प्राचीन गुरुकुल की शिक्षा और पर्व - आयोजन
प्राचीन समय में गुरुकुल की शिक्षा पद्धति में संस्कारों के अतिरिक्त व्यक्तित्व निर्माण, पूजा उपासना की विभिन्न पद्धति, रीति की महत्वपूर्ण शिक्षा उपासना के उपकरणों के माध्यम से, विभिन्न देवी देवताओं के रहस्य, अवतारों, उनके आयुधों के आधार पर दी जाती थी। हमारे ऋषि मुनियों ने सिर्फ इतना ही नहीं किया बल्कि उन्होंने समाज को उन्नत और सुविकसित बनाने, उसमे सामूहिकता, ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा से कार्य करने, नागरिकता के कर्तव्य एवं दायित्वों के आधार पर परमार्थ परायणता, देशभक्ति और लोकमंगल की प्रेरणा की ऊर्जा प्रदान करने के लिए जिस दूरदर्शी प्रणाली का अविष्कार किया वह प्रणाली है - पर्व - आयोजन।
भारतीय संस्कृति में व्रतों तथा जयंतियों की भरमार है, जिनमें जहां व्रत अपने व्यक्तिगत जीवन को पवित्र बनाने के लिए है वहीं जयंतियां महामानवों से उनकी जीवनशैली से प्रेरणा ग्रहण करने के लिए है। व्रत और जयंतियां संयम, उपवास, ब्रह्मचर्य, एकांतवास और मौन आदि के माध्यम से आत्मनिरीक्षण करना तो सिखाते ही हैं साथ ही दुर्गुणों को त्यागने और सद्गुणों को अपनाने के लिए देवपूजन के माध्यम से संकल्पित होकर व्यक्तित्व को सुधारने में सहायक होते हैं। पर्व - आयोजन एक माध्यम है व्यक्ति को अध्यात्म का मर्म समझाने, सत्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने के साथ गुण, कर्म और स्वभाव का विकास करने और साथ ही त्योहारों को सपरिवार मनोरंजक तरीके से उद्धेश्यों के साथ मनाने का । पर्व त्यौहार जन जन में नैतिकता और सच्चरित्रता के भावॉ को विकसित करते हैं।
स्वामी विवेकानंद जी ने एक बार भारतीय संस्कृति में पर्व प्रथा के महत्त्व को बताते हुवे अपने एक उदबोधन में कहा था कि वर्ष में कई व्रत, पर्व पड़ते हैं, युगधर्म के अनुसार उनमें से सिर्फ दस पर्वों के उद्देश्य को जानकर उन्हीं का निर्वाह कर लिया जाय तो अति उत्तम है -
(1) दीपावली - वर्षा ऋतु के बाद सम्पूर्ण साफ सफाई कर अपने घर को स्वच्छ करते हुवे अपनी तथा अपने परिवार के स्वास्थ्य की सुरक्षा करते हुवे सामूहिक रूप से एकजुट होकर अँधेरी रात्रि को भी जगमग कर देने की शिक्षा के साथ ही लक्ष्मी के उपार्जन और उसके उपयोग की मर्यादाओं का भी बोध कराता है। इसके अलावा यह पर्व गौ रक्षा और गौसंवर्धन करने का भी हमें एहसास कराता है।
(2) गीता जयंती - भगवान श्री कृष्ण जी द्वारा प्रदत्त गीता के ज्ञान योग और कर्म योग का समारोहपूर्वक प्रचार प्रसार करते हुवे स्वयं भगवान द्वारा गीता में बताये गए तरीके से उस मार्ग पर स्वयं चलने और अन्य को चलने प्रेरित करने का कार्य किया जा सकता है।
(3) बसंत पंचमी - शीत ऋतु के समापन के बाद बसंत ऋतु में प्रकृति में आये उल्लास और निखार की तरह सदैव ही उल्लासित एवं प्रफुल्लित मनःस्थिति बनाये रखना और साहित्य, संगीत के साथ ही अपनी कला का सही उपयोग करते हुवे उनके ज्ञान को भी सही दिशा या धारा प्रदान करना।
(4) शिव रात्रि - भगवान शिव और उनसे संबंधित समस्त कार्य, वस्तु, गण, वाहन एवं विशेषताओं में जो भी सत्प्रवृति अथवा प्रेरणाओं का समावेश है उनको एवं उनके रहस्यों को अच्छी तरह समझना और फिर उस रहस्य से अन्य लोगों को अवगत कराना और अपने जीवन में उन विशेषताओं को समाहित कर लेने की समझ प्रदान करने का कार्य किया जा सकता है।
(5) होली - नवीन फसल अथवा नव खाद्यान्न उत्पन्न होने के बाद सामूहिक वार्षिक यज्ञ होली के माध्यम से संपन्न करते हुवे बैर भाव को भूलकर आपसी सामंजस्य के साथ पर्व मनाना तथा भक्त प्रह्लाद की कथा का स्मरण करते हुवे दुष्प्रवृतियों का उन्मूलन करते हुवे सत्प्रवृतियों को बढ़ाने का कार्य किया जा सकता है।
