अवधूत श्री दत्तात्रेय स्वामी एवं उनकी शिक्षा
अवधूत श्री दत्तात्रेय स्वामी जी श्री अत्रि ऋषि एवं सती अनसूया जी के पुत्र और भगवान विष्णु जी के अंश से अवतीर्ण हुवे थे। श्री दत्तात्रेय स्वामी जी का गुजरात में गिरनार पर्वत पर विष्णुपद आश्रम प्रसिद्द है। गिरनार पर्वत के अलावा भी कई स्थानों पर श्री दत्तात्रेय स्वामी जी के आश्रम एवं पादुका स्थान प्रसिद्द हैं, जिनमे गांगनापुर, माहुर, मणिकर्णिका घाट, कोल्हापुर, बांगर आदि स्थान हैं। मार्गशीर्ष (अगहन) माह की पूर्णिमा तिथि को भगवान श्री दत्तात्रेय स्वामी जी का प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। श्रीमद भागवत में परम धार्मिक राजा यदु के वृतान्त से दत्तात्रेय स्वामी जी के शिक्षा ग्रहण करने का जो उल्लेख मिलता है उससे यह प्रमाणित होता है कि गुरु सिर्फ मानवदेहधारी ही नहीं हो सकता है अपितु शिक्षा मानवदेहधारियों के अलावा पशु पक्षियों और कीट पतंगों से भी ग्रहण की जा सकती है। भगवान श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने इसी प्रकार से चौबीस पृथक पृथक गुरु बनाकर उनसे शिक्षा प्राप्त की थी।
एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय रूप से विचरण कर रहे हैं, उन्होंने उनसे पूछा कि ब्रह्मन आप कर्म तो करते नहीं फिर आपको अत्यंत निपुण बुद्धि कहाँ से प्राप्त हुई, जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान् होकर भी बालक समान विचरण करते हैं। राजा यदु के इस प्रकार पूछने पर श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने कहा राजन मैंने अपनी बुद्धि से गुरुओं का आश्रय लेकर उनसे शिक्षा ग्रहण की है और इस जगत में मुक्त भाव से विचरण करता हूँ। राजन मैंने पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंगा, मधुमक्खी, हाथी, मधु निकालने वाला, हरिण, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुंवारी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट इन चौबीस गुरुओं का आश्रय लेकर उनके आचरण से अपने लिए शिक्षा ग्रहण की है।
(१) पृथ्वी से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने पृथ्वी से धैर्य और क्षमा की शिक्षा प्राप्त की। लोग पृथ्वी पर अनेकानेक उत्पात करते हैं, परन्तु वह न तो किसी से बदला लेती है प्रकार का कोई विरोध ही करती है। धीर पुरुष को चाहिए कि वह कठिन से कठिन विपत्ति काल में भी अपनी धीरता और क्षमावृत्ति को न छोड़े और क्रोध न करे। सदैव ही सन्मार्ग पर चलता रहे। पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष से उन्होंने परहित की शिक्षा ग्रहण की। मानव मात्र को चाहिए कि वह उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे।
(२) वायु से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने शरीर स्थित प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की कि शरीर के अंदर रहने वाला प्राणवायु जिस प्रकार आहार मात्र की आकांशा रखता है और उसे प्राप्त कर संतुष्ट हो जाता है, उसी प्रकार साधक भी जीवन निर्वाह हेतु ही भोजन करे, इन्द्रियों की तृप्ति हेतु नहीं तथा शरीर के बाहर रहने वाली वायु जिस प्रकार सर्वत्र विचरण करते हुवे भी किसी में आसक्त नहीं होती, उसी प्रकार साधक को भी अपने को शरीर के बजाय आत्मा रूप में देखें। विषयों का उपयोग इस प्रकार से करना चाहिए जिससे कि बुद्धि विकृत नहीं हो, मन चंचल नहीं हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लगे।
