दादाजी धूनीवाले
श्री श्री १००८ श्री केशवानंद जी महाराज जोकि दादाजी धूनीवाले के नाम से सभी की स्मृति में विद्यमान हैं। भारत के महान संतों में उनका नाम पूर्ण आस्था और सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रतिदिन पवित्र अग्नि (धूनी) के समक्ष ध्यानमग्न बैठने के कारण लोग उन्हें धूनी वाले दादाजी के नाम से स्मरण करने लगे थे। कहा जाता है कि वे सदैव घूमते रहते थे, यह भी मान्यता है कि वे शिव तथा दत्तात्रय भगवान के अवतार थे। दादाजी धूनीवाले के दरबार में आने से बिनमांगी मुराद पूरी होने की भी कई कथाएँ प्रचलित है। दादाजी ने सम्पूर्ण भारत में यात्रा कर अंत में दादाजी ने मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में समाधि ली थी वहीं पर उनका दरबार उनके समाधि स्थल पर विद्यमान है, जहाँ दादाजी के समय से ही आज तक निरंतर धूनी प्रज्वलित है। देश विदेश में दादाजी के असंख्य भक्त हैं,जो प्रत्येक वर्ष गुरु पूर्णिमा पर दादाजी के धाम पर उनका आशीर्वाद लेने आते हैं।
धूनीवाले दादाजी का जन्म कब और कहाँ हुआ यह कोई नहीं जानता, महाराज गौरीशंकर जी ने नर्मदा नदी के किनारे उन्हें ७-८ साल के बच्चे के रूप में देखा था। ऐसी भी मान्यता है कि मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में दादाजी का जन्म हुआ था। दादाजी अपने साथ एक छड़ी रखते थे तथा जहाँ भी जाते थे अपनी धूनी जलाकर धूनी के समक्ष ही बैठते थे। दादाजी का आशीर्वाद देने का अनोखा तरीका था, कहा जाता है कि वे जिसे आशीर्वाद देना चाहते कटु शब्दों में उसकी आलोचना करते हुए उसे छड़ी से भी मारते थे। धूनीवाले दादाजी का जीवन चरित्र तीन चरणों में देखा जा सकता है। प्रथम बचपन से महाराज श्री गौरीशंकर जी की जमात में शामिल होने तक, द्वितीय स्वामी रामफल महाराज के रूप में और तृतीय साईखेड़ा से खंडवा तक।
महाराज श्री गौरीशंकर जी एक महान तपस्वी संत थे, १८ वीं सदी में गौरीशंकरजी महाराज माँ नर्मदा से अपने पिता अर्थात भगवान शिव के साक्षात् दर्शन की अभिलाषा करते हुवे अपनी जमात के साथ नर्मदा नदी की परिक्रमा कर रहे थे, उसी समय नर्मदा नदी के किनारे दादाजी एक ७-८ साल की आयु के बालक के रूप मे उन्हें मिले, जो बाद में उनकी जमात में शामिल हो गए। जैसे ही उन्होंने १२ परिक्रमा पूर्ण की माँ नर्मदा ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि जमात में शामिल किशोर सन्यासी (दादाजी) स्वयं भगवान शिव है। महाराज श्री गौरीशंकर जी ने जब अपनी अभिलाषा पूर्ति के उद्देश्य से बालक की ओर देखा तो उन्होंने बालक को साक्षात शिवजी के स्वरुप में देखा तब से दादाजी को शिवजी के अवतार के रूप में देखा जाने लगा, वही महाराष्ट्र के नाथ सम्प्रदाय में सभी सिद्ध संतो के गुरु भगवान श्री दत्तात्रय जी के अवतार के रूप में माना जाता है। सन १८६० के आसपास दादाजी ने हिमालय यात्रा की उसी समय वे नेपाल भी गए थे। महाराज श्री गौरीशंकर जी ने सन १८८८ जमात के नए संत के रूप में दादाजी के नाम की घोषणा की और उसी वर्ष नर्मदा नदी में उन्होंने समाधि ली।
