माताश्री अहिल्या बाई होल्कर
महारानी अहिल्या बाई होल्कर इन्दौर के राजाधिराज खण्डेराव होल्कर की राजरानी और मल्हारराव होल्कर की पुत्रवधु थी। सत्रहवीं सदी के आखिर में मराठों के हिन्दू राष्ट्र के संकल्प को जब पूरा करने के लिए सर्वप्रथम छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस कार्य का प्रारम्भ किया, बाद में बाजीराव पेशवा ने उस कार्य को आगे बढ़ाया। बाजीराव पेशवा के स्वामिभक्त सहायकों में दामाजी गायकवाड़, राणोजी सिंधिया सहित मल्हारराव होल्कर प्रमुख थे। ये मराठा साम्रज्य विस्तार के कार्य में लगे हुवे थे। एक बार मल्हारराव होल्कर विद्रोहियों का दमन करने के लिए पुणे जा रहे थे। उस समय रास्ते में एक शिव मंदिर में उन्होंने अपना डेरा डाला था, वहीं पर आनंदराव (मनकोजी) सिंधिया की होनहार कन्या अहिल्या को उन्होंने पहली बार देखा और बलिका अहिल्या से काफी प्रभावित हुए होकर उसे अपने साथ ही इन्दौर ले आये तथा अपने पुत्र खण्डेराव होल्कर के साथ उसका विवाह कर दिया।
विवाह के बाद नव दंपत्ति सुखपूर्वक रहने लगे । अहिल्या बाई के एक पुत्र और एक पुत्री दो संताने थी। राजवधु होने पर भी अहिल्या बाई को कोई गर्व नहीं था और वह सहज भाव से अपने सास ससुर की सेवा में लगी रहती थी। बचपन से ही शिवभक्त रही अहिल्याबाई नित्य पूजन पाठ करने के उपरांत अपने पति और ससुर को राजकीय कार्यों प्रबन्ध में भी पूर्ण सहयोग करती थी। मात्र नौ वर्ष के दाम्पत्य जीवन के बाद ही अहिल्याबाई के पति खण्डेराव होल्कर का देहान्त गया। खण्डेराव होल्कर के देहान्त के बाद अहिल्याबाई ने आत्मयज्ञ करना चाहा किन्तु उनके ससुर मल्हारराव होल्कर ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। तब अहिल्याबाई ने भी यह सोचकर कि यदि वे अपने ससुर की बात नहीं मानती है तो इन्दौर की प्रजा काफी व्यथित होगी और मराठों द्वारा संकल्पित हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की उम्मीद पर पानी फिर जावेगा। मल्हारराव होल्कर ने अपने सारे अधिकार अहिल्याबाई को सौप दिए। मल्हारराव होल्कर के युद्ध में जाने समय उनकी अनुपस्थिति में अहिल्याबाई ने कुशल राजप्रबन्ध किया। मल्हारराव होल्कर ने पानीपत के युद्धस्थल से लौटने के बाद अहिल्याबाई की शासन दक्षता की बड़ी प्रशंसा की।
मल्हारराव होल्कर का देहांत हो जाने के बाद अहिल्याबाई का पुत्र मालेराव गद्दी बैठा। मालेराव अत्यन्त क्रोधी, उतावला और कुप्रवृत्ति वाला था, जिसने अपनी प्रजा पर काफी अत्याचार किये तत्पश्यात मालेराव भी मृत्यु को प्राप्त हो गया होने कारण इन्दौर का राजकाज संभालने का जिम्मा अहिल्याबाई पर आ गया।
उधर बाजीराव पेशवा का भी देहान्त हो जाने के बाद माधवराव को पेशवा बनाया गया। माधवराव पेशवा के काका रघुनाथराव जोकि बड़े ही कुटिल और व्यसनी व्यक्ति थे, को इन्दौर एक मंत्री द्वारा भड़काए जाने पर वह अहिल्याबाई को राज्य से निकालकर इन्दौर पर अपना अधिकार कर लेने की इच्छा से दल बल सहित चल पड़ा। इधर अहिल्याबाई को जैसे ही जानकारी हुई, उन्होंने गायकवाड़ और भोंसले से सहायता मांगी, जिन्होंने सहर्ष स्वीकार कर इन्दौर आ पंहुचे। अहिल्याबाई ने भी अपने सैनिकों का उत्साह वर्धन कर