श्याम सखा सुदामा

विप्रवर सुदामा जी के नाम से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है और फिर श्री कृष्ण भगवान से उनकी मित्रता का प्रसंग तो अत्यंत ही मधुरतम चरित्र स्मृति पटल पर अंकित कर देता है।  सुदामा जी अत्यंत ही निर्धन परिवार से रहे होकर यदि उन्हें दरिद्र भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।  सुदामाजी के चरित्र के श्रवण मात्र से ही अनायास मुँह से निकल जाता है कि ईश्वर भले ही किसी को गरीबी दे किन्तु दरिद्रता न दे।  सुदामा जी बाल्याकाल में अवंतिका नगरी आज की उज्जैन नगरी में स्थित महर्षि सांदीपनि जी के आश्रम में अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे वहीँ पर श्री कृष्ण जी एवं बलराम जी भी शिक्षा प्राप्ति के लिए आये और वही पर श्री कृष्णजी एवं सुदामाजी की मैत्री हुई थी।  श्यामसुंदर तो कुछ ही दिनों में गुरुगृह रहकर समस्त वेद वेदांग, शस्त्रादि एवं सभी कलाओं की शिक्षा ग्रहण करके चले गए और समय बीतने पर द्वारकाधीश भी हो गए। उधर सुदामाजी की भी शिक्षा पूर्ण होने पर वे भी गुरुदेव से आज्ञा लेकर अपनी जन्मभूमि पर वापस लौटे और विवाह करके ग्रहस्थाश्रम को स्वीकार किया।  एक टूटी सी झोपड़ी, गिनती के पात्र एवं तन ढंकने के लिए कुछ कपडे बस इतनी ही गृहस्थी थी, सुदामाजी की।  जन्म से ही सरल एवं संतोषी सुदामा जी किसी से कुछ मांगते नहीं थे, बिन मांगे जो मिल जाये उसी में संतोष कर लेते थे और प्रभु को अर्पण कर अपना और अपने परिवार का निर्वाह कर लेते थे।  कई बार तो उपवास भी करना पड़ता था, जिस कारण उन दोनों की शारीरिक स्थिति भी काफी क्षीण एवं कमजोर थी।  
भगवान श्री कृष्ण की मनमोहक छबि यदि स्वप्न में भी दिख जाय तो मानस पटल से वह मोहिनी मूर्ति कभी हटती ही नहीं, फिर सुदामाजी तो उनके सहपाठी थे, उनके साथ गुरुगृह में रहे, साथ पढ़े, साथ साथ गुरु सेवा की, वन में साथ साथ फल, फूल, समिधा आदि एकत्रित की. वे सदैव उसी मनमोहक छबि का ध्यान करते रहते थे और अपने सखा के रूप, गुण और उदारता का वर्णन करते थकते नहीं थे।  सुदामाजी अपने मित्र के बारे में अपनी पत्नी से भी चर्चा किया करते थे।  सुदामाजी की पत्नी सुशील एवं पतिपरायणा थी, उसे अपने स्वयं के कष्ट की कोई चिंता नहीं थी किन्तु जिस दिन सुदामाजी को उपवास करना पड़ जाता था तब उन्हे काफी कष्ट होता था।  एक बार कई दिनों तक लगातार उपवास करना पड़ा तब बड़ी हिम्मत करके उन्होंने अपने पति से कहा कि साक्षात् लक्ष्मीपति और ब्राह्मणों के परम भक्त शरणागत वत्सल श्री कृष्ण आपके मित्र हैं, आप एक बार उनके पास जाइये।  मैं जानती हूँ कि आपके मन में धन के प्रति कोई चाह नहीं है किन्तु आप कुटुम्बी हैं और इस प्रकार दरिद्रता के चलते कुटुंब का निर्वाह कैसे होगा, इसलिए हे नाथ आप एक बार अवश्य द्वारका जाइये।    

सुदामाजी ने सोचा कि ब्राह्मणी भूख से व्याकुल होकर दरिद्रता से घबराकर मुझे द्वारका भेज रही है किन्तु धन की इच्छा लेकर द्वारका जाने के लिए उन्हें संकोच हुवा।  वे अपनी पत्नी से बोले ब्राह्मण को धन से क्या काम, तुम कहो तो मैं भिक्षा मांग लाता हूँ किन्तु धन के लिए द्वारका जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है, हमें तो भगवत भजन में ही परम सुख मिल रहा है।  ब्राह्मणी के बहुत आग्रह करने पर सुदामाजी ने सोचा कि चलो इस बहाने से परम मित्र श्री कृष्ण के दर्शन का परम लाभ प्राप्त हो जावेगा किन्तु मित्र के घर खाली हाथ कैसे जावें, इस पर ब्राह्मणी पड़ोस से चार मुट्ठी सूखे चिवड़े मांग लाई जिन्हें एक पुराने चिथड़े में बांधकर सुदामाजी को दे दिया।  वह पोटली बगल में दबाकर सुदामा जी चल दिए द्वारका की ओर।  