(३) आकाश से शिक्षा - साधक को आत्मा की आकाश रूपता की भावना करना चाहिए। आग लगती है, पानी बरसता है, अन्नादि उत्पन्न होता है और नष्ट भी हो जाता है, वायु की प्रेरणा से बादल आते हैं और चले जाते हैं इसके बाद आकाश अछूता ही रहता है। आकाश की दृष्टी से यह सब कुछ नहीं है, इसी प्रकार से त्रिकाल में न जाने किन किन नाम रूपों सृष्टि और प्रलय होते हैं परन्तु आत्मा के साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं होता है।
(४) जल से शिक्षा - जिस प्रकार से जल स्वभाव से ही स्वच्छ, पवित्र, निर्मल और मधुर होता है तथा तीर्थों में प्रवाहित गंगा आदि के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से लोग पवित्र होते है वैसे ही साधक को भी स्वभाव से शुद्ध, मधुरभाषी और लोकपावन होना चाहिए, जिसके दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से लोक को पवित्रता का अनुभव हो। यह शिक्षा श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने जल से प्राप्त की थी।
(५) अग्नि से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने अग्नि से यह शिक्षा ग्रहण की है कि वह जिस प्रकार तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है उसे कोई भी अपने तेज से दबा नहीं सकता उसके लिए संग्रह परिग्रह के लिए कोई पात्र नहीं है, सब कुछ अपने पेट में रख लेती है। सर्वभक्षी होने पर भी निर्लिप्त है, उसी प्रकार से साधक को भी संसार में रहते हुवे भी निर्लिप्त होना चाहिए। अग्नि की तरह ही साधक को भी कहीं प्रकट कहीं अप्रकट तथा कल्याणकारी होना चाहिए। जैसे अग्नि लम्बी चौड़ी, सीधी टेढ़ी दिखाई पढ़ती है जबकि वास्तव में ऐसी नहीं होती है वैसे ही आत्मा भी अपनी माया से रचे हुवे जगत में व्याप्त होने के कारण उन उन वस्तुओं के नाम रूप को ग्रहण तो कर लेती है किन्तु वास्तव में होती नहीं है।
(६) चन्द्रमा से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएं घटती बढ़ती रहती है जबकि चन्द्रमा चन्द्रमा ही है वह न तो घटता है और न बढ़ता है। वैसे ही जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की है आत्मा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता है। जैसे आग और दीपक की लौ क्षण प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होती रहती है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है किन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता है। वैसे ही जल प्रवाह के समान वेगवान काल के द्वारा क्षण प्रतिक्षण प्राणियों के शरीर की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है किन्तु अज्ञानता के कारण वह दिखाई नहीं पड़ता है।
(७) सूर्य से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि सूर्य जिस प्रकार से अपनी किरणों से जल खींचते है और समय पर उसे बरसा भी देते हैं, उसी प्रकार साधक को भी चाहिए कि विषयों में आसक्त नहीं होवें और इन्द्रियों द्वारा समयानुकूल विषयों का ग्रहण और समुचित वितरण करता रहे। आत्मा सूर्य के सामान एक ही है।
