हमारी प्राचीन व्यवस्थाऐ और वैज्ञानिक धारणाऐ


वर्तमान के कोरोना काल में जिन व्यवस्थाओं से हम रूबरू हो रहे हैं उसमें सहसा हमें अपने दादा दादी वाले समय की स्मृति हो जाती है कि उन्होंने किस प्रकार की व्यवस्थाऐं बना रखी थी कि दैनिक जीवन में आपको क्या करना है क्या नहीं करना है। अपने जुते चप्पल कहाँ उतारना है, बाहर के कपड़े कहाँ रखना है, कैसे भोजन करना है, अपनी दिनचर्या किस प्रकार रखना है, घर से बाहर जाने पर बगैर नहाये रसोई में प्रवेश नहीं करना आदि मर्यादाएँ और पाबंदियाँ उस समय हमें बड़ी बुरी लगती थी किन्तु आज हम उन्हीं मान्यताओं का अनुसरण कोरोना के भय के कारण कर रहे हैं, ऐसे में लगता है कि हम गलत हैं या हमारे बुजुर्ग गलत थे।  हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए अपने अनुभवों का अद्भुत ज्ञान हमें विरासत में प्रदान किया है किन्तु हम उसे अपना नहीं पा रहे हैं या यह कहें कि आज के आधुनिक युग में हम पिछड़े हुए कहलाना नहीं चाहते हैं।  


हमारी प्राचीन व्यवस्थानुसार किसी के यहाँ मृत्यु के समय सूतक लगना माना जाता था और कोई उनके घर में प्रवेश नहीं करता था, प्रायः वृद्धावस्था में बीमारी आदि होने के बाद मृत्यु होने पर रोग कहीं फैले नहीं इसलिए 14 दिन का क्वारंटाइन पीरियड बनाया गया था शवदाह करने वाले को अलग ही रखा जाता था, उसके कपडे बिस्तर खाना पीना भी अलग कर दिया जाता था  और शुद्धिकरण के बाद ही स्थिति सामान्य होती थी।  शवयात्रा से आने के बाद बाहर ही स्नान करने और कपडे धोने के बाद घर में आने दिया जाता था।  बाहर से आने वाले के पैर धुलवाकर घर में प्रवेश दिया जाता था। रजस्वला स्त्री को चार दिनो तक एकांत में इसलिए रखा जाता था कि वह स्वयं भी किसी बीमारी से बचे और आप भी। हमारे शास्त्रों और वेदों की व्यवस्थाओं और उनकी सार्थकता पर हम सदैव ऊँगली उठाते रहे, मजाक उड़ाते रहे, ब्राह्मणवाद या मनुवाद कह कर आलोचना करते रहे, उसकी महत्ता को नजरअंदाज कर उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करते रहे। यह बात हमें  समझ आ रही है और आज हम इसे विज्ञान बोलकर अपना भी रहे हैं । 

आज भी पुरी के जगन्नाथ मंदिर में एक प्रथा है जिसमे भगवान भी बीमार पड़ जाते हैं और उन्हें भी 14 दिन एकांत में रखा जाता है।  ये सभी व्यवस्थाऐं इस बात की शिक्षा के लिए है कि हमें अपना जीवन कैसे जीना है।  इसके अतिरिक्त और भी कई दैनिक जीवन के लिए आवश्यक और शिक्षाप्रद व्यवस्थाऐं हमारे पूर्वज विरासत में छोड़ गये हैं जिन्हें आज का विज्ञान भी मान रहा है, ऐसे में आवश्यकता है मनन का उन्हें अपनाने की।  

इसी प्रकार हमारे सनातन धर्म में एक मान्यता यह भी है कि एक गोत्र में शादी नहीं की जा सकती है।  जिसे आज का विज्ञान भी स्वीकार कर रहा है । डिस्कवरी चैनल पर एक बार जेनेटिक बीमारियों से सम्बंधित एक ज्ञानवर्धक कार्यक्रम में एक अमेरिकी वैज्ञानिक ने कहा कि जेनेटिक बीमारी नहीं हो इसका एक ही इलाज सेपरेशन ऑफ जींस है अर्थात अपने नजदीकी रिश्तेदारों में विवाह नहीं करना चाहिए क्योंकि नजदीकी रिश्तेदारों में जींस सेपरेट नहीं हो पाता है और जींस से सम्बंधित बीमारियां होने की प्रबल सम्भावना होती है। फिर उसी कार्यक्रम में यह भी बताया गया कि हजारों साल पहले जींस और डीएनए के बारे में हिंदुस्तान में इतना सटीक कैसे लिखा गया उन्होंने यहां तक कहा कि आज पुरे विश्व को मानना होगा कि सनातन धर्म ही विज्ञान पर आधारित विश्व का एकमात्र धर्म है । सनातन धर्म में गोत्र व्यवस्था समान जींस की होती थी और उसी कारण से सह गोत्र में विवाह वर्जित होता था ताकि जींस सेपरेट ही रहे। 