जब कई दिनों की यात्रा करके सुदामा द्वारका पंहुचे तब वहाँ का ऐश्वर्य देखकर हक्के बक्के रह गए।  स्फटिक मणि के गगनचुम्बी भवन, ऊपर स्वर्ण के कलश, रत्नजड़ित दीवारें, स्वर्ग भी जहाँ फीका पड़ जाय। सुदामाजी की नजरें ठहर नहीं पा रही थी।  बड़ी हिम्मत करके एक नागरिक से श्री कृष्णचंद्र का पता पूछने पर उसने बता दिया।  नागरिक के बताये अनुसार सुदामाजी जब श्री कृष्ण जी के भवन पर पंहुचे तो ऐसे कंगाल, चिथड़ों में लिपटे, मैले कुचले ब्राह्मण को देखकर द्वारपाल को कोई आश्चर्य नहीं हुवा क्योंकि उसे पता था कि उनके प्रभु ऐसे ही दीनो के नाथ हैं, द्वारपाल ने सुदामाजी को प्रणाम किया।  परन्तु जैसे ही सुदामाजी ने श्री कृष्ण जी को अपना मित्र कहा तो द्वारपाल के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. द्वारपाल ने सोचा कि जहाँ देवराज इन्द्र भी अपने आप को बड़े संकोच से दास कह पाते हैं, वहीं यह कंगाल ब्राह्मण अपने आप को प्रभु का मित्र बता रहा है।  द्वारपाल सुदामाजी को द्वार पर ही ठहरा कर आज्ञा लेने भीतर गया।  

त्रिभुवन के स्वामी सर्वेश्वर भगवान श्री कृष्ण अपने भवन में शैया पर बैठे थे और रुक्मिणी जी उनकी सेवा कर रही थी।  द्वारपाल ने भूमि पर मस्तक नवकार प्रणाम किया और कहा कि एक फटे चिथड़े लपेटे, नंगे सिर, नंगे बदन, मैले कुचेले शरीर वाला, बहुत ही दुर्बल ब्राह्मण द्वार पर खड़ा है और बड़े आश्चर्य से चारों ओर देखता है।  पता नहीं कौन है, कहाँ से आया है किन्तु अपने आप को प्रभु का मित्र कहता है और प्रभु का निवास पूछता है और अपना नाम सुदामा बताता है।  सुदामा यह शब्द  जैसे ही श्री कृष्ण जी के कानों में पड़े वे अपनी सुध बुध भूल गए, मुकुट धरा रहा, उपरना भूमि पर गिर गया, चरणों में पादुका ही नहीं है और वे द्वार की ओर दौड़ पड़े, द्वार पर आकर दोनों हाथ फैलाकर सुदामा को इस प्रकार से ह्रदय से लगाया मानो बहुत समय से खोई हुई कोई निधि उन्हें मिल गई हो। सुदामा और श्री कृष्ण दोनों के नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है, मुख से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा है, नगरवासी, रानियाँ, सेवक सब चकित। देवता ब्राह्मण के सौभाग्य की प्रशंसा कर पुष्पवर्षा करने लगे।  

बड़ी देर बाद जब भान हुवा तो श्यामसुंदर सुदामा को लेकर अपने भवन में पधारे। अपने प्रिय सखा सुदामा को उन्होंने अपने पलंग पर बैठाया और स्वयं उनके चरण धोने लगे।  ब्राह्मण के पैरो की बिवाइयों को देखकर श्री कृष्ण जी को बहुत दुःख हुवा। सुदामा के चरण अपने हाथों में लेकर जब श्री कृष्ण जी ने विचार किया कि मेरा मित्र कितनी दरिद्रता और कष्ट में है, तब उनके नेत्रों की अश्रुधारा से ही सुदामा के चरण धुल गए और प्रभु की यह दशा देखकर स्वयं रुक्मिणी जी ने अपने हाथों से सुदामाजी के पाद प्रक्षालन किये।  द्वारकाधीश ने चरणोदक अपने मस्तक पर छिड़का और अपने महलों में छिड़कवाया। उसके बाद सुदामाजी को स्नानदि करवाकर दिव्य गंधयुक्त चंदन, कुमकुम, धुप, दीप पुष्पमाला आदि से पूजित कर नाना प्रकार के पकवानों वाला सुस्वादु भोजन करवाया, आचमन करके पान दिया।  भोजन करके सुदामाजी बैठ गए तब भगवान की पटरानियां स्वयं अपने हाथों से उन्हें पंखा झलने लगी। श्री कृष्ण जी उनके निकट बैठ गए और सुदामा का हाथ अपने हाथों में लेकर उनसे बातें करने लगे।  गुरुगृह की मधुर स्मृतियों की चर्चा कर घर की कुशल पूछी। 

