गए। आखिर में तो स्वामी जी ने राजा से कह दिया कि हम तो सन्यासी हैं हमारे यहाँ राजाओं का क्या काम ? हम राजाओं से नहीं मिलते।  राजा पीपाजी जिन्हें अब तक विवेक भी हो गया था तथा संत निवास भूमि का प्रभाव भी उन पर हो गया था।  आचार्य श्री से दीक्षा प्राप्ति के लिए संकल्पित राजा पीपाजी ने तुरंत  अपनी राजसी वेशभूषा का त्याग कर साधु वेश धारण कर आचार्य श्री की सेवा में उपस्थित हुवे।  राजा की लगन और उनका साधुवेश देखकर स्वामी जी ने उनकी प्रशंसा की, किन्तु अभी परिक्षा की घडी समाप्त नहीं हुई थी।  आचार्य श्री ने उनसे कहा कि यदि ऐसी ही दृढ़ लगन है तो जाओ सामने कुए में कूद जाओ, वहीं तुम्हें भगवान के दर्शन होंगे।  राजा जिन चरणों में नतमस्तक होने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा चुके थे, उनकी आज्ञा की अवहेलना तो वे कर ही नहीं सकते, इसलिए राजा तुरंत कुए में कूद जाने के लिए दौड़ पड़े, जिन्हें स्वामी जी के शिष्यों  रास्ते में ही रोक लिया और स्वामीजी के सम्मुख लेकर आ गए।   

इस प्रकार राजा पीपाजी की अटल निष्ठा से प्रसन्न होकर रामानन्द जी स्वामी ने उन्हें मंत्रोपदेश देकर दीक्षा दी और अपना शिष्य बना लिया।  राजा पीपाजी दीक्षा प्राप्त होने के बाद गुरु जी के सानिध्य में रहने लगे।  स्वामी जी भी उनसे काफी प्रभावित हुऐ और उन्हें गागरोन जाकर भक्तिपूर्वक संत जीवन व्यतीत करते हुवे प्रजा की  सेवा  करने का आदेश दिया। स्वामीजी की आज्ञा से पीपाजी महाराज अपने राज्य  वापस जाने को तैयार हो गए किन्तु गुरुदेव से भी गागरोन पधारने की विनती की जिसपर गुरुदेव बोले कि पीपा यदि तुम इसी प्रकार निष्ठा और साधना में दृढ़ रहोगे तो हम एक दिन अवश्य अपनी शिष्य मण्डली  के साथ तुम्हारी राजधानी में आकर दर्शन देंगे, तुम्हें अब हमारे दर्शन लिए काशी आने की आवश्यकता नहीं है। गुरुदेव से विदा लेकर पीपाजी महाराज गागरोन आ गए और ईश्वर आराधना करते हुवे भक्तिपूर्वक धर्मानुकूल अपना राजकाज करने लगे, जिसकी जानकारी स्वामीजी को मिलती रहती थी। राजा पीपाजी जब एक बार गुरूविरह में अत्यंत ही व्याकुल होकर उन्हें गागरोन पधारने के लिए पत्र भेजा।  गुरुभक्ति, निष्ठा और आग्रह को देखकर गुरुदेव अपने कबीरदास जी और रैदास जी सहित चालीस शिष्यों मण्डली के साथ कई माह की पद यात्रा करते हुवे कई गाँवो व नगरों में अपने भक्तों को दर्शन देते हुऐ गागरोन पधारे।   

जब राजा पीपाजी  महाराज को गुरुदेव के आने के समाचार मिले तो उन्होंने अति प्रसन्नता पूर्वक  स्वागत की तैयारी की तथा नित्य सत्संग भजनोपदेश में गुरुदेव के व्यक्तित्व, गुण आदि की चर्चा करने लगे, इससे जनता के ह्रदय में भी गुरुदेव के दर्शन की लालसा बढ़ने लगी।  जब स्वामी जी गागरोन से कुछ ही दूरी पर थे तब राजा पीपाजी स्वयं वहां पंहुचे, राजसी ठाट बाट और मान सम्मान पूर्वक उनका स्वागत कर उन्हें पालकी में बैठाकर पालकी को स्वयं कन्धा लगाकर शोभायात्रा के साथ नगर में लाये।  उस समय दूर दूर से हजारों श्रद्धालुजन ने गागरोन आकर स्वामी जी के दर्शन किये। स्वामी जी पीपाजी महाराज के आग्रह पर लगभग एक माह गागरोन में ही विराजे और पीपाजी के साधु स्वाभाव, श्रद्धा भक्ति से काफी प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया।

