सनातन धर्म - व्यक्तिगत सोलह संस्कार
हमारे पूर्वजों द्वारा हिन्दू सनातन धर्म में कई व्यवस्थाएं बड़ी सोच समझ कर निर्धारित की थी जैसे - मानव जीवन को आश्रम वर्णादि में विभक्त करना, व्यक्ति को सोलह संस्कारों से संस्कारित करना इन सभी के पीछे एक गहरी सोच छिपी हुई है। प्राचीनकाल से ही सोलह संस्कारों के निर्वहन की परंपरा चली आ रही होकर प्रत्येक संस्कार का अपना अलग ही महत्त्व है। संस्कार शब्द अपने आप में व्यापक शब्द है और बहुत सरे अर्थ अपने में छिपाये हुए है।
सोलह संस्कार व्यक्ति की धार्मिक पहचान तो होते ही है साथ ही व्यक्ति को उसके राष्ट्र, समाज और
व्यक्तिगत जिम्मेदारी को निभाने के लिए कुशल बनाने की एक पद्धति है, जो कि हमारे गुणों में वृद्धि करते हुए हमारे जीवन की
दिशा भी निश्चित करते हैं। हिंदू संस्कृति में
प्रमुख रूप से
16 संस्कार माने गए
हैं जो गर्भाधान
से शुरू होकर
अंत्येष्टी पर खत्म
होते हैं। संस्कार के
लिए किए जाने
वाले कार्यक्रमों में
जो पूजा, यज्ञ,
मंत्रोच्चरण आदि होता
है उसका वैज्ञानिक
महत्व साबित किया
जा चुका है। मनीषियों द्वारा हमें
सुसंस्कृत करने के लिये
अपने अथक प्रयासों
और शोधों के
बल पर ये
संस्कार स्थापित किये हैं।
इन्हीं संस्कारों के कारण
भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। हालांकि हम पाश्चात्य संस्कृति के आकर्षण और आधुनिकता की इस आपाधापी की जिंदगी
और अतिव्यस्तता के
कारण इन मूल्यों को
भुलाने लगे हैं और इसके कारण चारित्रिक गिरावट,
असामाजिकता या अनुशासनहीनता
के रूप में परिणाम भी हमारे सामने आ रहे हैं। वर्तमान में कई ऐसे लोग भी हैं
जो इन संस्कारों
के विषय में
जानते तक नहीं हैं।
तो आइए जानते
हैं कि जीवन
में इन सोलह
संस्कारों को क्यों अनिवार्य
बनाया गया था?
1. गर्भाधान
संस्कार – यह संस्कार पितृ ऋण की पूर्ति के लिए धर्मानुकूल श्रेष्ठ पवित्र भावनाओं के साथ धर्म कुल जाती को उज्जवल करने वाली सन्तानोत्पत्ति के लिए होता है। यह
ऐसा संस्कार है
जिससे योग्य, गुणवान
और आदर्श संतान
प्राप्त होती है।
शास्त्रों में मनचाही
संतान के लिए
गर्भधारण किस प्रकार
करें? इसका विवरण
दिया गया है।
हमारे शास्त्रों में
मान्य सोलह संस्कारों
में गर्भाधान पहला
है। गृहस्थ जीवन
में प्रवेश के
उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य
के रूप में
इस संस्कार को
मान्यता दी गई
है। गृहस्थ जीवन
का प्रमुख उद्देश्य
श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम
संतति की इच्छा
रखनेवाले माता-पिता
को गर्भाधान से
पूर्व अपने तन
और मन की
पवित्रता के लिये
यह संस्कार करना
चाहिए। वैदिक काल में
यह संस्कार अति
महत्वपूर्ण समझा जाता
था। शास्त्रों के
अनुसार गर्भाधान संस्कार को
अति महत्वपूर्ण माना
गया है, क्योकि
न केवल अपने
कुल अपितु यह
पूरे समाज व
राष्ट्र के लिए
भविष्य का निर्माण
करने में सहायक
है दम्पत्ति
को अपना दायित्व
बहुत साबधानी पूर्ण
करना चाहिये . इस संस्कार
में माता-पिता
का तन व
मन पूर्ण रूप
से स्वस्थ व
शुद्ध होना, शुभ
समय,उचित स्थान,
स्वस्थ आहार-विहार
आवश्यक है।
2. पुंसवन संस्कार – गर्भ ठहर
जाने पर भावी