मधुर स्मृतियों में खोये खोये ही अचानक श्री कृष्ण ने अपने सखा सुदामा को कुछ छिपाते हुवे देख कर पूछ ही  लिया कि मित्र मेरी भाभी ने मेरे लिए कुछ भेंट तो अवश्य ही भेजी होगी, बताओ तो जरा क्या लाए हो मेरे लिए।  अब सुदामाजी को तो इतना संकोच था कि द्वारकाधीश को सूखे चिवड़े कैसे भेंट करें, वे चुपचाप बैठे रहे। अन्तर्यामी श्री कृष्ण तो पहले ही जान चुके थे कि सुदामा तो एक निष्काम भक्त है और उन्होंने कभी धन कामना के लिए भजन नहीं किया और न ही कभी कोई कामना ही की।  श्री कृष्ण यह भी जानते थे कि सुदामा अपनी पत्नी के कहने से यहाँ आ गए हैं। यह सोचकर श्री कृष्ण तो सुदामा को देवताओं के लिए भी दुर्लभ संपत्ति देने को तत्पर हो गए।  तब उन्होंने सुदामाजी से कहा कि यह क्या छिपा रहे हो, जरूर भाभी ने मेरे लिए भेजा होगा। ऐसा कहकर श्यामसुंदर ने वह पोटली छीनना चाही किन्तु छीनछपटी में पुराना कपडा फट गया और चिवड़े बिखरने लगे। जिन्हें प्रभु ने अपने पीतपट में संभाला और मुट्ठी भरकर खाने लगे और बोले यही तो मुझे परम आनंद देने वाली प्रिय भेंट है।  ये चिवड़े मेरे साथ सम्पूर्ण विश्व को तृप्त करेंगे।     

इस प्रकार प्रशंसा करते हुवे श्री कृष्ण फिर से जब चिवड़े खाने के लिए प्रयासरत हुवे तो रुक्मिणी जी ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहा कि प्रभु बस कीजिये, आप अब तक के चिवड़े खाकर इहलोक और परलोक में मिलने वाली समस्त संपत्ति तो इन्हें प्रदान कर ही चुके हैं। यह सुनने के बाद श्री कृष्ण ने मुस्कुराकर चिवड़े छोड़ दिए।  सुदामाजी कुछ दिन द्वारका में ही रहे, जहाँ श्री कृष्ण जी एवं उनकी रानियों ने सुदामाजी की बड़ी सेवा की।  अंत में सुदामाजी अपने सखा से विदा होकर अपने घर के लिए निकले श्री कृष्ण जी उन्हें द्वारका के बाहर तक छोड़ने आये।  सुदामा के मन में धन की कोई लालसा नहीं थी और न ऐसी कामना थी कि बिन मांगे ही मिल जायेगा।  द्वारका से उन्हें कुछ नहीं मिला इसका भी खेद नहीं था। उल्टा श्रीकृष्ण की ब्राह्मणभक्ति का ही विचार करते रहे कि किस प्रकार उन्होंने ह्रदय से लगाया, अपने पास बैठाया, चरण धोये, श्री कृष्ण की पटरानियों ने भी उनकी सेवा की, चंवर डुलाये और यह भी सोच लिया कि  श्यामसुंदर ने मुझे यह सोच कर धन नहीं दिया की कहीं धन पाकर यह ब्राह्मण मेरा स्मरण करना ही न भूल जाय। सुदामाजी को यह भी चिंता नहीं थी कि घर जाकर पत्नी को क्या जवाब देंगे। 

इधर श्यामसुंदर ने अपने प्रिय सखा की दरिद्रता को दूर करने की ठान ली थी, उन्होंने देव शिल्पी श्री विश्वकर्मा जी को भेजकर अपने सखा सुदामा के धाम को द्वारका के समान भव्य सुदामापुरी बना दिया।  एक ही रात में झोपड़ी के स्थान पर मणिमय भवन खड़े हो गए।  जब सुदामा वहाँ पंहुचे तो उन्हें कुछ समझ ही नहीं पड़ा, सोचने लगे कि कहीं मार्ग तो नहीं भूल गए, गलत जगह तो नहीं आ गए तभी कई सेवकों ने आकर उनका आदर सत्कार किया और उन्हें भवन में पंहुचाया। जब ब्राह्मणी से सामना हुआ तो उसे भी पहचान नहीं पाए।  वह भी स्वर्ग की कोई देवी सी प्रतीत हो रही थी।  सैकड़ों दासियो के साथ ब्राह्मणी ने सुदामा जी को प्रणाम किया और घर में लेकर गई।  सुदामा विस्मित हो गए किन्तु रहस्य को समझ गए कि मांगने वाले को लज्जित नहीं होना पड़े इसलिए श्यामसुंदर ने चुपचाप यह ऐश्वर्य दे दिया है।  सुदामा ऐश्वर्य पाकर भी अनासक्त रहे और भोगों से अपना चित्त हटा कर भजन में ही लगे रहे।  दोनों मित्रगण प्रभु श्री कृष्णजी और सुदामाजी को और उनकी मित्रता को सादर नमन। आप सभी को जय श्री कृष्ण - दुर्गा प्रसाद शर्मा       

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