भगवान श्री नरसिंह जी का प्राकट्य
हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु नामक दो असुर भाइयों के कारण समस्त जगत व्याकुल था। हिरण्याक्ष द्वारा पृथ्वी को रसातल में ले जाने पर भगवान विष्णु ने वाराह अवतार धारण कर उसका वध किया। हिरण्याक्ष के वध पर हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हो अपने भाई के वध का बदला लेने एवं अपने आप को अजेय और अमर बनने की इच्छा से हिमालय पर जाकर कई वर्षों तक कठोर तप कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। तब ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया कि उसे किसी अस्त्र शस्त्र से, ब्रह्मा जी द्वारा रचित किसी प्राणी से, रात में, दिन में, जमीन पर, आकाश में,घर में या बाहर, बारह महीनो में से किसी महीने में भी नहीं मारा जा सकेगा ।
जिस समय हिरण्यकशिपु तपस्या करने गया था, उस समय देवताओं ने उसकी राजधानी पर आक्रमण कर राजधानी को लूट लिया, सभी दैत्य भाग गए। तब देवराज इन्द्र ने हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु को बंदी बना कर स्वर्ग की और प्रस्थान किया। कयाधु उस समय गर्भवती थी, भक्त प्रह्लाद उनके गर्भ में थे। प्रह्लाद के तीन बड़े भाई भी थे। जिस समय इन्द्र कयाधु को लेकर जा रहे थे तब रास्ते में देवर्षि नारद जी ने इन्द्र को कयाधु को ले जाने से रोका। तब इन्द्र ने कहा कि कयाधु अभी गर्भवती है और संतान के जन्म लेने के बाद संतान वध उपरान्त उसे छोड़ देंगे। तब देवर्षि नारद ने इन्द्र को बताया कि कयाधु के गर्भ में परम भक्त प्रह्लाद है और देवराज इन्द्र को उनसे कोई भय नहीं होना चहिये। इस प्रकार देवर्षि नारद जी ने कयाधु को बंधनमुक्त करवाया और उसे पति के तपस्या से वापस लौटने तक कोई आश्रय नहीं होने से अपने आश्रम पर ले आए, जहाँ वे कयाधु की पुत्री के समान देखरेख कर उसके गर्भस्थ बालक को लक्ष्य कर भगवत भक्ति का उपदेश भी देते थे, जिन उपदेशों को गर्भस्थ प्रह्लाद ग्रहण करने लगे और प्रभु कृपा से उन उपदेशों को वे भूले भी नहीं।
वरदान प्राप्त कर लौटने पर हिरण्यकशिपु ने सभी देवताओं को जीत लिया और सभी देवताओं एवं ऋषि मुनियो से घोर शत्रुता करते हुए उन्हें प्रताड़ित करने लगा। प्रह्लाद का जन्म हो चुका था, पांच वर्ष की आयु में उन्हें दैत्य गुरु शुक्राचार्य के पुत्रगण षंड और अकर्म के पास शिक्षा प्राप्ति हेतु भेज दिया। एक बार जब प्रह्लाद गुरुकुल से घर आये तब हिरण्यकशिपु ने स्नेहपूर्वक अपनी गोद में उन्हें बैठाकर शिक्षा के बारे में जानकारी लेने पर प्रह्लाद द्वारा अपने पिता को भगवद्भक्ति का उपदेश देते हुवे श्री हरि का आश्रय लेने की बात कहने पर हिरण्यकशिपु बड़ा क्रोधित हुआ और गुरुपुत्रो को सावधान कर प्रह्लाद को दैत्यकुल के उपयुक्त अर्थ, धर्म और काम की शिक्षा प्रदान करने का आदेश दिया।
