संझा (सांझी) पर्व


भारतीय लोक कलाओं में भारतीय संस्कृति के स्वरुप और सौंदर्य के दर्शन तो होते ही है, इनमें चित्र कला एवं आकृतियों का भी अपना अलग ही महत्त्व है।  ऐसी ही एक कला है संझा या सांझी कला और इस कला के पर्व को संझा पर्व के रूप में भाद्रप्रद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक सोलह दिनों तक मनाया जाता है। श्राद्ध पक्ष अर्थात पितृ पक्ष में मनाया जाने वाला यह पर्व विशेषकर कुमारी कन्याओं का ही एक पर्व है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह पर्व सर्वप्रथम माता पार्वती ने मनवांछित वर प्राप्ति के लिए मनाया था।  इसके आलावा वृषभान दुलारी राधारानी द्वारा भी इस पर्व को मनाये जाने की मान्यता चली आ रही है। पुष्टिमार्गीय सेवा में पुरे सोलह दिनों तक फूलों की सांझी बनाइ जाती है। मालवा और निमाड़ की अपनी अनूठी लोक कला और परम्परा अनुसार एक विशिष्ठ पहचान रखने वाला पर्व है संझा पर्व। कला की अभिवयक्ति में जब धर्म का सम्पुट लग जाता है तो वह पवित्र और पूजनीय हो जाती है। पितृ पक्ष में मनाया जाने वाला यह पर्व कुमारी कन्याओं का अनुष्ठानिक व्रत वाला पर्व है।  कहा जाता है कि कुमारी कन्याएँ अपने जीवन में किसी भी व्रत की शुरुआत इसी पर्व से शुरू करती है।  मालवा निमाड़ के अलावा राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में भी थोड़े बहुत फेरबदल के साथ इस पर्व को मनाया जाता है। 
भाद्रप्रद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक सोलह दिनों तक प्रतिदिन गोधुलि बेला में घर से बाहर दीवार या लकड़ी के स्वच्छ पटिये पर पृष्ठभूमि को गोबर से लीपकर चौकोर, वर्गाकार के अलावा विशिष्ट आकार की आकृति पर गाय के गोबर की लुगदी जैसी बनाकर विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनाकर लगाई जाती है, जोकि दीवार या लकड़ी के पटिये पर चिपकी रहती है।  उसके बाद फूल, फूल की पंखुड़ी, पत्ती या रंग बिरंगी पन्नियों को उन उकेरी गई आकृतियों पर चिपका कर विशिष्ट श्रृंगार किया जाता है।  प्रतिदिन की अलग अलग आवृत्तियों का अपना महत्त्व होता है उसी प्रकार से उसे बनाया जाता है।  सफ़ेद फूलों का विशेष रूप से संझा के लिए उपयोग किया जाता है क्योंकि कहते है संझा को सफ़ेद फूल अतिप्रिय है।  श्रृंगार के बारे में कहते है कि संझा अपने पहनावे में फूल के बुटो को अधिक पसंद करती थी।  आम रंग के फूल भांत के घाघरे पर करेले भांत की बूटियां उन्हें अधिक सुहाती थी। अपने विवाह के बाद वह छटपटा का विभिन्न फलों के रंगो वाला और अलग अलग रंगों की कलियों वाला घाघरा सिलवाने के लिए अपने पिता को कहती है। संझा चुनर ओढ़ना, सर में सोने का बोर लगाना, बिछिया पायजेब पहनना और मोतियों से मांग भरने का शौक तो रखती ही थी, साथ ही आँखों में काजल और माथे पर टीकी भी लगाती थी।  

