हमारी प्राचीन व्यवस्थाऐ और वर्तमान वैज्ञानिक धारणा - (2)


सनातन  हिन्दू धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है।  प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार नहीं होने के कारण हिन्दू धर्म में ज्ञान विज्ञान की शिक्षा धर्म के माध्यम से परम्पराओं और मान्यताओं के रूप में सिखाने का प्रयास हमारे पूर्वजों द्वारा किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि वैज्ञानिक नियमों पर आधारित विकास ही वास्तविक विकास होता  है, इसी कारण से हिन्दू धर्म को सनातन धर्म भी कहा जाता है क्योंकि सनातन धर्म की नींव ही वैज्ञानिकता पर आधारित है, जिसका प्रमाण प्रथम दृष्टया प्राचीन काल के कर्मो के अनुसार किये गए वर्ण विभाजन से जहां व्यक्ति के कार्य के अनुसार उसके वर्ण को विभाजित किया गया था। सभी वर्णों में भी पारस्परिक सद्भाव और समन्वय था। इसके अलावा हमारे पूर्वजों ने अनेकानेक वैज्ञानिक कसौटियों पर आधारित धार्मिक परम्पराएँ और मान्यताएँ निर्धारित की हुई है, लेकिन जब उन्हें वैज्ञानिक कसौटी पर कसा जाता था तो वे विज्ञान की  कसौटी पर खरी उतरती थी।   
सूर्य एक प्राकृतिक चिकित्सालय है।  सूर्य की किरणों में अद्भुत रोगनाशक शक्ति होती है।  मानव शरीर में हड्डियों में कैल्शियम के अवशोषण की प्रक्रिया के लिए आवश्यक विटामिन डी का सबसे अच्छा स्त्रोत है सूर्य का प्रकाश।  प्रकाश संश्लेषण की क्रिया जोकि पृथ्वी पर जीवन का आधार होती है वह सूर्य के प्रकाश से ही संभव होती है।  कई कीटाणु उबलते हुवे पानी से भी जल्द नहीं मरते है वे भी सूर्य के प्रकाश से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।  सूर्य नमस्कार एक योगासन है जिसे आसनों  का राजा भी कहा जाता है इस एक आसन के करने मात्र से ही पूर्ण व्यायाम हो जाता है। सुबह स्नान उपरांत सूर्य को जल अर्पण करते समय जल की धारा पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों को देखने मात्र से ही ह्रदय पुष्ट होता है और नेत्र ज्योति भी बढ़ती है।   

महिलाऐं और पुरुष अपने मस्तक पर तिलक लगाते हैं।  तिलक लगाने का आँखों के मध्य जो स्थान है उस भृकुटि स्थान को कूटस्थ चैतन्य भी कहा जाता है, जो जैविक ऊर्जा का भंडार गृह होता है। इस स्थान से ऊर्जा का प्रवाह सुषुम्ना नाड़ी से होते हुवे मूलाधार चक्र तक तथा मूलाधार चक्र से कूटस्थ चैतन्य तक निरंतर होता रहता है। तिलक लगाने से हम उस ऊर्जा का अनुभव करते है जो कुंडली जागरण के लिए अपरिहार्य होती है। तिलक लगाते समय जब अंगुली या अंगूठे से दबाव पड़ता है तब चेहरे की त्वचा की रक्त संचार वाली मांसपेशियां सक्रिय हो जाती है, जिससे चेहरे की कोशिकाओं तक रक्त पंहुचता है। महिलाओं के बिछिया पहनने का सीधा सम्बन्ध उनके गर्भाशय से है, कहा जाता है कि पैरों में अंगूठे के पास वाली अंगुली की एक नस गर्भाशय को नियंत्रित करती है और बिछिया पहनने से चलते फिरते समय उस नस पर दबाव पड़ने से गर्भाशय से सबंधित परेशानियों से बचा जा सकता है साथ ही इससे रक्तचाप भी संतुलित रहता है। 

