मानवता
मानवता शब्द भले ही छोटा सा हो किन्तु इसका तात्पर्य काफी गहराई लिए हुऐ है। जैसा कि हमारे सनातन धर्म में कहा गया है कि मानव जीवन बड़ा ही दुर्लभ होता है, और मानव जीवन यदि सुधर गया तो ईश्वरीय शक्ति प्राप्ति, मोक्ष प्राप्ति और नहीं सुधरा तो अधोगति। मानव जीवन में व्यक्ति मात्र आहार, निंद्रा, आमोद प्रमोद तक ही सीमित न रहे और उससे हटकर यदि कार्य करे तो सही मायने में जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकता है, और इसके लिए उसे मानवता का आश्रय लेना अत्यंत ही आवश्यक है। आजकल कई लोग सिर्फ दया भाव को ही मानवता मानते हैं तथा पाश्चात्य संस्कृति से आकर्षित होकर सनातनी और शास्त्रोक्त आचार विचार की प्रवृति को मानवता के विरुद्ध मानते हैं। जबकि सनातन धर्म अनुसार सदाचार, परोपकार, दया, अहिंसा, सेवा, त्याग, भक्ति आदि मानवोचित सद्गुणों पर आधारित कार्य एवं व्यवहार ही मानवता माने गए हैं।
हमारे शास्त्रों और पुराणों में तो इसी बात पर अधिक बल दिया गया है कि मानव कैसे श्रेष्ठ मानव बने और मानव कैसे मानवता का आश्रय लेकर स्वयं तथा विश्व का कल्याण करें। प्राचीन गुरुकुलों में भी यही पाठ पढ़ाया जाता था, किन्तु पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने हमें हमारी संस्कृति, शिक्षा, वेद, पुराण आदि से तो दूर कर दिया साथ ही हमारे आचार विचार और व्यवहार को भी दूषित कर दिया। जिससे सर्वत्र अशांति और संघर्ष व्याप्त हो गया है। सदाचार करते हुवे सनातन धर्म को मानते हुए, प्राचीन संस्कृति का अनुसरण करते हुए, वेद पुराण के निर्देशों का पालन करते हुए परमात्मा का स्मरण आराधना और सत्कार्य करना ही समस्त मानवों का प्रथम तथा प्रमुख कर्तव्य है।
इसके अलावा अपने कुटुंबजन जिनमें माता पिता, भाई बहन, काका काकी, ताऊ ताई, दादा दादी, पति पत्नी, बच्चे आदि के साथ सद्भाव एवं समभाव रखते हुए आचरण करना भी अत्यंत ही आवश्यक है। माता पिता तथा वृद्धजनो की कभी उपेक्षा न करे, अपितु यह विचार करें कि जब मैं छोटा सा सर्वथा असमर्थ बच्चा था, उस समय जिन स्नेहमयी माता की ममतामयी और मधुरतामयी गोद में लेटकर आनंदित होता था, जिसके अमृतमय स्तनपान करते हुए पैरों के आघातो से उसे पीड़ित करता रहा फिर भी इस ममतामयी माता ने अपना सुख त्याग कर मुझे दुखी नहीं होने दिया और बड़े लाड प्यार से मेरा लालन पालन किया। मेरे जिन पिता ने अपनी ख़ुशी और अरमानों का दमन कर मेरे लिये श्रेष्ठ सुख सुविधाऐं उपलब्ध कराई, आज वे मेरे पूजनीय जनक व जननी वृद्ध और असहाय हो गए हैं , इस कारण मेरे द्वारा मेरे वे वंदनीय माता पिता किसी भी प्रकार से पीड़ित नहीं हों बल्कि सेवा सत्कार से सदैव संतुष्ट रहें। पुत्र पिता के प्रतिकूल कार्य न कर अनुकूल कार्य करे। पति पत्नी भी आपस में प्रेम सदभाव में रहे। एक दूसरे से कटु वाणी में न बोले। भाई भाई और भाई बहनों में किसी प्रकार का राग द्वेष न रहे।
जिस प्रकार व्यक्ति अपना अनिष्ट कभी नहीं चाहता है, उसी प्रकार समाज में किसी का भी अनिष्ट कभी नहीं करें और न चाहें। आपसी वैमनस्य को छोड़कर अपना मन सदैव अच्छे संस्कारो, विचारो, संकल्पों तथा पवित्र भावना से भरपूर रख अपना कार्य व्यवहार करता रहे। सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय की भावना रखते हुए मन, वचन और कर्म से समभाव रखते हुए सत्कार्यों में लगे रहे। जैसे हम अपने सुख की सदैव ही कामना करते है, कभी दुःख की कामना नहीं करते, उसी प्रकार किसी अन्य के लिए भी दुःख की कामना नहीं करें। कुमति को त्याग कर सुमति को ग्रहण करने से सभी सदभाव और सद आचरण स्वतः ही प्राप्त हो जाते है, गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस में कहा है कि जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तहँ विपत्ति निदाना। छल कपट, विश्वासघात, अनिष्ट, स्वार्थ, शत्रुता आदि दुर्गुणों को त्याग कर मैत्रैय भाव रखकर आचरण हो। श्रम द्वारा अर्जित धन ही श्रेष्ठ माना गया है। अनीति अथवा अनधिकृत रूप से कभी धनार्जन नहीं करें।