स्वामी जी ने द्वारिका जाने की  इच्छा रखते हुवे पीपाजी से विदा चाही तो गुरु वियोग न हो ऐसा सोचकर पीपाजी महाराज ने उन्हें भी साथ ले चलने की विनती की। स्वामी जी की अनुमति मिलने पर पीपाजी महाराज सांसारिक बंधनो को त्याग कर सन्यासी भेष धारण कर अपना राजपाट अपने भतीजे कल्याणराव को सौंप कर गुरुदेव के साथ जाने को तैयार हो गए।  उस समय पीपाजी महाराज की बारहों रानियों ने भी साथ चलने  इच्छा व्यक्त की, जिस पर समझाने  बुझाने पर ग्यारह रानियां तो मान गई किन्तु रानी सीता नहीं मानी। गुरुदेव की सन्यासी भेष में रहकर साथ चलने की बात भी उन भगवद भक्त और महान चरित्र वाली रानी सीता ने सहर्ष स्वीकार कर ली।  पीपाजी महाराज के जीवन चरित्र की समस्त घटनाओं साथ ईश्वरभक्त रानी सीता का भी गहरा सम्बन्ध है। 

गुरूजी और गुरु भाइयों के साथ पीपाजी महाराज भी द्वारिका पंहुचे और कुछ समय साथ साथ बिताया।  उसके बाद गुरुदेव तो अपनी शिष्य मण्डली के साथ काशी चले गए किन्तु पीपाजी महाराज और रानी सीता गुरु आज्ञा से द्वारिका में ही रुक कर नित्य दर्शन करने लगे, तभी एक दिन एक पंडित जी से बातचीत में उन्हें जानकारी हुई की भगवान ने जो द्वारिका बनाई थी, वह तो पानी में है तो पीपाजी महाराज ने भगवान के दर्शन की इच्छा से जल में छलांग लगा दी। उनके पीछे रानी सीता भी जल में कूद पड़ी और वे दोनों जल में लुप्त हो गए।  उपस्थित जनसमूह पंडित जी को भला बुरा कहने लगे।  अब पंडित जी को भी यह मालूम नहीं था कि भक्त पीपाजी इतने भोले होंगे कि जल में कूद जावेंगे।  जब भगवान ने देखा कि भक्तगण आ रहे हैं तो उन्होंने दूतों को भेजकर अपने पास बुला लिया।  अब पीपाजी महाराज और रानी सीता दोनों भगवान श्री कृष्ण और रुक्मिणी जी के सम्मुख खड़े थे, उनके दर्शन पाकर वे धन्य हो गए थे। भगवान ने उन्हें अपनी छाप देकर दूतों से कहकर बाहर छुड़वा दिया। सात दिन बाद जल से बाहर निकलने पर उपस्थित जनसमूह ने उन्हें सकुशल देखकर पूछा कि भक्त जी आप तो डूब  गए थे, पीपाजी बोले वे तो श्री कृष्ण जी के दर्शन के लिए गए थे और युगल स्वरुप के दर्शन करके आये हैं।  पीपाजी ने भगवान की छाप पुजारी जी को देकर कहा कि जिसके शरीर पर यह छाप लगाई जावेगी उसे भगवान की प्राप्ति होगी और वह आवागमन के जंजाल से मुक्त हो जावेगा। भकजनों ने पीपाजी महाराज को साष्टांग प्रणाम कर उनकी चरणरज अपने मस्तक पर लगाई। इस घटना से पीपाजी महाराज की महिमा और अधिक बढ़ गई।  उसके बाद पीपाजी महाराज गागरोन आ गये।    

गागरोन आने के बाद वे कालीसिंध और अहू नदी के पवित्र संगम पर एक गुफा में रहने लगे। इस समय तक पीपाजी महाराज की काफी महिमा हो गई थी, लोग उन्हें प्रभु का रूप मानकर पूजने लग गए थे और दूर दूर से लोग  उनके दर्शन के लिए आने लगे, जिससे उनकी भक्ति में व्यावधान उत्पन्न होने लगा, तो वे रानी सीता को लेकर जंगल की ओर निकल गए। पीपाजी महाराज का जीवन कई घटनाओं  से भरा हुआ रहा। कई घटनाएँ  तो रानी सीता के साथ रहने के कारण हुई किन्तु कोई अमंगल नहीं हुआ, उन्होंने कई बार रानी को समझाने की कोशिश की कि वे राजमहल लौट जाए ताकि  सुरक्षित रह सकें, किन्तु रानी सदैव यही बोलती थी कि रक्षा न आपको करनी है और न मुझे करनी है रक्षा करने वाला तो परमात्मा है, वही मेरी रक्षा करेगा।  आप मेरी चिंता न करें और वास्तव में जब जब भी रानी सीता पर विपात्ति आई, परमात्मा ने स्वयं किसी न किसी रूप में आकर  उनकी दुष्टों और दुर्जनों से रक्षा की। पीपाजी महाराज सदैव जंगलों में ही विचरण करते रहते थे जहां ईश्वर कृपा और भगवद भक्ति के कारण उन्हें कोई हानि नहीं हुई। भगवन्न नामोच्चारण मात्र से बड़े बड़े विघ्न टल जाते थे। कहा जाता है कि इनके प्रभाव से गाय और सिंह एक ही घाट पर पानी पीते थे।  आज भी ऐसी मान्यता है कि पीपाजी धाम क्षेत्र में कोई भी हिंसक पशु गाय और मनुष्य को नहीं सताते हैं।