कहा कि माना कि हम पेशवा के अधीन हैं, किन्तु उन्हें कोई अधिकार नहीं कि हमारा राज्य अकारण छीन लें। रघुनाथराव ने मुझे अबला समझ इन्दौर पर आक्रमण किया है किन्तु मैं भी उन्हें रण में तलवार लेकर खड़ी होकर बतला दूंगी कि मैं अबला नहीं, वीरवधु हूँ। सत्य पर चलने वालों की भगवान भी सहायता करते हैं। अहिल्याबाई की बातों को सुनकर सैनिकों में जोश भर गया और वे युद्ध के लिऐ तैयार हो गए। अहिल्याबाई होल्कर अकारण रक्तपात भी नहीं चाहती थी, इस कारण उन्होंने पेशवा को एक पत्र लिखा कि मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आप मुझसे मेरा राज्य छीनने के लिए सैन्य बल के साथ आ रहें हैं। यह राज्य आपका ही है, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि आप इसे अन्यायपूर्वक छीन लें। , इसलिए मुझे भी अपनी सेना के साथ आपका अभिवादन करना पड़ेगा। पेशवा को इस आक्रमण की जानकारी नहीं थी। इस कारण उन्होंने प्रतिउत्तर में कह दिया कि वे उनके राजकाज के कार्य और प्रबंध से संतुष्ट हूँ, और यदि कोई राज्य छीनने करता है तो उसे दंड देने पूर्ण अधिकार है।
रघुनाथराव क्षिप्रा नदी तक आ गया था किन्तु सामने विरोध की अच्छी खासी तैयारी देखकर डर गया और उसे यह भी मालूम हो गया कि पेशवा को भी जानकारी हो गई है, उसने अहिल्याबाई को कहला भेजा कि वह आक्रमण करने नहीं आया है। वह तो सिर्फ यह देखने आया है कि वे शत्रुओं से किस प्रकार अपनी रक्षा कर सकती है। इसके बाद रघुनाथराव अतिथि के रूप में कुछ दिन इन्दौर में रहकर वापस चल दिए। रानी अहिल्याबाई काफी क्षमाशील एवं उदार थी। इन्दौर के जिस मंत्री ने यह कार्य किया था, उन्होंने उसे भी क्षमा कर राज्य में सम्मानजनक स्थान दिया। इस मामले के बाद अहिल्याबाई की कीर्ति चहुँओर फ़ैल गई।
अहिल्याबाई के शासन में सदैव शांति बनी रहती थी। वे शासन करने में जितनी कठोर थी, दया करने में उतनी ही उदार थी। घोड़े की पीठ पर सवार होकर रण में कूद पड़ना उनके लिए साधारण कार्य था। एक बार कुछ भीलों ने विद्रोह कर दिया था, तब रानी ने उन्हें अपनी कूटनीति और वीरता से वश में कर लिया था। रघुनाथराव ने भी एक बार किसी लड़ाई के लिए अहिल्याबाई से सहायता के रूप में राजकोष से धन की मांग की, जिस पर रानी ने जवाब दिया कि वह दान धर्म के लिए तत्पर है, आप ब्राह्मण हैं मन्त्र पढ़कर लेना चाहें तो मैं संकल्प करने के लिए प्रस्तुत हूँ। इस पर रघुनाथराव सेना लेकर आ पंहुचे, तब रानी ने पांच सौ सशस्त्र महिलाओं के साथ युद्ध क्षेत्र में उनका स्वागत कर कहा कि हमारा आपसे विद्रोह नहीं है, आपको राजकोष का धन चाहिए हमें मारकर ले जावें। रघुनाथराव रानी के साहस को देखकर दंग रह गया और वापस लौट गया।
अहिल्याबाई सत्यपरायण एवं दानशील थी। अपने राजकोष को उन्होंने धर्मार्थ कार्यो के लिए सदैव खोल रखा था। भारत के लगभग सभी तीर्थ स्थानों पर देवमंदिर, धर्मशाला और अहिल्याबाई द्वारा किये गए कार्य आज भी उनकी दानशीलता के साक्षी हैं। अहिल्याबाई में न लोभ था, न मद था, वे रानी की हैसियत से सदैव अपनी प्रजा के आभाव को दूर करने में तथा प्रजा को सर्व सुविधा प्रदान करने में तत्पर रहती थी। हिन्दू नारी की तरह से रानी पूजा अर्चना, ब्राह्मण अतिथि सेवा सत्कार, धर्म कार्य की सहायता, दुखियो का दुःख निवारण, परोपकार एवं सत्कार्यो में सदैव लगी रही। प्रजा के हित, राष्ट्र के हित तथा अपने पवित्र वंश मर्यादाओ की रक्षा लिए सभी आवश्यक कार्य करती थी।