(८) कपोत से शिक्षा - भगवान श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने कपोत से यह शिक्षा ग्रहण की है कि कही किसी के साथ अत्यंत स्नेह अथवा आसक्ति नहीं करना चाहिए अन्यथा उसकी बुद्धि भी स्वतंत्रता खोकर दीन हो जावेगी और अत्यंत ही क्लेश उठाना पड़ेगा। जो कुटुम्बी अपने कुटुंब के भरण पोषण सुध बुध खोकर लगा रहता है उसे कबूतर की भांति कभी भी सुख शांति नहीं मिलती है। कबूतर और कबूतरी अपने बच्चों को घोंसले में छोड़कर दाना चुगने चले गए, वापस लौटने पर देखा की एक व्याघ ने अपने जाल में उनके बच्चों को फंसा लिया है, कबूतरी ने बच्चों के स्नेह में अपने आपको जाल में जानबूझकर फंसा दिया। उसके बाद कबूतर ने भी अपनी पत्नी के प्रेम में व्याकुल होकर अपने आप को भी जाल में फंसा दिया। इस प्रकार मोहान्धता में सबकुछ नष्ट हो गया। यह मानव शरीर मुक्ति का द्वार है, इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपने घर गृहस्थी में ही फंसा हुआ रहता है वह बहुत ऊँचे स्थान पर सुरक्षित स्थिति प्राप्त करने पर भी गिर जाता है।
(९) अजगर से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने अजगर से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जीव को पूर्व कर्मानुसार सुख दुःख की प्राप्ति होती रहती है इसलिए बिना मांगे, बिना इच्छा किये स्वतः ही जो कुछ मिल जाये, वह चाहे रुखा सूखा हो, चाहे मधुर या स्वादिष्ट हो, थोड़ा या अधिक हो अजगर की तरह उसे खाकर ही बुद्धिमान पुरुष अपना जीवन निर्वाह करे।
(१०) समुद्र से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने समुद्र से यह शिक्षा ग्रहण की है कि साधक को सर्वदा प्रसन्न, गंभीर, अथाह, अपर और असीम होना चाहिए। उसे ज्वार भाटे और तरंगों से रहित समुद्र की तरह शांत रहना चहिये। समुद्र न तो वर्षा ऋतू में बढ़ता है और न ग्रीष्म ऋतू में घटता है उसी प्रकार से साधक को सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति से अथवा आभाव से प्रफुल्लित या उदास नहीं होना चाहिए।
(११) पतंगे से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने पतंगे से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जिस प्रकार पतंगा दीपक की लौ के रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला व्यक्ति जब रुपासक्त हो जाता है तब घोर अंधकार में गिरकर अपना सर्वनाश कर लेता है। आसक्ति एक ही विषय से सम्बंधित होने पर नाश का कारण होती है वैसी स्थिति में मनुष्य को तो सामान्य जीवों की अपेक्षा अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है क्योंकि वह पांच इन्द्रियों के माध्यम से विषयो में आसक्त हो जाने की स्थिति में रहता है।
(१२) मधुमक्खी से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने मद्युमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि मनुष्य किसी एक से बंधे नहीं, जिस प्रकार से मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से, चाहे वे छोटे हों या बड़े, सार संग्रह करती है वैसे हो बुद्धिमान पुरुष छोटे बड़े सभी से सार तत्व ग्रहण करे। साथ ही उसे संग्रही नहीं होना चाहिए अन्यथा वह मधुमक्खी के समान अपना जीवन भी संग्रहित धनलोभ में गवां देगा।
(१३) हाथी से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने हाथी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जिस प्रकार से शिकारी हाथी के माध्यम से ही हाथी को पकड़ता है और हाथी अपने स्वजन के मोह में अपने आप को बंधन में डाल देते है, ठीक उसी तरह मनुष्य को भी स्वजनों के मोह और मोहजनित भ्रम से बचना चाहिए क्योंकि यही बंधन का कारण हो जाता है।
(१४) मधु निकालने वाले से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने मधु निकालने वाले से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन संचय तो करते हैं किन्तु उसका स्वयं उपभोग नहीं कर पाते हैं , जैसे मधु निकालने वाले पुरुष का कष्ट से प्राप्त मधु कोई दूसरा ही ले लेता है। जैसे मधुमक्खी द्वारा संचित मधु को उसके खाने के पहले ही मधुमारी (मधु निकालने वाला) साफ कर देता है और धन के लालच में उस मधु को बेचकर स्वयं भी उसे भोगने से वंचित हो जाता है, उसी प्रकार लोभी और संग्रह की वृति से मोहग्रस्त व्यक्ति भी स्वयं कष्ट द्वारा उपार्जित और संग्रहित धन का वंचित रह जाता है।