गुरुकुल में वापस आने पर भी प्रह्लाद की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आए और अब तो वे गुरुकुल के अपने साथियों को भी साथ लेकर धर्म चर्चा और हरि कीर्तन करने लगे। गुरुपुत्र प्रहलाद को डरा धमका कर शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद द्वारा कभी भी अपने गुरुजन का अपमान नहीं किया वे उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का कभी तिरस्कार नहीं कर ग्रहण कर लेते थे। तब गुरुपुत्रों ने उन्हें भली प्रकार से सुशिक्षित समझ हिरण्यकशिपु के पास ले गए। हिरण्यकशिपु ने जब प्रह्लाद से शिक्षा के बारे में जानना चाहा तो फिर प्रह्लाद से हरि नाम कीर्तन एवं हरि भक्ति से परिपूर्ण उपदेश सुनने को मिले जिससे वह गुरुपुत्रों पर अत्यंत ही कुपित हुवा। और प्रह्लाद द्वारा जब गुरुपुत्रों का कोई दोष नहीं होना बताकर अपने पिता को समझाना चाहा तो दैत्यराज के क्रोध की कोई सीमा नहीं रही और उसने अपने क्रुर सभासद दैत्यों को आज्ञा दी कि वे प्रह्लाद का वध कर दें।
हिरण्यकशिपु के आदेश पर क्रुर दैत्यगण बालक प्रह्लाद पर अस्त्र शस्त्र का प्रहार कर वध का यत्न करने पर उनके अस्त्र शस्त्र छिन्न भिन्न होकर टूट गए। प्रह्लाद को विष भी दिया गया जो अमृत हो गया। विषधर सर्पों से भरे कक्ष में उन्हें छोड़ने पर वे सभी सर्प बालक प्रह्लाद के समक्ष झूमने लगे। मदमस्त गजराज के पैरों तले कुचल देने का प्रयास करने पर गजराज ने उन्हें उठाकर अपने मस्तक पर बैठा लिया। बालक प्रह्लाद को पर्वत पर से फेंक दिया गया तो मानो बालक फूलों के ढ़ेर में आ गिरा हो, उठ कर खड़ा हो गया। समुद्र में भारी पत्थरों से बांधकर डुबोने का भी प्रयास भी विफल हो गया और बालक प्रह्लाद मानो खेल खेल में ही सकुशल समुद्र से भी बाहर निकल आया।
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका जिसे वरदान था कि अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, वह भी लकड़ियों के ढ़ेर पर बालक प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बैठी और बालक प्रहलाद को अग्नि में जला देना चाहा किन्तु अग्नि में नहीं जलने वाली होलिका जल गई और बालक प्रह्लाद हरि नाम संकीर्तन करते हुवे उस भयानक दहकती हुई अग्नि में से ही अपने पिता से बोले कि पिताजी मुझे यह अग्नि अति शीतल लग रही है और आप भी हरि नाम का स्मरण कर संसार के समस्त तापों से निर्भय हो जाइये।
गुरुपुत्रों षंड और अकर्म ने प्रह्लाद का वध करने के लिए कृत्या उत्पन्न की तो कृत्या ने भी बालक प्रह्लाद की परिक्रमा कर गुरुपुत्रों का ही वध कर दिया, जिस पर भक्त प्रह्लाद द्वारा भगवान से प्रार्थना कर दोनों गुरुपुत्रों को पुनः जीवित करवाया।
इस प्रकार कई यत्न करने पर भी जब प्रह्लाद का वध नहीं हो सका तो दैत्यराज हिरण्यकशिपु भयभीत हो गया कि कहीं यह नन्हा सा बालक ही उसकी मृत्यु का कारण न हो जाये। ऐसा सोचकर हिरण्यकशिपु ने स्वयं ही प्रह्लाद का वध करने का निश्चय किया और उसने प्रह्लाद को बांध दिया और हाथ में खड्ग लेकर अपने पुत्र को मारने के लिए उद्धत हो गरज कर बालक प्रह्लाद से पूछने लगा कि अब बता तेरा भगवान कहाँ है, भक्त प्रह्लाद ने निर्भिक्ता से कहा कि पिताजी भगवान तो सर्वत्र है, मुझमें, आपमें, इस खड्ग में, उस खंबे में, कण कण में सर्वत्र श्री हरि व्याप्त है।