अहिल्याबाई अद्वितीय गुणवती, आदर्श नारी और निपुण शासक थी। एक बार किसी ब्राह्मण ने उनकी प्रशंसा में एक पुस्तक की रचना कर दी, जिसकी जानकारी मिलते ही अहिल्याबाई ने यह कहकर पुस्तक नदी में प्रवाहित करवा दी कि मुझमें इतने गुण नहीं है, जिसकी किताब लिखी जाय । देवी अहिल्याबाई ईश्वर से सदैव यही प्रार्थना करती थी कि जैसे पत्थर की अहिल्या का उद्धार किया, मुझे भी भवसागर से पार कर देना। साठ वर्ष की आयु में अहिल्याबाई होल्कर का स्वर्गवास हुआ। अहिल्याबाई होल्कर महान धर्मपरायण, तपस्विनी, तेजस्विनी नारी के रूप में सदैव स्मरण की जाती रहेगी। मातृस्वरूपा देवी अहिल्याबाई होल्कर को शत शत नमन।
मल्हारराव होल्कर का देहांत हो जाने के बाद अहिल्याबाई का पुत्र मालेराव गद्दी बैठा। मालेराव अत्यन्त क्रोधी, उतावला और कुप्रवृत्ति वाला था, जिसने अपनी प्रजा पर काफी अत्याचार किये तत्पश्यात मालेराव भी मृत्यु को प्राप्त हो गया होने कारण इन्दौर का राजकाज संभालने का जिम्मा अहिल्याबाई पर आ गया।
उधर बाजीराव पेशवा का भी देहान्त हो जाने के बाद माधवराव को पेशवा बनाया गया। माधवराव पेशवा के काका रघुनाथराव जोकि बड़े ही कुटिल और व्यसनी व्यक्ति थे, को इन्दौर एक मंत्री द्वारा भड़काए जाने पर वह अहिल्याबाई को राज्य से निकालकर इन्दौर पर अपना अधिकार कर लेने की इच्छा से दल बल सहित चल पड़ा। इधर अहिल्याबाई को जैसे ही जानकारी हुई, उन्होंने गायकवाड़ और भोंसले से सहायता मांगी, जिन्होंने सहर्ष स्वीकार कर इन्दौर आ पंहुचे। अहिल्याबाई ने भी अपने सैनिकों का उत्साह वर्धन कर कहा कि माना कि हम पेशवा के अधीन हैं, किन्तु उन्हें कोई अधिकार नहीं कि हमारा राज्य अकारण छीन लें। रघुनाथराव ने मुझे अबला समझ इन्दौर पर आक्रमण किया है किन्तु मैं भी उन्हें रण में तलवार लेकर खड़ी होकर बतला दूंगी कि मैं अबला नहीं, वीरवधु हूँ। सत्य पर चलने वालों की भगवान भी सहायता करते हैं। अहिल्याबाई की बातों को सुनकर सैनिकों में जोश भर गया और वे युद्ध के लिऐ तैयार हो गए। अहिल्याबाई होल्कर अकारण रक्तपात भी नहीं चाहती थी, इस कारण उन्होंने पेशवा को एक पत्र लिखा कि मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आप मुझसे मेरा राज्य छीनने के लिए सैन्य बल के साथ आ रहें हैं। यह राज्य आपका ही है, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि आप इसे अन्यायपूर्वक छीन लें। , इसलिए मुझे भी अपनी सेना के साथ आपका अभिवादन करना पड़ेगा। पेशवा को इस आक्रमण की जानकारी नहीं थी। इस कारण उन्होंने प्रतिउत्तर में कह दिया कि वे उनके राजकाज के कार्य और प्रबंध से संतुष्ट हूँ, और यदि कोई राज्य छीनने करता है तो उसे दंड देने पूर्ण अधिकार है।