भारत एक प्राचीन तथा ऋषि मुनियों का देश है। यहां की सभ्यता और संस्कृति बड़ी उदार और महान रही है। बुजुर्गों और गुरुजनों का आदर, गरीबों की सहायता, सच्चाई, ईमानदारी और सदाचार का बोलबला था। नीच और बुरे कर्मो को घृणा की दृष्टी से देखा जाता था। पतित मनुष्य को भी सदुपदेश देकर तथा प्रेम से सत्मार्ग पर लाया जाता था। उस समय त्याग, तपस्या, नम्रता, आदर और संतोष से माध्यम से आत्मविश्वास को सर्वश्रेष्ठ माना जाता था, पर जैसे जैसे समय बीतता गया आपसी कलह, फूट, वैमनस्यता फैलती गई। दिनोदिन मनुष्य की इच्छाऍ आवश्यकताऐं बढ़ती गई और उसके साथ साथ मानवता में कमी आती गई।
भारत को आदर्श बनाने में धर्म का विशेष योगदान रहा है और भारतवासियों में जन्म से ही धार्मिक वृतियों का आश्रय होने से ही भारतीयों में मानवता का संचार हुआ। समय के साथ साथ मनुष्य पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आया और धर्म से विमुख होता गया तथा स्वार्थ वृति बढ़ती गई, जिससे मानवता का पतन होने लगा। परिवार में रहकर भी परिवार से विमुख होना, देश में रहकर देश का सम्मान नहीं करना जैसी स्थितियां निर्मित होने लगी। आज के समय की यह मांग है कि मनुष्यों में विशेषकर भारतवसियों में पुनः मानवता का संचार हो, जोकि दुर्विचारों और दुष्कर्मों के कारण दबी पड़ी है। यदि सच्चाई और ईमानदारी से दबी हुई मानवता को उभारा जाय तो लुप्तप्राय मानवता पुनः जागृत होगी। इस युग में विभिन्न विचारों और विपरीत आदर्शों के कोलाहल में हमें फिर से मानवता के पुरातन सिद्धांतो का मनन करना है।
भारत एक प्राचीन तथा ऋषि मुनियों का देश है। यहां की सभ्यता और संस्कृति बड़ी उदार और महान रही है। बुजुर्गों और गुरुजनों का आदर, गरीबों की सहायता, सच्चाई, ईमानदारी और सदाचार का बोलबला था। नीच और बुरे कर्मो को घृणा की दृष्टी से देखा जाता था। पतित मनुष्य को भी सदुपदेश देकर तथा प्रेम से सत्मार्ग पर लाया जाता था। उस समय त्याग, तपस्या, नम्रता, आदर और संतोष से माध्यम से आत्मविश्वास को सर्वश्रेष्ठ माना जाता था, पर जैसे जैसे समय बीतता गया आपसी कलह, फूट, वैमनस्यता फैलती गई। दिनोदिन मनुष्य की इच्छाऍ आवश्यकताऐं बढ़ती गई और उसके साथ साथ मानवता में कमी आती गई।
भारत को आदर्श बनाने में धर्म का विशेष योगदान रहा है और भारतवासियों में जन्म से ही धार्मिक वृतियों का आश्रय होने से ही भारतीयों में मानवता का संचार हुआ। समय के साथ साथ मनुष्य पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आया और धर्म से विमुख होता गया तथा स्वार्थ वृति बढ़ती गई, जिससे मानवता का पतन होने लगा। परिवार में रहकर भी परिवार से विमुख होना, देश में रहकर देश का सम्मान नहीं करना जैसी स्थितियां निर्मित होने लगी। आज के समय की यह मांग है कि मनुष्यों में विशेषकर भारतवसियों में पुनः मानवता का संचार हो, जोकि दुर्विचारों और दुष्कर्मों के कारण दबी पड़ी है। यदि सच्चाई और ईमानदारी से दबी हुई मानवता को उभारा जाय तो लुप्तप्राय मानवता पुनः जागृत होगी। इस युग में विभिन्न विचारों और विपरीत आदर्शों के कोलाहल में हमें फिर से मानवता के पुरातन सिद्धांतो का मनन करना है।
Comments
Post a Comment