हिरण्यकशिपु प्रह्लाद के इस प्रकार उत्तर देने पर अत्यधिक कुपित होकर सामने खम्बे की और संकेत कर बोले कि क्या इस खम्बे में भी है, बालक प्रह्लाद द्वारा जैसे ही स्वीकारोक्ति में अपनी गर्दन हिलाकर कुछ कहना चाहा तो प्रह्लाद की बात पूरी होने के पहले ही दैत्यराज अपने सिंहासन उठकर उस खम्बे पर अपना मुष्टि प्रहार किया। दैत्यराज के मुष्टि प्रहार के साथ ही समस्त ब्रह्माण्ड को कम्पायमान कर देने वाला महाभयंकर गर्जना का शब्द हुवा, जिससे समस्त जगत भयभीत हो गया। हिरण्यकशिपु ने देखा कि वह खम्बा दो भागों में फट गया है और उसमें से मनुष्य के शरीर और सिंह के मुख वाली एक अद्भुत भयंकर आकृति नरसिंह रूप में प्रकट हो रही है। भगवान नरसिंह अत्यंत क्रोधित होकर बार बार गर्जना कर रहे थे और उनके प्रचण्ड तेज से दिशाएँ मनो जल रही थी। हिरण्यकशिपु उनसे भयभीत होकर अपने आप को बचाने के लिये भागने लगा।
पुरुषोत्तम मास बैशाख के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी का दिन था, संध्याकाल का वह समय था जिस समय भगवान श्री नरसिंह जी का प्राकट्य हुवा। भगवान श्री नरसिंह जी द्वारा भागते हुवे दैत्यराज हिरण्यकशिपु को पकड़ा और महल के द्वार की देहली पर बैठ हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में पटक दिया और उसका वध करने को तत्पर हो गए, तब हिरण्यकशिपु ने छटपटाते हुवे कहा कि मुझे ब्रह्मा जी ने वरदान दिया है कि मुझे कोई नहीं मर सकता है। तब भगवान श्री नरसिंह बोले कि मेरा जन्म नहीं हुवा, मैं स्वयं प्रकट हुवा हूँ, मैं नर नहीं, पशु नहीं, देव नहीं, दानव नहीं, इस समय दिन नहीं, रात्रि नहीं, संध्याकाल है, तुम घर में नहीं हो और बाहर भी नहीं हो, घर की देहली पर हो, जमीन पर नहीं हो, आकाश में भी नहीं हो, मेरी गोद में हो, बारह महीनों के अतिरिक्त यह तेरहवाँ महीना पुरुषोत्तम मास है, और मेरे पास न अस्त्र है और न शस्त्र है, ऐसा कहते हुवे भगवान श्री नरसिंह जी ने अत्यंत क्रोधित होकर बारम्बार गर्जना करते हुवे अपने तीखे और नुकीले नाखुनों से उस दैत्य का पेट फाड़ कर उसका वध कर दिया।
भगवान श्री नरसिंह जी का वह अत्यंत क्रोधित व उग्र स्वरुप देखकर सभी देवता भयभीत हो गए। उन्हें शांत करने का कोई उपाय न जानकर देवता माता लक्ष्मी के सम्मुख गए और भगवान का क्रोध शांत करने का निवेदन किया। माता लक्ष्मी भी दूर से ही उनका विकराल एवं क्रुद्ध स्वरुप देखकर वापस लौट गई। तब अंत में ब्रह्माजी ने बालक प्रह्लाद को भगवान नरसिंह को शांत करने के लिए भेजा। बालक प्रह्लाद निर्भीक होकर प्रभु के चरणों में गिर गए और उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान श्री नरसिंह जी ने अत्यंत ही स्नेह और प्यार से बालक प्रहलाद उठाकर अपनी गोद में बैठाया और दुलारते हुवे बोले बेटा प्रह्लाद मुझे आने में बहुत देर हो गई तुझे बहुत कष्ट उठाने पड़े।