रघुनाथराव क्षिप्रा नदी तक आ गया था किन्तु सामने विरोध की अच्छी खासी तैयारी देखकर डर गया और उसे यह भी मालूम हो गया कि पेशवा को भी जानकारी हो गई है, उसने अहिल्याबाई को कहला भेजा कि वह आक्रमण करने नहीं आया है। वह तो सिर्फ यह देखने आया है कि वे शत्रुओं से किस प्रकार अपनी रक्षा कर सकती है। इसके बाद रघुनाथराव अतिथि के रूप में कुछ दिन इन्दौर में रहकर वापस चल दिए। रानी अहिल्याबाई काफी क्षमाशील एवं उदार थी। इन्दौर के जिस मंत्री ने यह कार्य किया था, उन्होंने उसे भी क्षमा कर राज्य में सम्मानजनक स्थान दिया। इस मामले के बाद अहिल्याबाई की कीर्ति चहुँओर फ़ैल गई।
अहिल्याबाई के शासन में सदैव शांति बनी रहती थी। वे शासन करने में जितनी कठोर थी, दया करने में उतनी ही उदार थी। घोड़े की पीठ पर सवार होकर रण में कूद पड़ना उनके लिए साधारण कार्य था। एक बार कुछ भीलों ने विद्रोह कर दिया था, तब रानी ने उन्हें अपनी कूटनीति और वीरता से वश में कर लिया था। रघुनाथराव ने भी एक बार किसी लड़ाई के लिए अहिल्याबाई से सहायता के रूप में राजकोष से धन की मांग की, जिस पर रानी ने जवाब दिया कि वह दान धर्म के लिए तत्पर है, आप ब्राह्मण हैं मन्त्र पढ़कर लेना चाहें तो मैं संकल्प करने के लिए प्रस्तुत हूँ। इस पर रघुनाथराव सेना लेकर आ पंहुचे, तब रानी ने पांच सौ सशस्त्र महिलाओं के साथ युद्ध क्षेत्र में उनका स्वागत कर कहा कि हमारा आपसे विद्रोह नहीं है, आपको राजकोष का धन चाहिए हमें मारकर ले जावें। रघुनाथराव रानी के साहस को देखकर दंग रह गया और वापस लौट गया।
अहिल्याबाई सत्यपरायण एवं दानशील थी। अपने राजकोष को उन्होंने धर्मार्थ कार्यो के लिए सदैव खोल रखा था। भारत के लगभग सभी तीर्थ स्थानों पर देवमंदिर, धर्मशाला और अहिल्याबाई द्वारा किये गए कार्य आज भी उनकी दानशीलता के साक्षी हैं। अहिल्याबाई में न लोभ था, न मद था, वे रानी की हैसियत से सदैव अपनी प्रजा के आभाव को दूर करने में तथा प्रजा को सर्व सुविधा प्रदान करने में तत्पर रहती थी। हिन्दू नारी की तरह से रानी पूजा अर्चना, ब्राह्मण अतिथि सेवा सत्कार, धर्म कार्य की सहायता, दुखियो का दुःख निवारण, परोपकार एवं सत्कार्यो में सदैव लगी रही। प्रजा के हित, राष्ट्र के हित तथा अपने पवित्र वंश मर्यादाओ की रक्षा लिए सभी आवश्यक कार्य करती थी।
अहिल्याबाई अद्वितीय गुणवती, आदर्श नारी और निपुण शासक थी। एक बार किसी ब्राह्मण ने उनकी प्रशंसा में एक पुस्तक की रचना कर दी, जिसकी जानकारी मिलते ही अहिल्याबाई ने यह कहकर पुस्तक नदी में प्रवाहित करवा दी कि मुझमें इतने गुण नहीं है, जिसकी किताब लिखी जाय । देवी अहिल्याबाई ईश्वर से सदैव यही प्रार्थना करती थी कि जैसे पत्थर की अहिल्या का उद्धार किया, मुझे भी भवसागर से पार कर देना। साठ वर्ष की आयु में अहिल्याबाई होल्कर का स्वर्गवास हुआ। अहिल्याबाई होल्कर महान धर्मपरायण, तपस्विनी, तेजस्विनी नारी के रूप में सदैव स्मरण की जाती रहेगी। मातृस्वरूपा देवी अहिल्याबाई होल्कर को शत शत नमन।
Worth sharing sir....
ReplyDeleteToo good article it is.... साधुवाद
महारानी अहिल्याबाई होलकर उनके न्याय दान के किस्से आज भी गुंजते है।उनका चरित्र अलौकिक था है और रहेगा पुण्यश्र्लोक लोकमाता राजमाता देवी ऐसी पदवीया जनता ने दी थी।भारत की ऐसी महारानी और राजमाता को हमारा कोटी कोटी प्रणाम। निशा जोशी।
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