गुरु भक्त एकलव्य
निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य धनुर्विद्या के ज्ञान प्राप्ति की अभिलाषा लिए सर्वश्रेष्ठ आचार्य और कौरव पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य जी के पास पंहुचा और उनके चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। आचार्य द्रोण द्वारा जब उससे आगमन का कारण पूछा जाने पर बालक एकलव्य ने अपनी धनुर्विद्या प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की, जिससे आचार्य द्रोण संकोच में पड़ गए क्योंकि कौरव और पांडव राजकुमारों को वे शस्त्र शिक्षा दे रहे थे और उसके लिए वे भीष्म पितामह से वचनबद्ध भी थे। इसके अलावा राजकुमारों के साथ एक निषाद बालक को शिक्षा देने में किसी प्रकार की असामान्य स्थिति भी वे निर्मित नहीं होने देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बालक एकलव्य को धनुर्विद्या की शिक्षा प्रदान करने में असहमति बताई।
बालक एकलव्य ने तो आचार्य द्रोण को अपना गुरु मान ही लिया था और गुरु की किसी बात की अवहेलना या गुरु की किसी बात पर रोष या दोष व्यक्त नहीं कर उनकी बात से वह निराश भी नहीं हुआ। बालक एकलव्य ने जाते जाते पुनः आचार्य द्रोण को साष्टांग दंडवत प्रणाम करके कहा कि भगवन मैंने तो आपको अपना गुरु मान लिया है, किन्तु मेरे किसी भी काम से आपको कोई संकोच हो यह मैं भी नहीं चाहता हूँ।
बालक एकलव्य आचार्य द्रोण के आश्रम से लौटकर अपने घर नहीं गया होकर वह वन में चला गया और वहीँ एक कुटिया बना कर रहने लगा। बालक एकलव्य ने वहीं आचार्य द्रोण की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर स्थापित की और प्रतिदिन आचार्य द्रोण की प्रतिमा को नमन करके प्रतिमा के ही सामने अपनी धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। कहते हैं कि जब सच्चे मन से यदि किसी कार्य को करने की ठान ली जाय तो ईश्वर भी सहायता प्रदान करते हैं। जहाँ अविचल श्रद्धा और दृढ़ निश्चय होता है वहाँ भगवान गुरु रूप में या बिना बाहरी गुरु के भी ज्ञान का प्रकाश कर देते हैं। समय बीतता गया और बालक एकलव्य का अभ्यास निर्बाध रूप से चलता रहा और इस प्रकार से वह एक महान धनुर्धर बन गया।
एक बार आचार्य द्रोण अपने शिष्यों को धनुर्विद्या का अभ्यास कराने के लिए आखेट के लिए वन में लेकर गए। उसी समय संयोगवश उनके साथ का एक कुत्ता भटक कर एकलव्य के स्थान पर जा पंहुचा। एकलव्य जिसका कि रंग काला था और उसके केश भी काफी बढ़ गए थे, वस्त्रों के नाम पर वाघचर्म धारण किये हुए अपना अभ्यास कर रहा था। बालक एकलव्य की विचित्र वेशभूषा देख वह कुत्ता भौकने लगा, जिसके कारण एकलव्य को उसके अभ्यास में बाधा होने लगी तो उसने सात बाण चलाकर कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। कुत्ता उसी स्थिति में भागता हुआ जब वापस लौटा तो सभी ने बड़े ही आश्चर्य से उस कुत्ते को देखा कि उन बाणो से कुत्ते को किसी भी प्रकार की कोई चोट नहीं पंहुची है और वे सभी बाण आड़े तिरछे होकर कुत्ते के मुँह में इस प्रकार से फंसे हैं कि वह भौक नहीं सकता है। बिना चोट पंहुचाये कुत्ते के मुंह को बाणों से इस प्रकार भर देना बहुत बड़ा कौशल था।
अर्जुन ने उस कौशल को देखकर आचार्य द्रोण से कहा कि गुरुदेव आपने तो कहा था कि संसार में मुझे सबसे बड़ा धनुर्धर बना देंगे किन्तु यह कौशल तो मुझमें भी नहीं है। उसके बाद सभी लोग बाण चलाने वाले को खोजते हुवे वन में स्थित एकलव्य की कुटिया तक जा पंहुचे। आचार्य द्रोण को देखकर बालक एकलव्य उनके चरणों में आकर गिर गया। आचार्य द्रोण ने पूछा कि इस कुत्ते पर बाण तुमने चलाये तो एकलव्य बोले गुरुदेव इसके भौकने से मेरे अभ्यास में व्यवधान हो रहा था, इस कारण यह कार्य मुझसे ही हुआ है, जिसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। तब आचार्य द्रोण ने पूछा कि तुमने धनुर्विद्या का इतना उत्तम ज्ञान किससे प्राप्त किया तो बालक एकलव्य विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर बोले भगवन मैं तो आपके श्री चरणों का दास हूँ, फिर उसने आचार्य द्रोण को उनकी मिट्टी से बनी प्रतिमा बताकर कहा कि आपने ही तो मुझे यह विद्या प्रदान की है।
यह सब देखकर आचार्य द्रोण बोले मुझसे शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी तुमने मुझे गुरु दक्षिणा नहीं दी है। गुरु दक्षिणा की बात सुनते ही बालक एकलव्य बोला गुरुदेव आप आज्ञा करें। आचार्य द्रोण बोले मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए। दाहिने हाथ का अंगूठा अर्थात आप समझ सकते हैं की यदि दाहिने हाथ का अंगूठा ही नहीं रहा तो बाण चलाया ही नहीं जा सकता, इतने दिनों की अभिलाषा, इतना कठिन परिश्रम, इतना अभ्यास सब कुछ व्यर्थ होने जा रहा था किन्तु बालक एकलव्य के मुख पर खेद की एक रेखा तक नहीं आई और उस वीर गुरु भक्त बालक एकलव्य ने अपने बांये हाथ में तलवार लेकर तुरंत ही अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर अपने हाथों से आचार्य द्रोण को गुरु दक्षिणा के रूप में समर्पित कर दिया। आचार्य द्रोणका भी कंठ भर आया और वे बोले पुत्र धनुर्विद्या के अनेकों ज्ञाता हुए हैं और आगे भी होंगे किन्तु मैं तुम्हे आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे इस त्याग का सुयश सदैव ही याद किया जाता रहेगा। गुरुभक्त बालक एकलव्य को दुर्गा प्रसाद शर्मा का नमन। .
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