यह भी मान्यता है कि सन १८९२ के आसपास होशंगाबाद में दादाजी दिगंबर रूप में रामफल दादा के रूप में रहे और कई चमत्कार किये, तीन साल वहाँ रूककर एक दिन उन्होंने कुवे में गिरकर अपनी आत्मा को मुक्त कर दिया। इसके बाद कहा जाता है कि कुछ महीनों बाद सोहागपुर के इमलिया जंगल में एक पेड़ के नीचे दिगंबर स्वरुप में अपनी धूनी जलाये बैठे देखे गए और गांव वालों की विनती पर वे नरसिंगपुर चले गए जहाँ उन्होंने फिर से अपने प्राण त्याग ब्रह्माण्ड में विलीन हो गए। इसके बाद दादाजी एक बार फिर रामफल दादा के रूप में सिस्सिरी संदूक नामक गांव में प्रकट हुवे। ऐसा कहा जाता है कि सन १९०७ में कुछ चरवाहों को पर्वत पर एक बड़ा सा साँप बैठा दिखाई दिया तो वे अपने मालिक को साथ लेकर पर्वत पंहुचे तो वहाँ साँप तो दिखाई नहीं दिया बल्कि मिट्टी का ढ़ेर था जिसमें दो चमकती हुई आंखें दिखाई दी, मिट्टी हटाने पर वहाँ दिव्य ऋषि को बैठे देखा। ऋषि बोले मैं रामफल हूँ और यहाँ ध्यान करने बैठा हूँ आपको क्या चाहिए। तब गांव वाले उन्हें अपने गांव सांईखेड़ा लेकर गए। सांईखेड़ा में दादाजी कई वर्षों तक रहे और कई लीलाए की कई चमत्कार कर कईयों का इलाज भी किया। यह दादाजी का एक ही रूप में तीसरा भौतिक जन्म था, जिसमे वे लोकप्रिय दादाजी धूनीवाले के नाम से बुलाये जाने लगे। सांईखेड़ा से दादाजी चिअप्पनेर, बागली, इंदौर, नवघटखेड़ी होते हुवे आखिर में खंडवा पंहुचे, जहाँ १९३० में उन्होंने महासमाधि ली और अपनी लीलाओं को पुनर्विराम दिया। कहा जाता है कि उसके बाद भी उन्होंने कई लीलाएं की और दर्शन भी दिए।
दादाजी के जीवन में कई घटनाए ऐसी भी घटी जिसमे उन्होंने किसी को मृत्यु के बाद जीवन दिया। एक बार एक महिला अपने बच्चे को लेकर दादाजी के पास आई और बोली दादाजी मेरा बच्चा सोया था उठ ही नहीं रहा है, मेरी मदद करो तो दादाजी ने उस बच्चे को गोद में लिया और जलती धूनी में डाल दिया। जिसपर महिला दादाजी को काफी भलाबुरा कहने लगी तो दादाजी बोले शांत होकर अपने बच्चे को आवाज दो, महिला के चिल्लाने से काफी लोग इकट्ठा हो गए थे, महिला ने जैसे ही बच्चे को पुकारा बच्चा भीड़ में से बाहर निकल आया। इसी प्रकार एकबार एक कुत्ता मर गया था जिसे दादाजी ने अपने कम्बल में बांध कर घुमा करते थे और अपने हाथों के नीचे उसे दबाया भी करते थे। लोगों ने पूछा आप इस मरे हुवे कुत्ते को लेकर क्यों घूमते हो तो उन्होंने कुत्ते पर अपना डंडा घुमाया कुत्ता उठकर भौकते हुवे भाग गया।
एक बार सालिगराम पटेल नाम का व्यक्ति दादाजी का आशीर्वाद लेने आया, वह कई दिन दादाजी के साथ रहा पर उसे अपने घर व परिवार के पास वापस जाने की अनुमति नहीं मिली। एक दिन जमात के साधुओं के साथ बैठे दादाजी ने उसे माँ नर्मदा से थोड़ा पानी लाने का कहा। पानी लाने पर उसे अपने धूनी पर डालने को कहा। पानी डालते ही दादाजी ने उसे कोसते हुवे फ़ौरन अपने घर जाने का आदेश दिया। वह व्यक्ति रात्रि में बगैर किसी साधन के घर जाने के बारे में संकोच करने लगा किन्तु दादाजी की आज्ञा का पालन करते हुवे निकल पड़ा, किसी तरह अपने गांव पंहुचा। गांव पहुंचने पर देखा कि उसके घर को छोड़कर पूरा गांव आग में जलकर राख हो था। तब उसे ज्ञान हुआ कि दादाजी ने धूनी में पानी क्यों डलवाया था। अपनी सेवा में रहने वालो का ध्यान दादाजी सदैव रखते थे।