हमारे सनातन धर्म में कान छिदवाने की भी परम्परा है, जो कि सोलह संस्कारों में से एक है जिसके बारे में भी कहा जाता है कि  इससे सोचने की शक्ति में वृद्धि  होती है और डॉक्टरो का कहना है कि  इससे बोली अच्छी होती है तथा कानों से दिमाग तक जाने वाली नसों में रक्त संचार ठीक रहता है। ऐसी प्रकार माथे पर तिलक लगाने की जो परम्परा है उसके बारे में भी वैज्ञानिक मान्यता है कि आँखों के  बीच जो नस माथे पर होती है तिलक लगाने से उस जगह की ऊर्जा बनी रहती है।  तिलक लगाते समय ऊँगली या अंगूठे से जो प्रेशर पड़ता है उससे चेहरे की त्वचा की कोशिकाओं  को रक्त सप्लाई अच्छी तरह से होता है और चेहरे की मांसपेशियां सक्रिय होती है।   

हम जब किसी से मिलते है और हाथ जोड़कर नमस्ते या नमस्कार करते हैं तो उस स्थिति में सभी उंगलियों के शीर्ष एक दूसरे से संपर्क में आते हैं और दबाव पड़ने से उसका सीधा असर हमारी आँख, कान और दिमाग पर होता है ताकि हम उस व्यक्ति को लम्बे समय तक याद रख सकें। इसी प्रकार से हाथ मिलाने की बजाय हाथ जोड़कर नमस्ते करने से सामने वाले के शरीर के कीटाणु हमसे दूर ही रहेंगे, जैसा कि आज कोरोना काल में हो रहा है। जमीन पर पालथी मारकर बैठकर भोजन करने वाली स्थिति भी योगासन की स्थिति है और उससे मस्तिष्क शांत रहता है जिससे पाचन क्रिया ठीक होती है। भोजन की शुरुआत तीखे से और आखिर में मीठा खाने के पीछे भी वैज्ञानिक मान्यता है कि पहले तीखा खाने से हमारे पेट में पाचन तत्व एवं अम्ल सक्रिय हो जाते है उससे पाचन क्रिया ठीक होती है तथा आखिर में मीठा खाने से अम्ल की तीव्रता काम हो जाती है जिससे पेट में जलन नहीं होती है। 

हमारे सनातन धर्म में दक्षिण की और पैर नहीं करके सोने की मान्यता के पीछे वैज्ञानिक तर्क है कि उत्त्तर की और सिर करके सोने से हमारा सिर पृथ्वी की चुंबकीय तरंगों की परिधि में आ जाता है, जिससे शरीर में मौजूद आयरन दिमाग की ओर संचारित होने लगता है, जिससे ब्लड प्रेशर सहित कई बीमारियां होने का खतरा बढ़ जाता है। सूर्य नमस्कार करने से आँखों की रोशनी अच्छी होना डॉक्टर भी मानते है। सिर पर चोटी रखने की मान्यता पर वैज्ञानिकों का मानना  है कि चोटी वाले स्थान पर दिमाग की सारी नसें आकर मिलती है, चोटी से दिमाग स्थिर रहता है, क्रोध नहीं आता है तथा सोचने की क्षमता बढ़ती है। व्रत रखने से  जहां पाचन क्रिया ठीक होती है वहीं फलाहार से शरीर से ख़राब तत्व बाहर हो जाते है तथा कई प्रकार की बीमारियों से बचा जा सकता है।  अभी कुछ समय पहले नोबल पुरुस्कार प्राप्त शोधकर्ताओं ने यह मत भी व्यक्त किया कि वर्ष में 20 दिन अन्न का त्याग कर देने से कैंसर जैसी बीमारी को भी दूर किया जा सकता है।  

सनातन धर्म की मान्यता अनुसार चरण स्पर्श करना जहां बड़े बुजुर्गों का सम्मान दर्शित करता है वहीं एक से दूसरे में ऊर्जा प्रवाह का कारण वैज्ञानिकों ने माना है। महिलाओं की मांग में भरा जाने वाला सिंदूर से कई बीमारियों और विकारो से बचाव भी वैज्ञानिको ने माना है। तुलसी पूजन एवं तुलसी खाने से इम्यून सिस्टम मजबूत होता है वहीं कई प्रकार की बीमारियों से भी  बचा जा सकता है। सुख, शांति और समृद्धि तो धार्मिक मान्यता है ही। बरगद पीपल आदि वृक्षों की पूजन पर्यावरण रक्षण का द्योतक है।  इसके अलावा भी काफी प्राचीन परम्परा हमारी है जिनको आज का विज्ञान भी मान्यता प्रदान करता है। इस कारण आवश्यकता है कि  हमें अपनी प्राचीन सभ्यता का सम्मान करते हुए उनसे विमुख नहीं होना है।   

        






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