पीपाजी महाराज के जीवन में  कई चमत्कारों जैसे राजकाज करने की समयावधि में दैवीय साक्षात्कार, द्वारिका में जल में सात दिन का प्रवास, प्रभु के युगल स्वरुप के दर्शन, पीपाधाम में रणछोड़ राय की प्रतिमाओं का मिलना, अकाल के समय उनके अन्न क्षेत्र का संचालन, सिंह को अहिंसा का उपदेश, सिंह द्वारा रानी की रक्षा, वृद्ध ब्राह्मण द्वारा रानी की सुरक्षा, रानी सीता का सिंहनी के रूप में दिखाई देना, लाठियों को हरे बांस में बदलना, मृत तेली को जीवनदान, एक ही समय में पांच अलग अलग स्थान पर उपस्थिति, गागर में स्वर्ण मोहरें सहित  और भी कई चमत्कारों से उनकी महिमा बढ़ी। पीपाजी महाराज ने अपने जीवन में हजारों आस्तिकों को नास्तिक बनाया, सैकड़ों असाधुऑ को साधु बनाया और कई निर्धन एवं दरिद्रों को ईश्वर प्रार्थना द्वारा धनवान बना दिया, वे एक अच्छे समाज सुधारक भी थे।  परम्परागत वृतान्तों के अनुसार पीपाजी महाराज उत्सव आदि तो कराते ही थे, उनकी भोजन शाला भी सतत चलती रहती थी। द्वारिका के बाद वृंदावन में फिर से एक बार उन्हें प्रभु ने युगल स्वरुप में दर्शन हुए थे। दर्जी समाज के लोग पीपाजी महाराज को अपना आराध्य देव  मानते हैं। पीपा जी महाराज की रचना को गुरुग्रंथ साहिब में भी स्थान मिला है।  

पीपाजी महाराज की कीर्ति दूर दूर तक फ़ैल गई और हजारों लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे।  उस समय राजा  सूरजमल सेन भी पीपाजी के पास दीक्षा लेने की इच्छा लेकर आये।  पीपाजी महाराज ने समझाने का प्रयास किया कि भक्ति मार्ग अत्यंत कठिन है, संयम रखकर जगत का बनाना पड़ता है और स्वयं को जनता के  लिए अर्पित कर देना पड़ता है।  राजा ने दृढ़ निश्चय कर रखा था, उन्होंने अपना राजमहल, खजाना और अपनी रानी तक को पीपाजी महाराज  चरणों में अर्पित कर दिया और दीक्षा प्राप्त करने के लिए अडिग रहे। राजा की भावना देख पीपाजी महाराज ने द्रवित होकर रानी को अपनी पुत्री बना कर मान दिया और राजमहल और खजाने की चाबियां रानी को सौंप कर प्रभु भक्ति और पति की सेवा का उपदेश दिया। राजा  सूरजमल सेन को गुरु दीक्षा दी।  दीक्षा और उपदेश ग्रहण कर  राजा और रानी अपने गृह चले गए तथा अहंकार को त्यागकर  विनम्रता पूर्वक भगवद नाम स्मरण करते हुऐ राजकाज करने लगे, पीपाजी महाराज का सानिध्य पाकर राजा और प्रजा खुशहाल हो गए।
      
पीपाजी महाराज परम भक्त और संत पुरुष थे। एक श्रेष्ठ राज्य के अधिपति होकर भी वे संत मार्ग चुनकर जीवनभर साधना आराधना में रत रहे।  वे उस समय के अद्वितीय समाज सुधारक, प्रकाण्ड विद्वान् और रामानंदी संप्रदाय  संस्थापक स्वामी रामानंद जी  प्रमुख शिष्य तथा रामात  शाखा के अनुयाई थे। झालावाड़ में  आज भी पीपाजी महाराज का गुफा वाला स्थान है, मंदिर बना  हुआ  है, जहां प्रतिवर्ष मेला लगता है और हजारो भक्त दर्शन के  लिए आते है।   झालावाड़ के अलावा बाड़मेर, जोधपुर और टोंक में भी इनके स्थान हैं, जहां पर भी उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष मेला लगता है। पीपाजी महाराज  का अंतिम समय टोंक में व्यतीत हुआ। संत प्रवर श्री  पीपाजी महाराज  १३६ वर्ष की आयु में अपनी देह का त्याग कर प्रभु चरणों में लीन हो गए। पीपाजी महाराज को साष्टांग प्रणाम।   







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