(१५) हरिण से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने हरिण से यह शिक्षा ग्रहण की है कि मनुष्य को कभी भी विषय सम्बंधित गीत, जिससे वासना जाग्रत हो, नही सुनना चाहिए क्योंकि जैसे हरिण व्याघ के गीत को सुनकर उससे मोहित होकर बंध जाता है उसी प्रकार से विषय वासना की और प्रवृत करने वाले मधुर गीत, नृत्य, वाद, वचन अथवा शब्दों को विरत रहना चाहिए अन्यथा वह बंधन और नाश का कारण होता है।
(१६) मछली से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने मछली से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जिस प्रकार से मछली कांटे में फंसे हुवे मांस के टुकड़े के लोभ में अपने प्राण गवाँ देती है, वैसे ही स्वाद के वशीभूत मनुष्य भी अपनी जिव्हा के वश में अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठता है, विवेकी पुरुष को अपनी रसेन्द्रिय को अपने वश में रखना अत्यंत ही आवश्यक है।
(१७) पिंगला नामक वेश्या से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने स्वेच्छाचारी और रूपवती पिंगला नामक वेश्या से यह शिक्षा ग्रहण की है कि कभी कभी निराशा भी वैराग्य का कारण हो जाती है। एक बार पिंगला सुन्दर वस्त्र आभूषण धारण कर अपने ग्राहकों की प्रतीक्षा कर रही थी किन्तु उस दिन कोई भी ग्राहक नहीं आया तब उसे अपने व्यवसाय में निराशा होने पर वैराग्य उत्पन्न हो गया और उस अवस्था में उसने अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुवे जो गीत गया उसका आशय यह था कि आशा की फांसी पर लटक रहे मनुष्य को तलवार की तरह से काटने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह वैराग्य। पिंगला कहती है कि मैं अपनी इन्द्रियों के पराधीन होने के कारण इन दुष्ट पुरुषों के अधीन हो गई हूँ, मेरा यह शरीर माया मोह के हाथों बिक गया है। यह शरीर एक घर के समान है इसमें हड्डियों के टेड़े मेढे बांस और खम्बे लगे हुवे हैं, चमड़े, रोए तथा नाखुनो से यह छाया हुवा है। इसमें नौ दरवाजे हैं जिनसे मल निकलते रहते है इसमें संचित संपत्ति के नाम पर केवल मल मूत्र ही है। अब मैं भगवान का यह उपकार आदरपूर्वक स्वीकार करती हूँ कि उन्होंने इस निराशा के माध्यम से वैराग्य का दीप जला दिया है अब मैं परमात्मा में रमण करुँगी।
(१८) कुरर पक्षी से शिक्षा - श्री दत्तात्रेय स्वामी जी ने कुरर पक्षी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि प्रिय वस्तु का संग्रह ही दुःख का कारण है, ऐसा कहा जाता है कि कुरर पक्षी एक मांस का टुकड़ा लेकर उड़ा, उस समय मांस के टुकड़े को लेने के लिए अनेक पक्षी उसे मारने को उद्यत हो गए किन्तु उस पक्षी ने जैसे ही मुंह में रखा मांस का टुकड़ा जमीन की ओर गिराया वैसे ही सभी पक्षी उस ओर चले गए। जिस पर वह निश्चिन्त होकर पुनः आकाश में विचरण करने लगा। बुद्धिमान पुरुष को भी अनंत सुख स्वरुप परमात्मा की प्राप्ति के लिए कुरर पक्षी द्वारा संगृहित मांस का टुकड़ा फेंकने की तरह ही संचित धन का त्याग करके सुखी हो जाना चाहिए। त्याग के द्वारा ही मनुष्य निश्चिंत होकर जीवन यापन कर सकता है।