(6) गंगा दशहरा - राजा भागीरथ के गंगा को धरती पर लाने के उच्च उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुवे उनके तप से प्रेरणा लेते हुवे सदबुद्धि और सत्कार्य करने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर स्वयं तो कार्य करे साथ ही अन्य को भी इसके लिए प्रेरित करना।
(7) व्यास पूर्णिमा अथवा गुरु पूर्णिमा - गुरु तत्व के महत्त्व को जानते हुवे अपने अपने गुरुजनों के प्रति श्रद्धा, समर्पण और आदर भाव रखना साथ ही उनमे उत्तरोत्तर अभिवृद्धि स्वयं भी करते रहना और अन्य को भी प्रेरित करना। इसके अलावा स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था कर स्वयं तो लाभान्वित होना ही अन्य को भी करना।
(8) श्रावणी, रक्षा बंधन - भाई बहन के रिश्ते के साथ ही भाई एवं बहन दोनों की ही रक्षा की शिक्षा तो देता ही है इसके अलावा अपने पापो का प्रायश्चित्त करने हेतु विधिपूर्वक संकल्पित होकर हेमाद्रि कर पवित्र यज्ञोपवीत को धारण किया जाता है।
(9) पितृ कार्य - अपने अपने पूर्वजों के प्रति आदर भाव रखते हुवे उनके प्रति कृतज्ञता और अभिव्यक्ति हेतु श्राद्ध कार्य करना और तर्पण आदि करते हुवे अपने परिवार और कुटुंब के अतीत महामानवों का स्मरण करते हुवे उन्हें श्रद्धांजलि अर्पण करना।
(10) विजयादशमी - असुरों पर देवों की विजय के रूप में मनाया जाने वाला यह पर्व बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय की शिक्षा देता है तदनुसार अनुसरण तो करना ही है साथ ही शस्त्र एवं शक्ति संगठन की आवश्यक्ताओं एवं अनिवार्यताओं का भी स्मरण कराता है।
इसके अतिरिक्त रामनवमी, जन्माष्टमी, हनुमान जयंती, गणेश चतुर्थी के साथ ही कई मुख्य एवं क्षेत्रीय पर्व हैं जिन सभी पर्वों में कई तरह की शिक्षाऐं और प्रेरणायें हैं जिनसे हमें शिक्षा तो लेनी ही है अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी उससे अवगत कराते रहना है। गुरुकुल की शिक्षा पद्धति में घरों में कथा कहानियों के द्वारा नीति, धर्म, संस्कार एवं सदाचार की उपयोगिता से जन जन को अवगत कराने की सार्वजानिक लोक शिक्षण की पद्धति का प्रचलन रहा है। धार्मिक मेले, पर्व स्नान और तीर्थों की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भी यही होता था कि बड़ी संख्या में जन मानस एकत्रित हो और वे परस्पर विचार विमर्श करते हुवे आपस में एक दूसरे का मार्गदर्शन कर सामयिक और सामाजिक समस्याओं का निराकरण करे साथ ही भावी योजनाऐं बना सकें, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्र एकता से सूत्र में बंधा रहे।
हमारे ऋषि मुनि ऐसे कई विशाल ज्ञानसत्र चलाते रहते थे जिनमें हजारों मुनिगण ज्ञान संवर्धनार्थ सम्मिलित होकर ज्ञानार्जन करते थे। बालकों के नवनिर्माण के लिए गुरुकुल के समकक्ष निवृत व्यक्तियों के सानिध्य में पठन पाठन लोक शिक्षण की योजनाऐ निर्मित होती थी। आज के समय की अनिवार्य आवश्यकता है ऐसे ही गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को अपनाने की। समस्त ऋषि तुल्य संत महात्माओं, विद्वानों, समाज सुधारकों, लोक सेवियों से प्रार्थना है कि वे समय, काल, परिस्थिति के अनुकूल आधुनिक शिक्षा प्रणाली में योग्य परिवर्तन के प्रयास करें जिससे ज्ञान संस्कारों से दीक्षित लोग समाज में प्रवेश कर देव-मानवों की संस्कृति को पुनर्जीवित कर सके। मेरा भी प्रयास है आप भी अपना अपना प्रयास करें। जय श्री कृष्ण - दुर्गा प्रसाद शर्मा।
प्राचीन समय की शिक्षा पद्धति एवं संस्कारों को आज की शिक्षा प्रणाली में सिखाया जाए तो बच्चा शायद ही कोई गलत मार्ग चलेगा बच्चों में शुरू से ही संस्कार रहेंगे तो वह कभी जीवन में गलत कार्य नहीं करेगा
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