श्री गुरु रामदास जी

 

सिख मत के चतुर्थ गुरु श्री रामदास जी हुवे, गुरुदेव रामदास जी का जन्म वर्तमान पाकिस्तान के लाहौर की चुना मंडी में हुआ था। गुरु रामदास जी का पूर्व नाम भाई जेठा जी था।  बाबा हरिदास जी सोढ़ी खत्री इनके पिताजी थे और दयाकौर इनकी माता जी थी।  इनके परिवार की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर थी, मात्र सात वर्ष की आयु में ही इनके माता पिता का साया नहीं रहा होने के कारण इनकी नानीजी जी इन्हें अपने यहां बसर्के गांव ले आई थी। बसर्के गांव में कई वर्षो तक उबले हुवे चने बेचकर अपना जीवन यापन किया करते थे, किन्तु दयाभाव और उदारता इतनी थी की कई बार किसी जरूरतमंद या किसी के द्वारा याचना करने पर चने बेचना भूलकर चने उन्हें दे दिया करते थे। एक बार गुरुदेव अमरदास जी बसर्के गांव में जेठा जी के दादा जी के देहांत के समय इनके घर पर पधारे तब उन्हें जेठा जी से गहरा लगाव हो गया था। उसके बाद जेठा जी भी अपनी नानी के साथ गोइंदवाल ही आकर रहने लगे थे और वहां भी उबले चने बेचने का काम करने लगे साथ ही जेठा जी गुरु अमरदास जी की सेवा करते हुवे धार्मिक संगत में भी भाग लेने लगे। तृतीय गुरुदेव अमरदास जी की सुपुत्री बीबी भानी जी के साथ उनका विवाह हुआ था, जिनसे उनके यहाँ तीन पुत्र पृथी चंद, महादेव और अर्जुनदेव हुवे। विवाह के बाद जेठा जी गुरुदेव अमरदास जी के पास ही रहने लगे किन्तु वे उनके दामाद बनकर नहीं अपितु गुरु शिष्य की तरह सेवारत रहते थे।  
एकबार गुरुदेव अमरदास जी बावड़ी बनवा रहे थे तो उस कार्य में भाई जेठा जी ने भी मिटटी की टोकरी अपने सर पर ढोकर सेवा की थी।  तब लाहौर की सांगत ने इसकी शिकायत भी गुरु अमरदास जी को की थी कि अपने दामाद से ऐसा काम लेना ठीक नहीं है तब गुरु अमरदास जी बोले कि आपको ऐसा लगता है कि जेठा के सर पर मिटटी की टोकरी है लेकिन वह मिटटी की टोकरी नहीं अपितु दीन दुखियो के राज्य का छत्र है।  जेठाजी अपनी भक्ति और सेवा से काफी प्रसिद्द हो गए थे।  वे गुरुदेव अमरदास जी के अति प्रिय और विश्वासपात्र शिष्य थे तथा गुरुदेव अमरदास जी के धार्मिक प्रवासों में उनके साथ ही रहते थे।  गुरुदेव अमरदास जी ने अपने लंगर में सब लोगों को पास पास एक ही पंक्ति में बैठाकर भोजन पाने की व्यवस्था की थी, इसपर बादशाह अकबर को शिकायत हुई कि इससे वहां धार्मिक विवाद हो सकता है।  शिकायत मिलने पर अकबर बादशाह ने गुरुदेव को अपना पक्ष रखने के लिए बुला भेजा।  तब गुरुदेव अमरदास जी ने भाई जेठा को इस कार्य के योग्य समझ कर भेजा। भाई जेठा ने जब बादशाह अकबर के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत किया तो बादशाह इतना प्रभावित हुवे कि वे स्वयं गुरुदेव अमरदास जी के दर्शनों के लिए गोइंदवाल आये और गुरूजी को बारह गांव भेंट भी किये।  

गुरुदेव अमरदास जी ने जब भाई जेठा जी को हर पहलु से गुरु बनने योग्य पाया तब उन्हें रामदास नाम प्रदान करते हुए चतुर्थ नायक के रूप में स्थापित कर गुरुगादी प्रदान की।  बाद में गुरुदेव रामदास जी ने ही रामदासपुर की नींव रखी जो कि बाद में अमृतसर के नाम से जाना जाने लगा।  जहां गुरुदेव रामदास जी ने अमृतसर सरोवर और हरिमंदिर साहब का कार्य पूरा करने के लिए भाई सहलो और बाबा बूढ़ा जी को नियुक्त किया। सिखों को भी गुरूजी ने यहीं आकर रहने की आज्ञा दी।  जल्द ही यह नया शहर व्यापारिक दृष्टी से महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। गुरूजी ने स्वयं विभिन्न व्यापारियों को इस नगर में बुलाकर बसाया।  यहां सिखों के लिए गुरूजी ने भजन और कीर्तन की व्यवस्था तो की ही साथ ही उन्होंने सिख धर्म के लिए सरल विवाह की भी विलक्षण वैवाहिक पद्धति लाकर समाज को रूढ़िवादी परम्पराओ से दूर किया। गुरु नानक देव जी के सुपुत्र बाबा श्रीचंद जी के उदासी संतो एवं अन्य मतावलम्बी संतो के साथ भी मधुरतम सम्बन्ध स्थापित किये। गुरु रामदास जी ने अपने गुरुजनो द्वारा चलाई जा रही लंगर परम्परा को आगे बढ़ाया और अन्धविश्वास, वर्ण व्यवस्था आदि समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध कर समाज कल्याण का कार्य सतत करते रहे।  

गुरुदेव रामदास जी ने सात वर्षों तक गुरुआई करते हुवे अपने सबसे छोटे सुपुत्र अर्जुनदेवजी को पंचम नानक के रूप में गुरुआई सौंपकर अपनी सैतालिस वर्ष की आयु में इहलोक का त्याग किया।  गुरुदेव रामदास जी के श्री चरणों में शत शत प्रणाम।     





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