(१९) बालक से शिक्षा - मान अपमान का ध्यान न रखने वाले घर एवं परिवार की चिंता से मुक्त बालक से भगवान श्री दत्तात्रेय जी ने यह शिक्षा ग्रहण की है कि बालक को मान अपमान और परिवार की चिंता नहीं रहती है, उसी प्रकार से हमें भी अपने मान अपमान की चिंता नहीं करना चाहिए।
(२०) कुंवारी कन्या से शिक्षा - अतिथि सत्कार के लिए धन कूटने वाली कुंवारी कन्या से भगवान श्री दत्तात्रेय जी ने यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और जब दो लोग एक साथ रहते हैं तब वाद विवाद की सम्भावना रहती है। इसलिए कुंवारी कन्या की चूड़ी के समान जब तक वह अकेली नहीं हुई तब तक आपसी संघर्ष से और उससे उत्पन्न ध्वनि से वह अपने को छिपा न सकी थी। इसलिए साधक को एकांत सेवन की भी आवश्यकता उसके साधना काल में होती है।
(२१) बाण बनाने वाले से शिक्षा - बाण बनाने वाले से भगवान श्री दत्तात्रेय जी ने यह शिक्षा ग्रहण की कि बाण बनाने में वह इतना तल्लीन था कि राजा की सवारी भी गाजे बाजे के साथ उसके सामने से निकल गइ और उसे मालूम भी नहीं पड़ा। साधक को भी अभ्यास से द्वारा अपने मन को वश में करके उसे सावधानीपूर्वक अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगा देना चाहिए।
(२२) सर्प से शिक्षा - साधक को सर्प की भांति अकेले ही विचरण करना चाहिए, घर नहीं बनाना चाहिए, अत्यंत ही कम बोले और किसी से सहायता नहीं ले जहाँ जैसा स्थान और परिस्थिति मिल जाय उसी में आराम से अपना समय व्यतीत कर ले, यह शिक्षा भगवान श्री दत्तात्रैय स्वामी जी ने सर्प से ग्रहण की है।
(२३) मकड़ी से शिक्षा - मकड़ी अपने ह्रदय से मुंह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है उसी प्रकार परमेश्वर भी इस जगत को अपने में से उत्पन्न करते है और फिर जीव रूप से उसमें विहार करते हैं और अंत में उसे अपने में ही लीन कर लेते हैं, यह शिक्षा भगवान श्री दत्तात्रैय स्वामी जी ने मकड़ी से ग्रहण की है।
(२४) भृंगी (बिलनी) कीड़े से शिक्षा - यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से, जानबूझकर अथवा भय से भी एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा ले तो उसे उसी वस्तु का स्वरुप प्राप्त हो जाता है, जैसे भृंगी किसी कीड़े को ले जाकर अपने रहने की जगह में बंद कर देता है, तब वह कीड़ा भय से उसी का चिंतन करते करते पहले शरीर का त्याग किये बिना उसी शरीर के अनुरूप हो जाता है इसलिए मानव को भी विषयों का चिंतन नहीं करके केवल परमात्मा का चिंतन करना चाहिए। यह शिक्षा भगवान श्री दत्तात्रैय स्वामी जी ने भृंगी कीड़े से ग्रहण की है।
इस प्रकार से भगवान श्री दत्तात्रैय स्वामी जी ने यह शिक्षा दी है कि साधक यदि उन्मुक्त भाव से शिक्षा ले तो उसे अच्छे बुरे, छोटे बड़े सभी से उपयुक्त ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। मानव जब मोहवश या किसी कारण से सच को सच मानने से इंकार करता है तो उसे ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है। मानव को जिव्हा अपनी ओर खींचती है तो प्यास जल की ओर त्वचा और कान कोमल स्पर्श और मधुर शब्द की और खींचते हैं तो नाक और नेत्र भी मधुर गंध और सुन्दर दृश्यों की और खींचते हैं, इस प्रकार मानव जीवन भर दौड़ता ही रहता है इसलिए इस दुर्लभ मानव जीवन को पाकर बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी मृत्यु के पहले ही शीघ्रता से इस बंधनो को समझे और इससे मुक्ति का और मोक्ष की प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। दिगम्बरा दिगंबरा श्री पाद वल्ल्भ दिगम्बरा।
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