संत श्री सिंगा जी


संत सिंगा जी निमाड़ मध्य प्रदेश के महान संत हो गए हैं।  निमाड़ की जनता आज भी  उनके द्वारा रचित भजनों का  बड़े ही प्रेम और भक्तिभाव से गान करती है।  पिपलिया के पास घने जंगल मेँ नदी के तट पर संत सिंगा जी ने समाधि ली थी, प्रतिवर्ष आश्विन माह में इनके समाधिस्थल पर आज भी बहुत बड़ा मेला लगता है।  जहाँ लाखों की संख्या में जनता अपना मस्तक नवाने के लिए जाती है।  संत सिंगाजी के कई भक्तजन आज भी अपने कई कामों के लिए विशेषकर पशुओं के खो जाने या पशुओं की किसी समस्या के लिए संत सिंगा जी से मन्नत लेकर कार्य सिद्धि पर मन्नत उतारने उनके समाधिस्थल पर पंहुचते है।  


संत सिंगा जी का जन्म  मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के खजुरी गांव में एक पशुपालक ग्वाल परिवार में हुआ था।  इनके पिता का नाम भीमा जी और माता का नाम गौराबाई था।  इनके जन्म के ५-६ वर्ष बाद  इनके माता पिता अपने पशुधन सहित हरसूद में रहने चले गए थे।  बचपन में सिंगाजी अपने पशुओं को चराने जंगल में जाते रहते थे और पशुओं से उन्हें अत्यधिक प्रेम था। 

संत सिंगाजी भानगढ़ के राव साहब के यहाँ पत्र वाहक का काम किया करते थे।  वे राव साहब के अति विश्वासपात्र थे।  संत सिंगाजी का मन अपने बचपन में ही संसार से विरक्त हो गया था।  एक बार वे हरसूद से भानगढ़ राव साहब के कर्मचारी के रूप में घोड़े पर सवार होकर जा रहे थे, तब रास्ते में उन्हें ब्रह्मगिर महाराज के शिष्य मनरंगीर जी के दर्शन हुवे, जो भक्ति में लीन भगवद भजन कर रहे थे।  उस समय संत सिंगाजी के मन में सोया हुआ वैराग्य जागृत हुवा, और उन्हें संसार की मोह, माया, तृष्णा सब व्यर्थ लगने लगी।  वे उसी समय मनरंगीर जी के चरणों में नतमस्तक हो गए और उन्हें अपना गुरु बना लिया।  इसके बाद उन्होंने राव साहब के यहाँ से नौकरी भी छोड़ दी और प्रभु भक्ति में लग गए।  राव साहब ने उन्हें काफी समझाया, वेतन बढ़ाने का लालच भी दिया किन्तु संत सिंगाजी तो प्रभु की भक्ति में लीन होकर अपने निर्णय पर अटल रहकर पिपलिया के जंगलों में ही रहने लगे।  जंगल में रहकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते हुवे करीब आठ सौ भजनों की रचना की, जिसका गान आज भी निमाड़ की जनता कर रही है। त्यागमूर्ति और जितेन्द्रिय संत सिंगा जी का सहज विधान था कि हृदय में सच्चा प्रेम होना चाहिए, प्रभु को बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है।  

एक बार का प्रसंग है कि संत सिंगा जी जन्माष्टमी के दिन गुरु मनरंगीर जी की सेवा में थे।  भगवान श्री कृष्ण जी के जन्म का विधान रात को बारह बजे होता है।  रात अधिक होने पर गुरूजी को नींद आने लगी तो वे सिंगाजी से यह कहकर सो गए की सिंगा हमें भगवान के जन्म के समय जगा देना।  भगवान के जन्म का  समय हो गया।  तब सिंगा जी ने सोचा कि भगवान तो हर साल जन्म लेते है सिर्फ आरती पूजा ही तो करना है, मै कर देता हूँ गुरूजी को क्यों कष्ट दू।  ऐसा सोचकर उन्होंने आरती की. तभी गुरूजी की नींद खुल गई. वे सिंगाजी पर काफी नाराज हुए और कहा कि चले जाओ मुझे जीते जी अपना मुँह मत दिखाना।  सिंगा जी को काफी दुःख हुआ और उन्होंने अपना शरीर त्याग देने का निश्चय कर अपने निवासस्थान पिपलिया में ही आकर रहने लगे।  ग्यारह महीने वहां रहकर फिफण्ड नदी के किनारे जीवित समाधि ले ली।  उन्होंने एक गड्ढा खोदकर एक हाथ में कपूर और एक हाथ में माला लेकर समाधिस्थ हो गए।  उनके गुरु को संत सिंगा जी के समाधिस्थ हो जाने की जानकारी मिलने पर वे भी अत्यंत ही दुखी हुवे।  संत सिंगाजी को शत शत प्रणाम।    


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