प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली


प्राचीन काल में भारतीय वैदिक विधान के अनुसार बालक का प्रथम विद्यालय माता का गर्भ ही माना जाता था। इसीलिए जिस समय स्त्री गर्भवती होती थी, तब हमारे बुजुर्ग लोग कहा करते थे कि उस समय प्रसूता को धार्मिक कथाएँ पढ़ना सुनना, अच्छी बातें, अच्छा आचरण और व्यवहार वाले वातावरण में रहने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए और उस समय जितना अधिक हो सके उसे खुश रहने को कहा जाता था। यह भी कहा जाता है कि प्रसूता को जैसा वातावरण मिलता है, आने वाली संतान पर भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है।  इसी प्रकार से प्रसूता को यह भी समझाईश दी जाती रही है कि उसे इस काल में क्रोध एवं किसी भी प्रकार के राग द्वेष से भी दूर रहना चहिये। परमवीर योद्धा अभिमन्यु के प्रसंग से भी यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि जिस समय अभिमन्यु माता उत्तरा के गर्भ में था, उस समय पिता अर्जुन द्वारा बातों ही बातों में चक्रव्यूह के भेदन की चर्चा करने मात्र से उसे चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान हो गया था, किन्तु माता उत्तरा को अर्जुन की पूरी बात सुनने के पहले ही नींद आ जाने से चक्रव्यूह से  निकलने का ज्ञान उसे नहीं हो सका था।


वैदिक विधान में बताये अनुसार सोलह संस्कारों में से तीन संस्कार जोकि गर्भावस्था के समय उसी काल में संपन्न हो जाते हैं, जिनसे गर्भस्थ बालक के कल्याण के साथ उसके तेज और पराक्रम, बुद्धि एवं वर्चस्व प्राप्ति की मंगल कामना भी होती है। बालक के जन्म के बाद उसकी माता ही उसकी प्रथम गुरु होकर बच्चों को समय पर सोने, उठने, भोजन करने, बुजुर्गों का आदर एवं सम्मान करने के साथ साथ बोलचाल का अभ्यास तो कराती ही है, साथ ही उसे संस्कार भी प्रदान करती है। माता की इस शिक्षा की अवधि मुख्य रूप से बालक की तीन वर्ष की आयु तक की मानी जाती है। माता के बाद पिता ही उस बालक का दूसरा गुरु होता है, जो बालक को सामाजिक, धार्मिक व्यवहार, आस पड़ौस के लोगों से तथा परिवारजनों के साथ किस प्रकार का आचरण करना है, यह सिखाता है।  साथ ही व्यावसायिक ज्ञान का रोपण भी वहीं से हो जाता है, जिसमें अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान भी सम्मिलित होता है। पिता की इस शिक्षा की अवधि बालक की पाँच वर्ष आयु तक मानी गई है।  बालक के जन्म से लेकर पिता के गुरुत्व वाले समय में सोलह संस्कारों में से सामान्यतः सात संस्कार बालक के जन्म से लेकर इस समय तक संपन्न किये जाते हैं।  

इस प्रकार कुल दस संस्कारों से संस्कारित होने के बाद ग्यारहवें संस्कार के साथ ही बालक को तीसरे गुरु का सानिध्य प्राप्त होता है।  इस सानिध्य के लिए बालक गुरुकुल अथवा विद्यालय में भेजा जाता है जहां उसे गुरु के प्रति आदर, श्रद्धा एवं सेवा का भाव, सहपाठियों के साथ स्नेह, सहयोग, सेवा और सद्भाव के साथ व्यवहारिक और जीवनोपयोगी शिक्षा मिलती है।  प्राचीन भारत में शिक्षा की सबसे महत्वपूर्ण संस्थाएँ गणमान्य विद्वानों द्वारा स्थापित समूह अथवा संस्थाएँ हुआ करती थी, जोकि समय समय पर सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक समस्याओं पर विचार करके धर्म एवं नीति अनुसार निर्णय करती थी।  जिस व्यवस्था को राजा और प्रजा दोनों के ही द्वारा मान्य किया जाता था।  इन समूहों अथवा संस्थाओं में परम विद्वान, नीतिज्ञ, विवेकशील एवं निष्पक्ष, वेद, धर्म शास्त्र एवं नीति के प्रकाण्ड विद्वान् एवं पंडित महापुरुष रहते थे, जिनसे समय समय पर जिज्ञासु, विद्याप्रेमी तथा विद्वान लोग भी अपनी शंकाओं का समाधान करवाने आते थे।  इन संस्थाओं  को ही गुरुकुल कहा जाता था।  इनमें शिक्षा देने वाले गुरुजन बालक के तीसरे गुरु होते हैं।  इन  गुरुजनों के सानिध्य प्राप्ति में सोलह संस्कारों में से ग्यारहवां संस्कार और इनसे विदाई के समय बारहवें संस्कार से बालक संस्कारित हो जाता था।