त्रिभुवन के स्वामी को अपने मस्तक पर हाथ रखकर दुलारने से बालक प्रह्लाद का भी कंठ भर आया और उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति कर गुणगान किया तब भगवान श्री नरसिंह जी का क्रोध शांत हुवा और उन्होंने प्रसन्न होकर बालक प्रह्लाद से वरदान मांगने को कहा तो भक्त प्रह्लाद ने कहा प्रभु मेरे पिता ने सदैव आपसे शत्रुता रखी है इसलिए उनकी दुर्गति न हो और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो तथा मुझे किसी कामना से रहित भगवद भक्ति प्राप्त हो। तब भगवान श्री नरसिंह जी तथास्तु बोले और भक्त प्रह्लाद का राजतिलक कर अंतर्धान हो गए।
भगवान श्री नरसिंह जी के प्राकट्य दिवस के अवसर पर भक्त प्रह्लाद के समान भक्ति प्राप्ति हो, इसी सद इच्छा के साथ भगवान श्री नरसिंह जी के श्री चरणों में सादर दंडवत प्रणाम। जय नरसिंह।
हिरण्यकशिपु के आदेश पर क्रुर दैत्यगण बालक प्रह्लाद पर अस्त्र शस्त्र का प्रहार कर वध का यत्न करने पर उनके अस्त्र शस्त्र छिन्न भिन्न होकर टूट गए। प्रह्लाद को विष भी दिया गया जो अमृत हो गया। विषधर सर्पों से भरे कक्ष में उन्हें छोड़ने पर वे सभी सर्प बालक प्रह्लाद के समक्ष झूमने लगे। मदमस्त गजराज के पैरों तले कुचल देने का प्रयास करने पर गजराज ने उन्हें उठाकर अपने मस्तक पर बैठा लिया। बालक प्रह्लाद को पर्वत पर से फेंक दिया गया तो मानो बालक फूलों के ढ़ेर में आ गिरा हो, उठ कर खड़ा हो गया। समुद्र में भारी पत्थरों से बांधकर डुबोने का भी प्रयास भी विफल हो गया और बालक प्रह्लाद मानो खेल खेल में ही सकुशल समुद्र से भी बाहर निकल आया।
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका जिसे वरदान था कि अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, वह भी लकड़ियों के ढ़ेर पर बालक प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बैठी और बालक प्रहलाद को अग्नि में जला देना चाहा किन्तु अग्नि में नहीं जलने वाली होलिका जल गई और बालक प्रह्लाद हरि नाम संकीर्तन करते हुवे उस भयानक दहकती हुई अग्नि में से ही अपने पिता से बोले कि पिताजी मुझे यह अग्नि अति शीतल लग रही है और आप भी हरि नाम का स्मरण कर संसार के समस्त तापों से निर्भय हो जाइये।
इस प्रकार कई यत्न करने पर भी जब प्रह्लाद का वध नहीं हो सका तो दैत्यराज हिरण्यकशिपु भयभीत हो गया कि कहीं यह नन्हा सा बालक ही उसकी मृत्यु का कारण न हो जाये। ऐसा सोचकर हिरण्यकशिपु ने स्वयं ही प्रह्लाद का वध करने का निश्चय किया और उसने प्रह्लाद को बांध दिया और हाथ में खड्ग लेकर अपने पुत्र को मारने के लिए उद्धत हो गरज कर बालक प्रह्लाद से पूछने लगा कि अब बता तेरा भगवान कहाँ है, भक्त प्रह्लाद ने निर्भिक्ता से कहा कि पिताजी भगवान तो सर्वत्र है, मुझमें, आपमें, इस खड्ग में, उस खंबे में, कण कण में सर्वत्र श्री हरि व्याप्त है।