पूजा की घंटी और शंख ध्वनि के पीछे भी यह वैज्ञानिक तथ्य  है कि मंदिर में पूजा की घंटी और शंख ध्वनि से वातावरण पवित्र और कीटाणु मुक्त तो  होता ही है साथ ही इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगे अनंत ध्वनि अनहद नाद का ही स्वरुप होकर वायुमंडल में उपस्थित बैक्टीरिया को नष्ट भी करते हैं और मानव शरीर में जैविक ऊर्जा प्रवाह को भी नियंत्रित करती है। शंख के जल का प्रयोग गले और ह्रदय के अनेक दोषों को भी दूर करता है। हिन्दू धर्म में   यज्ञोपवीत का प्रयोग किया जाता है जोकि हमारी आत्मिक शक्ति को बढ़ाने वाला होता है इस संस्कार के बाद हम पूजा पाठ और यज्ञादि के अधिकारी हो जाते हैं। मल मूत्र विसर्जन के समय इसे कान पर लपेटा जाता है जिसके पीछे भी यह वेज्ञानिक रहस्य छिपा हुवा है कि हमारे कान के पीछे जो नसें होती है उनका संबंध हमारे मस्तिष्क और पेट से होता है और जनेऊ कान पर लपेटने से उन नसों पर दबाव पड़ने से मल मूत्र त्यागने में आसानी होती है एवं कब्ज, गैस, एसिडिटी, मूत्ररोग आदि नहीं होते हैं। 

मंत्रोचारण करने से जहाँ एक ओर पूजा पाठ को पूर्णता मिलती है वहीं उससे मन केंद्रित होकर शारीरिक ऊर्जा का भी विकास होता है। यज्ञ अर्थात हवन हम लोग किसी विशेष पूजा के अवसर पर करते हैं हवन सामग्री एवं समिधा की विभिन्न प्रकार की लकड़ियों और औषधियों वाली सामग्री से वातावरण तो शुद्ध होता ही है साथ ही उसके प्रभाव से हवा में फैले हुवे कीटाणु भी नस्ट होते है और वायु प्रदुषण से भी हमें मुक्ति मिलती है। पूजा में घी का दीपक जलाने से हवा में मिली हुई कार्बन डाई ऑक्साइड नष्ट हो जाती है वहीं तेल का दीपक जलाने से विषैले हानिकारक कीटाणु नष्ट होते हैं। गंगा नदी को पवित्र इसलिए भी माना जाता है कि गंगाजल में में कुछ ऐसे प्राकृतिक तत्व होते है जिनके सम्पर्क से मानव शरीर रोगमुक्त और निर्मल हो जाता है गंगाजल कीटाणु नाशक है और कभी भी सड़ता नहीं है। वृक्षों की पूजा का भी अपना अपना महत्त्व हमारे सनातन धर्म में है किन्तु पीपल की पूजा का अपना अलग ही महत्त्व है जहाँ पीपल की पूजा शनिदेव की शांति के प्रयोजन से की जाती है वहीं एकमात्र पीपल ही ऐसा वृक्ष है जो सर्वाधिक मात्रा में ऑक्सीजन प्रदान करता है।    

हमारे सनातन धर्म में ॐ का विशेष महत्त्व है।  सभी मन्त्र, यंत्र और तंत्र में ॐ का प्रयोग किया जाता है।  ॐ के सम्पुट से मंत्रो का दोष समाप्त हो जाता है और मन्त्र विशिष्ट फलदायक हो जाते हैं।  हमारे ऋषि मुनि कहा करते थे कि सम्पूर्ण जगत ॐ मयी है और कण कण में भी ॐ ही व्याप्त है।  यूरोपियन स्पेस एजेंसी और नासा की संयुक्त प्रयोगशाला सोहो ने भी सूर्य से निकलने वाली ध्वनि का अध्ययन किया तो पाया कि सूर्य से निकलने वाली ध्वनि हिन्दू सनातन धर्म के ॐ के ही समान है।  इसके आलावा और भी कई ऐसी बातें हैं जिन्हें आज हम नहीं मान रहे किन्तु विज्ञान मान रहा है, पाश्चात्य संस्कृति हमारी सनातन संस्कृति की ओर आकर्षित होकर उसे अपना रही है और हम उससे विमुख होते जा रहे हैं।  आज अत्यंत ही आवश्यकता है समुचित जन जागरण की ताकि हम हमारी संस्कृति से जुड़ें। आइये हम सभी अपने अपने प्रयास करें। दुर्गा प्रसाद शर्मा का जय श्री कृष्ण।         





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