माता के आहार,
आचार, व्यवहार, चिंतन,
भाव सभी को
उत्तम और संतुलित
बनाने का प्रयास
किया जाय ।हिन्दू
धर्म में, संस्कार
परम्परा के अंतर्गत
भावी माता-पिता
को यह तथ्य
समझाए जाते हैं
कि शारीरिक, मानसिक
दृष्टि से परिपक्व
हो जाने के
बाद, समाज को
श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी
देने के संकल्प
के साथ ही
संतान पैदा करने
की पहल करें
। उसके लिए
अनुकूल वातवरण भी निर्मित
किया जाता है।
गर्भ के तीसरे
माह में विधिवत
पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया
जाता है, क्योंकि
इस समय तक
गर्भस्थ शिशु के
विचार तंत्र का
विकास प्रारंभ हो
जाता है ।
3. सीमन्तोन्नयन
संस्कार – यह
संस्कार पुंसवन का ही
विस्तार है | इसका
शाब्दिक अर्थ है-
"सीमन्त" अर्थात् 'केश और
उन्नयन' अर्थात् 'ऊपर उठाना'
| संस्कार विधि के
समय पति अपनी
पत्नी के केशों
को संवारते हुए
ऊपर की ओर
उठाता था, इसलिए
इस संस्कार का
नाम 'सीमंतोन्नयन' पड़
गया | यह संस्कार
गर्भ के छठे
या आठवें महीने
में किया जाता
है | इस संस्कार
का फल भी
गर्भ की शुद्धि
ही है | इस
समय गर्भ में
पल रहा बच्चा
सीखने के काबिल
हो जाता है
| उसमें अच्छे गुण, स्वभाव
और कर्म आएं,
इसके लिए माँ
उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन
और व्यवहार करती
है | महाभक्त प्रह्लाद
को देवर्षि नारद
का उपदेश तथा
अभिमन्यु को चक्रव्यूह
प्रवेश का उपदेश
इसी समय में
मिला था | अतः
माता-पिता को
चाहिए कि वे
इन दिनों विशेष
सावधानी के साथ
योग्य आचरण करें। गर्भपात
रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ
शिशु एवं उसकी
माता की रक्षा
करना भी इस
संस्कार का मुख्य
उद्देश्य है | इस
संस्कार के माध्यम
से गर्भिणी स्त्री
का मन प्रसन्न
रखने के लिये
सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की
मांग भरती हैं।
सनातन धर्म में
स्त्रियों को शिक्षित
होना अनिवार्य है
इसी समय गर्भिणी
को वेद एवं
शास्त्रों का अध्ययन
कराया जाता है
| जब गर्भिणी शिक्षित,
मानसिक बल एवं
सकारात्मक विचारों से
युक्त होगी तभी
शिशु भी शक्तिशाली
व विद्वान होगा
क्योंकि शिशु का
लगभग 90 % बौद्धिक विकास गर्भ
में हो जाता
है |
4. जातकर्म
– जन्म के
बाद नवजात शिशु
के नालच्छेदन (यानि
नाल काटने) से
पूर्व इस संस्कार
को करने का
विधान है। इस
दैवी जगत् से
प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले
बालक को मेधा,
बल एवं दीर्घायु
के लिये स्वर्ण
खण्ड से मधु
एवं घृत गुरु
मंत्र के उच्चारण
के साथ चटाया
जाता है। दो
बूंद घी तथा
छह बूंद शहद
का सम्मिश्रण अभिमंत्रित
कर चटाने के
बाद पिता बालक
के बुद्धिमान, बलवान,
स्वस्थ एवं दीर्घजीवी
होने की प्रार्थना
करता है। इसके
बाद माता बालक
को स्तनपान कराती
है। ( यह
स्तनपान विज्ञान के
अनुसार जन्म होने
के आधे घंटे अन्तर्गत
कराये जाने वाला
स्तनपान है, जिसको
हिन्दू धर्म में
हजारो वर्ष पहले
से बताया जा
चूका है। )
5. नामकरण संस्कार – कई जगह
इसे "छठ्ठी" के नाम
से जाना जाता
है। यह एक
मनोवैज्ञानिक तथ्य है
कि मनुष्य को
जिस तरह के
नाम से पुकारा
जाता है, उसे
उसी प्रकार की
छोटी सी अनुभूति
होती रहती है
| यदि किसी को निरर्थक नामों
से पुकारा जायेगा,
तो उसमें हीनता
के भाव ही
जाएगी | नाम सार्थक
बनाने की कई
हलकी, अभिलाषाएँ मन
में जगती रहती
है | पुकारने वाले
भी किसी के
नाम के अनुरूप
उसके व्यक्तित्व की कल्पना करते हैं
| इसलिए नाम का
अपना महत्त्व है
| उसे सुन्दर ही
चुनकर रखा
जाए, बालक का नाम
रखते समय ध्यान
रखें कि गुणवाचक नाम रखे
जाएँ, पुत्र एवं
पुत्री के नामों
की एक बड़ी
सूची बनाई जा
सकती है | उसी
में से छाँटकर
लड़के और लड़कियों
के उत्साहवर्धक, सौम्य
एवं प्रेरणाप्रद नाम
रखने चाहिए | समय-समय पर
बालकों को यह
बोध भी कराते
रहना चाहिए कि
उनका यह नाम
है, इसलिए गुण
भी अपने में
वैसे ही पैदा
करने चाहिए | नक्षत्र या राशियों
के अनुसार नाम
रखने से लाभ
यह है कि
इससे जन्मकुंडली बनाने
में आसानी रहती
है | नाम भी
बहुत सुन्दर और
अर्थपूर्ण रखना चाहिये
|
आमतौर से यह
संस्कार जन्म के
दसवें दिन किया
जाता है ।
उस दिन जन्म
सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया
जाता है ।
यह प्रसूति कार्य
घर में ही
हुआ हो, तो
उस कक्ष को
लीप-पोतकर, धोकर
स्वच्छ करना चाहिए
। शिशु तथा
माता को भी
स्नान कराके नये
स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते
हैं । यदि
दसवें दिन किसी
कारण नामकरण संस्कार
न किया जा
सके । तो
अन्य किसी दिन,
बाद में भी
उसे सम्पन्न करा
लेना चाहिए । यह भी मान्यता है कि
जन्म के ग्यारहवें
दिन यह संस्कार
होता है, क्योकि दस दिनों तक अशुद्धि का समय अर्थात सूतक का समय माना जाता है।
6. निष्क्रमण्
– निष्क्रमण
का अभिप्राय है
बाहर निकलना। इस
संस्कार में शिशु
को सूर्य तथा
चन्द्रमा की ज्योति
दिखाने का विधान
है। भगवान् भास्कर
के तेज तथा
चन्द्रमा की शीतलता
से शिशु को
अवगत कराना ही
इसका उद्देश्य है।
इसके पीछे मनीषियों
की शिशु को
तेजस्वी तथा विनम्र
बनाने की परिकल्पना रही है । उस दिन
देवी-देवताओं के
दर्शन तथा उनसे
शिशु के दीर्घ
एवं यशस्वी जीवन
के लिये आशीर्वाद
ग्रहण किया जाता
है। जन्म के
चौथे महीने इस
संस्कार को करने
का विधान है।
तीन माह तक
शिशु का शरीर
बाहरी वातावरण तथा
तेज धूप, तेज
हवा आदि के
अनुकूल नहीं होता
है इसलिये प्राय:
तीन मास तक
उसे बहुत सावधानी
से घर में
रखना चाहिए। इसके
बाद धीरे-धीरे
उसे बाहरी वातावरण
के संपर्क में
आने देना चाहिए।
इस संस्कार का
तात्पर्य यही है
कि शिशु समाज
के सम्पर्क में
आकर सामाजिक परिस्थितियों
से अवगत हो।
7. अन्नप्राशन
संस्कार – सनातन धर्म संस्कारों
में अन्नप्राशन संस्कार
सप्तम संस्कार है
| इस संस्कार में
बालक को अन्न
ग्रहण कराया जाता
है, क्योंकि शिशु को उसकी आयु बढ़ने के साथ शरीर की पुस्टि के लिए अन्न की भी आवश्यकता है | अब बालक को धीरे-धीरे स्वावलम्बी
बनना पड़ेगा | केवल
यही नहीं, आगे
चलकर अपना तथा
अपने परिवार के
सदस्यों के भी
भरण-पोषण का
दायित्व संम्भालना होगा | यही
इस संस्कार का
तात्पर्य है | हमारे धर्माचार्यो ने अन्नप्राशन
के लिये जन्म
से छठे महीने
को उपयुक्त माना
है। खीर
और मिठाई से
शिशु के अन्नग्रहण
को शुभ माना
गया है। हमारे शास्त्रों में
खीर को अमृत
के समान उत्तम