पुरुषोत्तम मास बैशाख के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी का दिन था, संध्याकाल का वह समय था जिस समय भगवान श्री नरसिंह जी का प्राकट्य हुवा। भगवान श्री नरसिंह जी द्वारा भागते हुवे दैत्यराज हिरण्यकशिपु को पकड़ा और महल के द्वार की देहली पर बैठ हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में पटक दिया और उसका वध करने को तत्पर हो गए, तब हिरण्यकशिपु ने छटपटाते हुवे कहा कि मुझे ब्रह्मा जी ने वरदान दिया है कि मुझे कोई नहीं मर सकता है। तब भगवान श्री नरसिंह बोले कि मेरा जन्म नहीं हुवा, मैं स्वयं प्रकट हुवा हूँ, मैं नर नहीं, पशु नहीं, देव नहीं, दानव नहीं, इस समय दिन नहीं, रात्रि नहीं, संध्याकाल है, तुम घर में नहीं हो और बाहर भी नहीं हो, घर की देहली पर हो, जमीन पर नहीं हो, आकाश में भी नहीं हो, मेरी गोद में हो, बारह महीनों के अतिरिक्त यह तेरहवाँ महीना पुरुषोत्तम मास है, और मेरे पास न अस्त्र है और न शस्त्र है, ऐसा कहते हुवे भगवान श्री नरसिंह जी ने अत्यंत क्रोधित होकर बारम्बार गर्जना करते हुवे अपने तीखे और नुकीले नाखुनों से उस दैत्य का पेट फाड़ कर उसका वध कर दिया।
भगवान श्री नरसिंह जी का वह अत्यंत क्रोधित व उग्र स्वरुप देखकर सभी देवता भयभीत हो गए। उन्हें शांत करने का कोई उपाय न जानकर देवता माता लक्ष्मी के सम्मुख गए और भगवान का क्रोध शांत करने का निवेदन किया। माता लक्ष्मी भी दूर से ही उनका विकराल एवं क्रुद्ध स्वरुप देखकर वापस लौट गई। तब अंत में ब्रह्माजी ने बालक प्रह्लाद को भगवान नरसिंह को शांत करने के लिए भेजा। बालक प्रह्लाद निर्भीक होकर प्रभु के चरणों में गिर गए और उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान श्री नरसिंह जी ने अत्यंत ही स्नेह और प्यार से बालक प्रहलाद उठाकर अपनी गोद में बैठाया और दुलारते हुवे बोले बेटा प्रह्लाद मुझे आने में बहुत देर हो गई तुझे बहुत कष्ट उठाने पड़े।
त्रिभुवन के स्वामी को अपने मस्तक पर हाथ रखकर दुलारने से बालक प्रह्लाद का भी कंठ भर आया और उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति कर गुणगान किया तब भगवान श्री नरसिंह जी का क्रोध शांत हुवा और उन्होंने प्रसन्न होकर बालक प्रह्लाद से वरदान मांगने को कहा तो भक्त प्रह्लाद ने कहा प्रभु मेरे पिता ने सदैव आपसे शत्रुता रखी है इसलिए उनकी दुर्गति न हो और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो तथा मुझे किसी कामना से रहित भगवद भक्ति प्राप्त हो। तब भगवान श्री नरसिंह जी तथास्तु बोले और भक्त प्रह्लाद का राजतिलक कर अंतर्धान हो गए।
भगवान श्री नरसिंह जी के प्राकट्य दिवस के अवसर पर भक्त प्रह्लाद के समान भक्ति प्राप्ति हो, इसी सद इच्छा के साथ भगवान श्री नरसिंह जी के श्री चरणों में सादर दंडवत प्रणाम। जय नरसिंह।
bahut ही अच्छा लिखा है आपने बचपन की याद ताजा हो गई बचपन में सुनने को मिलती थी यह कहानी वाकई आपका प्रयास बहुत अच्छा है आप इसी प्रकार आगे भी लिखते रहें👍👌👏👏👏👏👏
ReplyDeleteApne vistaar purvak bahut accha varnan kiya hai
ReplyDeleteDevendra pendse
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण इस ज्ञानवर्धक जानकारी हेतु सह्रदय आभार।।
ReplyDeletedhanyawaad
Delete👍👍
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete