वीरांगना रानी दुर्गावती

एक ऐसी वीरांगना राज रानी जिनकी पोषाक रक्त से सनी हुई है, जिसके दाहिने हाथों की तलवार शत्रुओं के रक्तपान के लिए लालायित हो रही हो, जो घोड़े और हाथी पर सवार होकर रण में दानवदलिनी दुर्गा की भांति दानव रूपी शत्रुओं के दमन के लिए रणचण्डी बन गई हो, तो ऐसे परम पादपंकजों पर हर कोई नतमस्तक हो जाता है, ऐसी ही वीरांगना थी गोंडवाना की रानी दुर्गावती, जिन्होंने अपने जीवनकाल में 52 युद्ध लडे जिनमें से 51 युद्धों में वे विजेता रही। रानी दुर्गावती ने मालवा के बाज बहादुर को तीन बार और मुग़ल शासक अकबर को दो बार हराया।  विलक्षण चरित्र वाली रानी दुर्गावती का नाम अपनी वीरता, शक्ति और रणकुशलता के लिए इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है, इतिहास में उन्हें वह स्थान प्राप्त है जो बड़े बड़े वीरों को भी प्राप्त नहीं हो पाता है।
रानी दुर्गावती महोबा के राजा कीर्ति सिंह की कन्या और गढ़मण्डल राज्य के अधिपति धनपत शाह की सहधर्मिणी थी। नवरात्री की दुर्गा अष्टमी को जन्मी बालिका का नाम दुर्गावती रखा गया। दुर्गावती अपने बाल्यकाल से ही पिता के साथ तलवारबाजी, घुड़सवारी, भाला फेकना और शिकार में रूचि रखते हुवे सतत अभ्यास करते हुवे पारंगत हो गई।  सोलहवीं सदी में दक्षिण भारत में गढ़मण्डल एक छोटा सा राज्य  था, किन्तु अपने अपार वैभव और संपत्ति के लिए दूर दूर तक के राज्यों में अच्छी ख्याति गढ़मण्डल राज्य को प्राप्त थी। रानी दुर्गावती को काफी अल्प समय का ही सुहाग सुख रहा होकर वैधव्य का व्रज उन पर टूट पड़ा था।  विकट समय में भी रानी दुर्गावती ने धैर्य और साहस के साथ कार्य करते हुवे अपने पुत्र नारायण की देखभाल करते हुवे बड़ी नीतिज्ञता और कुशलता से राज्य का प्रबंधन किया।  रानी दुर्गावती 15 वर्षों तक निर्विघ्न राज्य करती रही।  उनके राज्य के खजाने की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी, उसी के साथ साथ रानी दुर्गावती की बहादुरी की भी ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी।  रानी की सेना में भीलों की संख्या अधिकतम थी और उनकी सेना सुसंगठित भी थी।  गढ़मण्डल का ध्वज आसमान में फहराते हुवे यवनों के लिए चुनौती था कि जब तक रानी दुर्गावती की भुजाओं में बल है, और उनके हाथों में तलवार है तब तक गढ़मण्डल किसी की भी अधीनता स्वीकार नहीं करेगा।  

भारत में उस समय मुग़ल शासन था बादशाह अकबर उस समय के शासक थे। भारत की सार्वभौम सत्ता मुगलों  के पास नहीं आ पाई थी।  राजपूत रियासतों को अपने पक्ष में लाने के लिए अकबर कई प्रकार की योजनाऐं बनाकर भारत की सार्वभौम सत्ता प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहा होकर कई रियासतों को अपने पक्ष में कर सुदूर प्रांतों पर विजय प्राप्ति के लिए सेना तैयार करने का कार्य कर रहा था किन्तु धन की कमी के कारण योजनाऐं आगे बढ़ नहीं पा रही थी। उस समय गढ़मण्डल राज्य को लक्ष्य बनाया गया।  बादशाह अकबर का आदेश मिलते ही सेनापति आसफ खां एक बहुत बड़ी सेना लेकर चल पड़ा।  रानी दुर्गावती ने अद्भुत पराक्रम दिखलाकर दुश्मनो की शान मिटटी में मिला दी थी।  यघपि युद्ध में उन्हें जीत नहीं मिली किन्तु रणभूमि में तो उन्ही की जीत की डंके बज रहे थे।  रानी दुर्गावती का पुत्र नारायण उस समय 18 वर्ष का हो गया था।  माँ और बेटे दोनों ने ही मुग़ल सेना के साथ घमासान युद्ध किया।  रानी दुर्गावती तनिक भी विचलित नहीं हुई और अपने बहादुर सैनिकों से बोली देश पर मर मिटने वाले वीरों, तैयार हो जाओ।  आज तुम्हारी जन्मभूमि पर विपत्ति आई है, जन्मभूमि की स्वाधीनता की रक्षा करना तुम्हारा परम धर्म है।  तुम दुश्मनों को दिखला दो कि जब तक एक भी राजपूत जिन्दा रहेगा, तब तक गढ़मण्डल पर मुगलों का शासन नहीं हो सकेगा।  मैं जीते जी गढ़मण्डल में शत्रुओं को पैर नहीं रखने दूंगी।  वीरों मेरे साथ चलो और गढ़मण्डल की कीर्ति को अमर करो, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो अथवा रणभूमि में अपने प्राणों की आहुति देकर परम वीरगति को प्राप्त करो।  