सूर्यास्त के पूर्व संझा बनाकर तैयार कर ली जाती थी और सूर्यास्त के बाद आरती उतार कर प्रसाद का भोग लगाया जाता है, उसके बाद सभी कुमारी कन्याएँ मंगल गीत गाकर हंसी मजाक करते हुवे संझा के सतीत्व, पतिव्रत धर्म और आदर्श चरित्र की कल्पना करते हुवे  अपने अपने भाव गीतों के माध्यम से व्यक्त करती है।  वास्तव में हमारी संस्कृति में ऐसे कई पर्व, त्यौहार एवं अवसर हैं, जिनके माध्यम से भावी आदर्श जीवन जीने की प्राथमिक जानकारी, उसके निर्वाह की प्रक्रिया और शिक्षा से परिचय और प्रशिक्षण हो जाता है, साँझा का पर्व उन कुमारी कन्याओं के लिए इसी प्रकार की अनुभूति प्रदान करता है।  


संझा के सोलह दिनों की भी पृथक पृथक आकृतियाँ तय होती है।  प्रथम दिन को पाटला फिर चाँद सूरज बनाया जाता है, उसके बाद तुलसी क्यारा, पांच कुंवारे, बिजणी, स्वस्तिक, सत फूल, भाई बहन, परेण्डा आदि विभिन्न आकृतियाँ बनाकर बालिकाएँ संझा की पूजा करती है।  पंचमी तिथि को कुंवारी पांचम कहा जाता है।  नवमी तिथि को डोकरा नवमी कहा जाता है उस दिन डोकरा डोकरी की आकृति बनाई जाती है।  सप्तमी तिथि को हत्यारी सातम कहा जाकर इस दिन एक ऐसे वीर की आकृति बनाई जाती है जिसकी संभवतः हत्या या आत्महत्या हुई हो, यह भाव श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों से जुड़ने की श्रृंखला की ही एक कड़ी है। ग्यारस की तिथि को किलाकोट की रचना करते हुवे आकृतियां उकेरी जाती है, जिनमें पंखा, चाँद, सूरज, पांच कुंवारे, गुजरी, चौसर आदि की आकृतियां उकेरी जाती है। ग्यारस की तिथि से अमावस्या तक किला कोट ही बनाया जाता है। अमावस्या को अंतिम दिन बनाये जाने वाला किला कोट राजपुताना संस्कृति से परिपूर्ण होता है, इस दिन किलाकोट में सभी प्रकार की आकृतियों से पूरा भरा जाता है।  किलाकोट में एक गाड़ी भी बनाना आवश्यक होता है जिसे कि मीरा की गाड़ी कहा जाता है।  सोलह दिनों के इस पर्व में जो भी आकृतियां बनाई जाती है उन्हें उतारकर बांस की छबड़ी में अपने सर पर रखकर अमावस्या के अगले दिन नदी, कुवे या बावड़ी में विसर्जित कर दिया जाता है।  

कुमारी कन्याएँ विवाह के पूर्व तक इस पर्व को मनाती है, विवाह के उपरांत प्रथम बार मायके आने पर इस पर्व का उद्यापन किया जाता है।  उसके बाद विवाहिता इस पर्व को नहीं करती है।  कई जगह यह भी परंपरा है कि विवाह के पहले बनाई गई संझा पुरे एक वर्ष तक दीवार पर ही बनी रहती है और विवाह उपरांत मायके आकर विवाहिता उस एक वर्ष से सहेजी हुई संझा को अपने हाथों से निकाल कर पूजा आदि करके नदी, बावड़ी में विसर्जित करती है।  