माना गया है। शास्त्रों में अन्न
को प्राणियों का
प्राण कहा गया
है | बच्चों को सफेद
चीनी व् तामसिक
भोजन नहीं खिलानी
चहिए क्योंकि यह
स्वास्थ के लिए
हानि कारक है
| यह संस्कार बच्चे
के दांत निकलने
के समय अर्थात
6 – 7 महीने की उम्र
में किया जाता
है
8 मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार – चूड़ाकर्म को मुंडन
संस्कार भी कहा
जाता है। हमारे
आचार्यो ने बालक
के पहले, तीसरे
या पांचवें वर्ष
में इस संस्कार
को करने का
विधान बताया है।
इस संस्कार के
पीछे शुाचिता और
बौद्धिक विकास की परिकल्पना
हमारे मनीषियों के
मन में होगी।
मुंडन संस्कार का
अभिप्राय है कि
जन्म के समय
उत्पन्न अपवित्र बालों को
हटाकर बालक को
प्रखर बनाना है।
नौ माह तक
गर्भ में रहने
के कारण कई
दूषित किटाणु उसके
बालों में रहते
हैं। मुंडन संस्कार
से इन दोषों
का सफाया होता
है। यह समारोह इसलिए
महत्त्वपूर्ण है कि
मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा
पर इस समय विशेष विचार किया
जाता है और
वह कार्यक्रम शिशु
पोषण में सम्मिलित
किया जाता है,
जिससे उसका मानसिक
विकास व्यवस्थित रूप
से आरम्भ हो
जाए
9. कर्णवेध
संस्कार – इसका अर्थ
है – कान छेदना।
परंपरा में कान
और नाक छेदे
जाते थे। इसके
दो कारण हैं,
एक – आभूषण पहनने
के लिए। दूसरा
कान छेदने से
एक्यूपंक्चर होता है।
इससे मस्तिष्क तक
जाने वाली नसों
में रक्त का
प्रवाह ठीक होता
है। हमारे मनीषियों
ने सभी संस्कारों
को वैज्ञानिक कसौटी
पर कसने के
बाद ही प्रारम्भ
किया है। कर्णवेध
संस्कार का आधार
बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक
की शारीरिक व्याधि
( बीमारी ) से रक्षा
ही इस संस्कार
का मूल उद्देश्य
है। प्रकृति प्रदत्त
इस शरीर के
सारे अंग महत्वपूर्ण
हैं। कान हमारे
श्रवण द्वार हैं।
कर्ण वेधन से
व्याधियां ( बीमारी ) दूर
होती हैं तथा
श्रवण शक्ति भी
बढ़ती है। इसके
साथ ही कानों
में आभूषण हमारे
सौन्दर्य बोध का
परिचायक भी है।
यज्ञोपवीत के पूर्व
इस संस्कार को
करने का विधान
है।
10.विद्यारंभ
संस्कार – विद्यारम्भ का अभिप्राय
बालक को शिक्षा
के प्रारम्भिक स्तर
से परिचित कराना
है। प्राचीन काल
में जब गुरुकुल
की परम्परा थी
तो बालक को
वेदाध्ययन के लिये
भेजने से पहले
घर में अक्षर
बोध कराया जाता
था। माँ-बाप
तथा गुरुजन पहले
उसे मौखिक रूप
से श्लोक, पौराणिक
कथायें आदि का
अभ्यास करा दिया
करते थे ताकि
गुरुकुल में कठिनाई
न हो। हमारा
शास्त्र विद्यानुरागी है। विद्या
अथवा ज्ञान ही
मनुष्य की आत्मिक
उन्नति का साधन
है।
11.यज्ञोपवीत/उपनयन संस्कार – उपनयन संस्कार जिसमें
जनेऊ पहना जाता
है । मुंडन
और पवित्र जल
में स्नान भी
इस संस्कार के
अंग होते हैं।
सूत से बना
वह पवित्र धागा
जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति
बाएँ कंधे के
ऊपर तथा दाईं
भुजा के नीचे
पहनता है। यज्ञोपवीत एक विशिष्ट
सूत्र को विशेष
विधि से ग्रन्थित
करके बनाया जाता
है। इसमें सात
ग्रन्थियां लगायी जाती हैं
। ब्राम्हणों के
यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि
होती है। तीन
सूत्रों वाले इस
यज्ञोपवीत को गुरु
दीक्षा के बाद
हमेशा धारण किया
जाता है। तीन
सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति
ब्रह्मा, विष्णु और महेश
के प्रतीक होते
हैं। अपवित्र होने
पर यज्ञोपवीत बदल
लिया जाता है। हमारे मनीषियों ने इस
संस्कार के माध्यम
से वेदमाता गायत्री
को आत्मसात करने
का प्रावधान दिया
है। आधुनिक युग
में भी गायत्री
मंत्र पर विशेष
शोध हो चुका
है। गायत्री सर्वाधिक
शक्तिशाली मंत्र है। प्राचीन
काल में जब
गुरुकुल की परम्परा
थी उस समय आठ वर्ष की आयु तक बालक का यज्ञोपवीत संस्कार हो जाया करता था। यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा प्रदान की जाती थी, जिसके बाद बालक अध्ययन के लिए गुरुकुल जाता था। गुरुकुल से आने के बाद तक अर्थात विवाह संस्कार होकर गृहस्थाश्रम के प्रवेश तक का समय ब्रह्मचर्य का होता था। इस संस्कार को संयमपूर्वक शिक्षा ग्रहण कर आत्म विकास हेतु ब्लाक को प्रेरित करने के लिए दिया जाता था। आज भी यज्ञोपवीत संस्कार के समय बटुक के भागने और उसे उसके मामा द्वारा पकड़ कर लाने की जो परम्परा है, वह उसी का प्रतीक है।
12. वेदारम्भ
संस्कार – इसके अंतर्गत व्यक्ति
को वेदों का
ज्ञान दिया जाता
है। ज्ञानार्जन से
सम्बन्धित है यह
संस्कार। वेद का
अर्थ होता है
ज्ञान और वेदारम्भ
के माध्यम से
बालक अब ज्ञान
को अपने अन्दर
समाविष्ट करना शुरू
करे यही अभिप्राय
है इस संस्कार
का। शास्त्रों में
ज्ञान से बढ़कर
दूसरा कोई प्रकाश
नहीं समझा गया
है। स्पष्ट है
कि प्राचीन काल
में यह संस्कार
मनुष्य के जीवन
में विशेष महत्व
रखता था। यज्ञोपवीत
के बाद बालकों
को वेदों का
अध्ययन एवं विशिष्ट
ज्ञान से परिचित
होने के लिये
योग्य आचार्यो के
पास गुरुकुलों में
भेजा जाता था।
वेदारम्भ से पहले
आचार्य अपने शिष्यों
को ब्रह्मचर्य व्रत
का पालन करने
एवं संयमित जीवन
जीने की प्रतिज्ञा
कराते थे तथा
उसकी परीक्षा लेने
के बाद ही
वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित
जीवन जीने वाले
वेदाध्ययन के अधिकारी
नहीं माने जाते
थे। हमारे चारों
वेद ज्ञान के
अक्षुण्ण भंडार हैं।
13.केशान्त
संस्कार – केशांत संस्कार का
अर्थ है – केश
यानी बालों का
अंत करना, गुरुकुल
में वेदाध्ययन पूर्ण
कर लेने पर
आचार्य के समक्ष
यह संस्कार सम्पन्न
किया जाता था।
वस्तुत: यह संस्कार
गुरुकुल से विदाई
लेने तथा गृहस्थाश्रम
में प्रवेश करने
का उपक्रम है।
वेद-पुराणों एवं
विभिन्न विषयों में पारंगत
होने के बाद
ब्रह्मचारी के समावर्तन
संस्कार के पूर्व
बालों की सफाई
की जाती थी
तथा उसे स्नान
कराकर स्नातक की
उपाधि दी जाती
थी।
14.समावर्तन
संस्कार – समावर्तन संस्कार का अर्थ
है – फिर से
लौटना। आश्रम में शिक्षा
प्राप्ति के बाद
ब्रहमचारी को फिर
सांसारिक जीवन में
लाने के लिए
यह संस्कार किया
जाता था। इसका
आशय है ब्रहमचारी
मनोवैज्ञानिक रूप से
जीवन के संघर्षों
के लिए तैयार
है। गुरुकुल से विदाई
लेने से पूर्व
शिष्य का समावर्तन
संस्कार होता था।
इस संस्कार से
पूर्व ब्रह्मचारी का
केशान्त संस्कार होता था
और फिर उसे
स्नान कराया जाता
था। यह स्नान
समावर्तन संस्कार के तहत
होता था। इसमें
सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि
युक्त जल से
भरे हुए वेदी
के उत्तर भाग
में आठ घड़ों
के जल से
स्नान करने का
विधान है। यह
स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण
के साथ होता
था। इसके बाद
ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड
को छोड़ देता
था जिसे यज्ञोपवीत
के समय धारण
कराया जाता था।
इस संस्कार के
बाद उसे विद्या
स्नातक की उपाधि
आचार्य देते थे।
इस उपाधि से
वह सगर्व गृहस्थाश्रम
में प्रवेश करने
का अधिकारी समझा
जाता था। सुन्दर
वस्त्र व आभूषण
धारण करता था
तथा आचार्यो एवं
गुरुजनों से आशीर्वाद
ग्रहण कर अपने
घर के लिये
विदा होता था।
15.विवाह संस्कार – प्राचीन काल से
ही स्त्री और
पुरुष दोनों के
लिये यह सर्वाधिक
महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत
से समावर्तन संस्कार
तक ब्रह्मचर्य व्रत
के पालन का
हमारे शास्त्रों में
विधान है। वेदाध्ययन
के बाद जब
युवक में सामाजिक
परम्परा निर्वाह करने की
क्षमता व परिपक्वता
आ जाती थी
तो उसे गृर्हस्थ्य
धर्म में प्रवेश
कराया जाता था।
लगभग पच्चीस वर्ष
तक ब्रह्मचर्य का
व्रत का पालन
करने के बाद
युवक परिणय सूत्र
में बंधता था। हमारे
मनीषियों ने विवाह संस्कार की
स्थापना करके समाज
को संगठित एवं
नियमबद्ध करने का
प्रयास किया। आज उन्हीं
के प्रयासों का
परिणाम है कि
हमारा समाज सभ्य
और सुसंस्कृत है।
विवाह के द्वारा
सृष्टि के विकास
में योगदान दिया
जाता है। इसी
से व्यक्ति पितृऋण
से मुक्त होता
है। वहीं
अपने संसाधनों से
ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास
आश्रमों के साधकों
को वाञ्छित सहयोग
देते रहते हैं
। ऐसे सद्गृहस्थ
बनाने के लिए विवाह में प्रचलित कुरीतियों को दूर किया जाना अति आवश्यक है। इस सम्बन्ध में गायत्री परिवार और आर्य समाज द्वारा भी विवाह संस्कार कराये जा रहे हैं, वहीं अभी कोरोना आपदा के समय अधिक संख्या में व्यक्तियों को इकट्ठा होने से बचने के लिए भी जन समुदाय पुनः उन कुरीतियों से स्वतः ही दूर होकर साधारण स्थिति में पारिवारिक सदस्यों के साथ विवाह कार्यक्रम संपन्न कराने लगे हैं।
16. अन्त्येष्टि
संस्कार/श्राद्ध संस्कार – हिंदूओं में किसी
की मृत्यु हो
जाने पर उसके
मृत शरीर को
वेदोक्त रीति से
चिता में जलाने
की प्रक्रिया को
अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि
संस्कार कहा जाता
है। यह हिंदू
मान्यता के अनुसार
सोलह संस्कारों में
से एक संस्कार
है।
श्राद्ध, हिन्दूधर्म के अनुसार,
प्रत्येक शुभ कार्य
के प्रारम्भ में
माता-पिता,पूर्वजों
को नमस्कार प्रणाम
करना हमारा कर्तव्य
है, हमारे पूर्वजों
की वंश परम्परा
के कारण ही
हम आज यह
जीवन देख रहे
हैं, इस जीवन
का आनंद प्राप्त
कर रहे हैं।
इस धर्म मॆं,
ऋषियों ने वर्ष
में एक पक्ष
को पितृपक्ष का
नाम दिया, जिस
पक्ष में हम
अपने पितरेश्वरों का
श्राद्ध,तर्पण, मुक्ति हेतु
विशेष क्रिया संपन्न
कर उन्हें अर्ध्य
समर्पित करते हैं।
यदि कोई कारण
से उनकी आत्मा
को मुक्ति प्रदान
नहीं हुई है
तो हम उनकी
शांति के लिए
विशिष्ट कर्म करते
है।
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