दादाजी को बच्चों से काफी लगाव था, एक दिन एक बच्चा रात में स्ट्रीट लाइट के नीचे पढ़ाई कर रहा था, तब संदेह के आधार पर पुलिसकर्मी ने उसे हवालात में डाल दिया। दादाजी को इस बात की जानकारी होने पर उन्होंने छड़ी से सारी स्ट्रीट लाइट तोड़ दी। तब पुलिसकर्मी ने उन्हें भी बच्चे के साथ हवालात में डाल दिया। जब वह ताला लगा कर बाहर आया तो दादाजी को छड़ी लिए खड़े देखा तो दौड़ते हुवे वापस आया तो दादाजी को हवालात में खड़ा पाया। दादाजी की इस लीला से डरकर उसने तुरंत ही दादाजी और उस बच्चे को छोड़ दिया।
इसी प्रकार एक अन्य लीला का प्रसंग है बहुत बड़ी संख्या में भक्तगण एकबार दादाजी से मिलने आये उनमे कुछ नरसिंगपुर के भी थे, उन्होंने दादाजी से गांव आने की विनती की। दादाजी जब वहाँ गए तो एक प्रेमदास नामक व्यक्ति के यहाँ ठहरे, वह कर्जे में था और दरिद्रता के बोझ से दबा होने के बाद भी उसने दादाजी की खूब सेवा की। एक दिन दादाजी ने नर्मदा नदी से एक मुट्ठी रेत लाने को कहा, जब प्रेमदास रेत लेकर आया तो दादाजी ने मुस्कुराते हुए उस रेत को सोने में बदल कर प्रेमदास को देकर कहा कि कर्ज उतार दे और आगे ध्यान रखे ताकि कर्ज नहीं हो। ऐसी ही असंख्य लीलाएँ दादाजी की है जिन सभी का बखान किया जाना संभव नहीं है।मैंने जो सुना या पढ़ा उस अनुसार वर्णन करने का प्रयास किया, कोई त्रुटि हुई हो तो दादाजी महाराज धूनीवाले क्षमा करें। दादाजी के श्री चरणों में दंडवत प्रणाम।
इसी प्रकार एक अन्य लीला का प्रसंग है बहुत बड़ी संख्या में भक्तगण एकबार दादाजी से मिलने आये उनमे कुछ नरसिंगपुर के भी थे, उन्होंने दादाजी से गांव आने की विनती की। दादाजी जब वहाँ गए तो एक प्रेमदास नामक व्यक्ति के यहाँ ठहरे, वह कर्जे में था और दरिद्रता के बोझ से दबा होने के बाद भी उसने दादाजी की खूब सेवा की। एक दिन दादाजी ने नर्मदा नदी से एक मुट्ठी रेत लाने को कहा, जब प्रेमदास रेत लेकर आया तो दादाजी ने मुस्कुराते हुए उस रेत को सोने में बदल कर प्रेमदास को देकर कहा कि कर्ज उतार दे और आगे ध्यान रखे ताकि कर्ज नहीं हो। ऐसी ही असंख्य लीलाएँ दादाजी की है जिन सभी का बखान किया जाना संभव नहीं है।मैंने जो सुना या पढ़ा उस अनुसार वर्णन करने का प्रयास किया, कोई त्रुटि हुई हो तो दादाजी महाराज धूनीवाले क्षमा करें। दादाजी के श्री चरणों में दंडवत प्रणाम।
जय श्री श्री १००८ धूनीवाले दादाजी के चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम।
ReplyDeleteनिशा जोशी
🙏 संत भगवान को प्रणाम !!!!
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