संझा के बारे में कई अनुत्तरित जिज्ञासाऐं हैं जैसे संझा कौन थी, क्या संझा का ब्रह्मा जी और संध्या से कोई सम्बन्ध है, संझा का मीराबाई से कोई सम्बन्ध है, सँझा पितृपक्ष में ही क्यों मानते है, विवाह उपरांत इस पर्व को क्यों नहीं मनाया जाता है ? संझा का ऐतिहासिक पक्ष भी ठोस प्रमाण से प्रमाणित नहीं होकर मात्र लोकगीतों पर ही आधारित है।  उन लोकगीतों में भी संझा का विवाह प्रसंग, सौभाग्य, ससुराल पक्ष का उल्लेख उनके सुन्दर जीवन का चित्रण तो करते हैं, किन्तु पर्व को श्राद्ध पक्ष में ही मनाने की परंपरा क्यों पड़ी ? संझा के सम्मुख गए जाने वाले लोकगीतों से साँझा के ऐतिहासिक पक्ष की जो जानकारी मिलती है उस अनुसार संझा का मायका सांगानेर नामक स्थान में है और उनका विवाह अजमेर में हुआ है।  श्री कल्याण जी के देश सांगानेर से कल्याण जी अपनी सेवा से मुक्त कर संझा को ससुराल जाने के बारे में आग्रह करते हैं।  लोकगीतों से यह भी प्रतीत होता है कि संझा का विवाह बचपन में हुआ, वह प्रतिष्ठित परिवार की पुत्री थी और उसका लालन पालन अत्यंत ही वैभव और ऐश्वर्य में हुआ था और वह  ससुराल की जीवन शैली से अनभिज्ञ थी।  

संझा  पर्व मनाने के पीछे एक परम्परा यह भी हो सकती है कि संझा अपने समय की आदर्श, संस्कारवान सुकन्या रही होगी और उसके विवाह हो जाने पर ससुराल चले जाने के कारण उनके माता पिता ने अपने राज्य सीमा में अपनी पुत्री की स्मृति में कुमारी कन्याओं का यह त्यौहार प्रारम्भ किया हो, जो आगे चलकर एक परंपरा में परिवर्तित हो गया हो।  कारण कुछ भी रहा हो लोकगीतों में वर्णित मंगलकामना, माता पिता, सास ससुर, भाई बहन, ननद, देवर देवरानी, ससुराल गमन और वहां के ठाठ बाट आदि सभी मंगल सूचक तो है ही, साथ  ही इनमें  बालिकाओं के भावी जीवन के लिए मंगल कामना और समृद्धि के सन्देश भी निहित हैं।  

आधुनिक समय में शहरों को यदि छोड़ दिया जाय तो मालवा, निमाड़ एवं राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में यह पर्व आज भी पूर्ण उत्साह से मनाया जाता है।  एक समय था जबकि घरों की कच्ची दीवारों पर संझा बनाकर यह पर्व परम्परागत रूप से हर्षोल्लास से मनाया जाता था किन्तु वर्तमान में कच्ची दीवारों पर चढ़ गई सीमेंट की परत ने इस परम्परा को विलुप्त होने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है।  आज भी इस पर्व को कई लोग औपचारिक रूप से मनाकर परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं।  अंतर इतना ही है कि पहले दीवारों पर गोबर से आकृति बनाई जाती थी अब कागज पर चित्रित रेडीमेड आकृति को दीवार पर चिपका कर प्रतीकात्मक रूप से त्यौहार मना कर परम्परा का निर्वाह कर रहे है।  आज आवश्यकता  है कि यह परम्परा पुनः अपने पूर्व प्रचलन अनुसार प्रारम्भ हो, बालिकाऐं भी उससे विमुख न हों और उनकी स्मृति में यह पर्व यादगार बना रहे अन्यथा आने वाली पीढ़ी तो इस पर्व से अनभिज्ञ हो जावेगी। सभी को जय श्री कृष्णा -- दुर्गा प्रसाद शर्मा 



 
  
    

Comments

  1. सही जानकारी हमारी संस्कृति की जानकारी तो बच्चोँ को हमें ही देनी होगी आप ओर भैया बहुत शानदार जानकारी दे रहे हो प्रणाम

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  2. संझा पर्व के बारे में पढ़ कर लोकगीत ज़ेहन में ताज़ा हो गये। इस संस्कृति को बचाने का भरसक प्रयास होना चाहिए लेकिन हमारी विडंबना ही है ऐसी कई संस्कृतियां है जो विलुप्त के कगार पर है।
    निशा जोशी

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