शिष्य को संत कबीरदास जी की शिक्षा
महान संत कबीरदास जी का जन्म एक अत्यंत ही गरीब जुलाहा परिवार में हुआ था। कबीरदास जी के पिताजी का कपडे बुनने का कामकाज पीढ़ियों से चला आ रहा था। कबीरदास जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के रहे थे, और अपने पारिवारिक कपड़ा बुनने के कारोबार में हाथ बंटाते थे। पिताजी के बाद भी वे अपना वही कार्य करते हुवे अपना जीवनयापन करते थे। भगवान की भक्ति में सदैव लीन कबीरदास जी कपड़ा बुनते हुवे भी भगवान के ही ध्यान में रहकर भजन और दोहे का गान किया करते थे, उन पर ईश्वरीय कृपा भी थी। कबीरदास जी पर ईश्वरीय कृपा और उनके भजनों तथा दोहों से प्रभावित कई लोग उनके भक्त हो गए थे, जिसमे कई प्रतिष्ठित सेठ, साहूकार, जमींदार भक्त भी थे।
कबीरदास जी के एक जमींदार शिष्य को उनका कपड़ा बुनने का कार्य औछा लगता था, और वह चाहता था की कबीरदास जी यह काम छोड़कर कोई दूसरा काम करने लग जाए, ऐसा सोचकर वह एक बार कबीरदास जी से बोला हे गुरुदेव आप अब साधारण मानव नहीं हैं, जिस समय आप साधारण मानव थे उस समय कपड़ा बुना करते थे, तब तक ठीक था किन्तु अब तो ईश्वर की आप पर कृपा है इसलिए जीविकोपार्जन के लिए आपको यह काम करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
कबीरदास जी समझ गए कि उनके इस भक्त में अभी भक्ति के भाव नहीं आए हैं, और इसके ज्ञानचक्षु खोलना होंगे। उन्होंने कहा तुम ठीक कह रहे हो, मैं जिस समय साधारण था तब सिर्फ अपने जीविकोपार्जन के लिए कपड़ा बुनने का कार्य करता था किन्तु जब से भक्ति का रंग चढ़ा तब ईश्वर ने मुझे समझाया कि तेरा यह कार्य तेरे जीवनयापन के लिए ही नहीं है तुम मेरे लिए काम कर रहे हो। अब यह सोचो की ईश्वर का सभी के शरीर में निवास है, और जो भी बिना कपडे के घूमेगा तो यह होगा यह कि ईश्वर बगैर कपड़ों के है, सो भाई मैं प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में समाये ईश्वर का तन ढ़कने के लिए कपडे बुनने का काम करता हूँ। काम मेरा वही है बस उद्देश्य बदल गया है और उद्देश्य बदलने के बाद से तो मेरी कार्य शक्ति और बढ़ गई है, थकान भी आती है तो ऐसा लगता है कि मानो ईश्वर मेरा काम कर रहे हैं।
कबीरदास जी ने उसे समझाया की पहले में पैसों के हिसाब किताब में उलझ कर एक एक अंगुल सूत का ध्यान रखता था और अब पैसों की बजाय मेरे ईश्वर का एक एक अंग ढंकने का हिसाब रखता हूँ। पूरी ईमानदारी रखते हुवे यह छोटा काम करते हुवे भी ईश्वर कृपा है। काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है, मैंने अपना काम बदला नहीं सिर्फ सोच बदली है जिसमें ईश्वर भी हाथ बंटा रहा है और तुम्हारे जैसे शिष्य धन लुटाने को तैयार हैं। इसलिए प्रभुकृपा के लिए प्रत्येक काम को परोपकार और भलाई से जोड़ कर ईमानदारी से करोगे तो ईश्वर अवश्य साथ देगा। ईश्वर भी अपने भक्तों की परीक्षा लेते हैं, वे यह देखते है कि मेरा यह भक्त वास्तव में ईमानदार है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई मौका मिलने पर यह अपना मार्ग बदल दे। ईश्वर किसी पर भी अपनी कृपा करने के पहले उसकी अच्छी परख कर लेते हैं। ईमानदारी से अर्जित धन बेमानी की आय से लाख गुना अच्छा है। संत कबीरदास जी की बातों से उस जमींदार का गर्व टूट गया और वह उनके सामने नतमस्तक हो गया।
कबीरदास जी समझ गए कि उनके इस भक्त में अभी भक्ति के भाव नहीं आए हैं, और इसके ज्ञानचक्षु खोलना होंगे। उन्होंने कहा तुम ठीक कह रहे हो, मैं जिस समय साधारण था तब सिर्फ अपने जीविकोपार्जन के लिए कपड़ा बुनने का कार्य करता था किन्तु जब से भक्ति का रंग चढ़ा तब ईश्वर ने मुझे समझाया कि तेरा यह कार्य तेरे जीवनयापन के लिए ही नहीं है तुम मेरे लिए काम कर रहे हो। अब यह सोचो की ईश्वर का सभी के शरीर में निवास है, और जो भी बिना कपडे के घूमेगा तो यह होगा यह कि ईश्वर बगैर कपड़ों के है, सो भाई मैं प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में समाये ईश्वर का तन ढ़कने के लिए कपडे बुनने का काम करता हूँ। काम मेरा वही है बस उद्देश्य बदल गया है और उद्देश्य बदलने के बाद से तो मेरी कार्य शक्ति और बढ़ गई है, थकान भी आती है तो ऐसा लगता है कि मानो ईश्वर मेरा काम कर रहे हैं।
कबीरदास जी ने उसे समझाया की पहले में पैसों के हिसाब किताब में उलझ कर एक एक अंगुल सूत का ध्यान रखता था और अब पैसों की बजाय मेरे ईश्वर का एक एक अंग ढंकने का हिसाब रखता हूँ। पूरी ईमानदारी रखते हुवे यह छोटा काम करते हुवे भी ईश्वर कृपा है। काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है, मैंने अपना काम बदला नहीं सिर्फ सोच बदली है जिसमें ईश्वर भी हाथ बंटा रहा है और तुम्हारे जैसे शिष्य धन लुटाने को तैयार हैं। इसलिए प्रभुकृपा के लिए प्रत्येक काम को परोपकार और भलाई से जोड़ कर ईमानदारी से करोगे तो ईश्वर अवश्य साथ देगा। ईश्वर भी अपने भक्तों की परीक्षा लेते हैं, वे यह देखते है कि मेरा यह भक्त वास्तव में ईमानदार है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई मौका मिलने पर यह अपना मार्ग बदल दे। ईश्वर किसी पर भी अपनी कृपा करने के पहले उसकी अच्छी परख कर लेते हैं। ईमानदारी से अर्जित धन बेमानी की आय से लाख गुना अच्छा है। संत कबीरदास जी की बातों से उस जमींदार का गर्व टूट गया और वह उनके सामने नतमस्तक हो गया।
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