रानी दुर्गावती के इस प्रकार के आव्हान से राजपूत सैनिकों की नसों में बिजली सी कौंध गई, आँखों में रक्त सा उतर आया। रानी ने फिर से अपने सैनिकों से कहा कि यवनो ने बर्बरता की सीमा पर कर दी है, आतताई बनकर एक विधवा की रियासत पर हमला बोल दिया है परन्तु जब तुम रणभूमि में कूद पड़ोगे तब एक एक सैनिक सैकड़ों शत्रुओं को मार भगाएगा, यदि तुम सच्चे वीर हो तो आज मातृ भूमि तुम्हें सहायता के लिए बुला रही है।  रानी के जयघोष से आकाश गूंज गया।  रानी के सैनिक मुग़ल सेना पर टूट पड़े और गाजर मूली की तरह काटते हुवे उन्होंने दो बार मुगलों को हराया।  इसके बाद आसफ खां ने कूटनीति से काम लेते हुवे गढ़मण्डल के ही एक सैनिक को प्रलोभन देकर अपनी तरफ मिला लिया और उससे गढ़मण्डल की आंतरिक जानकारियां प्राप्त कर एक बड़ी सेना को भी सहायता के लिए बुला लिया।  

रानी दुर्गावती रणभूमि में साक्षात् दुर्गा भवानी की तरह से शत्रुओं का विनाश करने लगी।  उनके तेज बांण दुश्मनों को मटियामेट करने लगे किन्तु मुट्ठी भर राजपूत विशाल मुग़ल सेना के सामने अधिक समय नहीं ठहर सके।  रानी घायल हो गई, एक तीर उनकी आँख में आकर लगा, निकालने के प्रयास पर भी पूरी तरह से नहीं निकला तभी एक दूसरा तीर रानी की गर्दन में आकर लगा। फिर भी वह वीरांगना लड़ती रही।  जिस हाथी पर सवार होकर रानी युद्ध कर रही थी उसी के बगल में घोड़े पर सवार होकर रानी के नयनो का तारा राजकुमार नारायण भी युद्ध कर रहा था, मुग़ल सैनिक रानी को जिन्दा बंदी बनाना चाहते थे, वे उन्हें घेरने लगे।  राजकुमार भी लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गए। रानी पुत्र वियोग में भी अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं हुई और लड़ती रही।  रानी बुरी तरह से घायल हो गई थी उनकी आँखों के सामने अँधेरा सा छाने लगा था। रानी दुर्गावती ने जब देखा कि अब विजय की कोई आशा नहीं रह गई है तो उस समय रानी ने अपनी कमर से कटार निकाल कर अपने सेनापति आधार सिंह से बोली कि मुझे कटार मार दो, आधार सिंह रानी पर वार करने की हिम्मत नहीं कर पाया तब शत्रुओं के देखते ही देखते रानी दुर्गावती ने कटार अपनी छाती में घोंप कर शत्रुओ के मंसूबों  पर पानी फेरते हुवे अपनी राजपूताना शान के साथ परम वीरगति को प्राप्त हुई। वीरांगना रानी दुर्गावती को शत शत नमन - दुर्गा प्रसाद शर्मा        
 

Comments

Popular posts from this blog

बूंदी के हाडा वंशीय देशभक्त कुम्भा की देशभक्ति गाथा

महाभारत कालीन स्थानों का वर्तमान में अस्तित्व

देवाधिदेव श्री महादेव जी के द्वादश ज्योतिर्लिंग