आदर्श वैदिक शिक्षा के मूल तत्व जोकि व्यावहारिक शिक्षा के साथ साथ उपरोक्त तीनों गुरुजन अर्थात माता, पिता और गुरुजन द्वारा प्रदान किये जाते थे, वे इस प्रकार हैं -- सत्य बोलो, धर्म का पालन करो, स्वाध्याय  देवकार्य एवं पितृकार्य में प्रमाद नहीं करना, माता, पिता, आचार्य एवं अतिथि को देवता मानो, श्रेष्ठ कर्मो का ही चयन करो, सद आचरण का अनुसरण करो, श्रद्धा पूर्वक देने का भाव रखना चाहिए,  अन्न की निंदा नहीं करो, शरण में आये हुवे का परित्याग मत करो,  जुआं नहीं खेलना, परस्त्री में मातृभाव देखना, मनुष्य और पशु पक्षी को मन, कर्म तथा वचन से कष्ट मत दो, गौ रक्षा करो उसके साथ हिंसा मत करो, मांस मदिरा का सेवन नहीं करना, पराये धन का लोभ नहीं करना, यज्ञादि कर्म करते हुवे अपनी सामर्थ्य अनुसार परोपकार करना चाहिए, छल कपट से मानव समाज का नाश करने वाले और निरपराध मनुष्य को कष्ट देने वाले क्षमा योग्य नहीं होते, वृद्धजन की सेवा में तत्पर रहें, सम्पत्ति का दुरूपयोग नहीं करें, ईश्वर सर्वत्र है, ऐसा सोचकर ईश्वर प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहें, स्त्रियों की शोभा लज्जा है. ब्राह्मणों का भूषण वेद है, सबका भूषण धर्म है, सुख का मूल धर्म है, सत्य के पथ पर चलो, असतो माँ सदगमय - मुझे असत से सत की ओर ले चलो, तमसो माँ ज्योतिर्गमय - मुझे तम से प्रकाश की ओर ले चलो,  मृत्योर्मामृतं गमय - मुझे मृत्यु से अमरता की ओर प्रवृत करो, त्यागपूर्वक भोग करो, गौ माता को नमन करो, उठो जागो और महापुरुषों से ज्ञान प्राप्त करो, कार्य करते हुए दीर्घायु होने की कामना करो, किसी भी ऋतु की निंदा मत करो, विनय का मूल विनम्र धारण करना है तथा विद्या ही सब कुछ है।

इनमें से आज की व्यवहारिक और व्यावसायिक शिक्षा के साथ हमारे बच्चों को कितनी शिक्षा मिल पा  रही है, या कितनी शिक्षा हम उन्हें दे पा रहे हैं, इसका आकलन करना अत्यंत ही आवश्यक है।  इसके साथ ही इस बात का आकलन भी अत्यंत आवश्यक है कि  हम इनमें  से कितनी बातों का अनुसरण अथवा पालन कर पा रहे हैं और यदि नहीं कर पा रहे तो क्यों नहीं कर पा रहे  हैं।  आइये हम सभी यह निश्चय करें कि हम इन सभी का पालन करने का प्रयास तो कर ही सकते हैं।  सो आज से ही अपने अपने प्रयास प्रारम्भ कर अपने बच्चों तक इसे पंहुचायें। जय माँ भारती।  

          









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