भक्त के माध्यम से भक्तों का गर्व दमन
द्वापर युग में भगवान श्री नारायण ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया था, वहीं त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था। श्री राम और श्री कृष्ण दोनों अलग अलग युग में अवतरित होकर भी थे तो एक ही। प्रभु श्री राम के परम भक्त हनुमान जी का स्मरण तो प्रभु के साथ ही किया जाता है। भगवान अपने प्रिय भक्तों को अभिमान से ग्रस्त नहीं रहने देना चाहते है, और जितना जल्दी हो अभिमान से उसे मुक्त करा देते हैं।
एक बार श्री कृष्ण जी के मन में विचार आया कि अपने भक्त कहलाने वाले तथा सेवकों के मन में अभिमान प्रवेश कर गया है, जिसे दूर करना आवश्यक है। इसके लिए उन्होनें अपनी लीला से हनुमान जी को अपने पास बुलाने का निश्चय किया, उनके निश्चय मात्र से ही हनुमान जी द्वारका के निकट ही एक उपवन में आ गए और राम नाम का संकीर्तन करते हुए विचरण करने लगे।
प्रभु श्री कृष्ण ने अपनी पटरानी सत्यभामा को स्वर्ग से पारिजात वृक्ष लाकर दिया था, इससे सत्यभामा जी को यह गर्व हो गया था कि श्रेष्ठ सुन्दरी होने के कारण श्री कृष्ण का उनके प्रति अधिक स्नेह है। अपने सौंदर्य के अभिमान में आकर उन्होंने एक बार प्रभु श्री कृष्ण से यह तक पूछ लिया था कि क्या जानकी जी मुझसे भी सुन्दर थीं, जो आपने रामावतार में वन में भटकते हुवे विलाप किया था । प्रभु श्री कृष्ण चुप ही रहे।
सत्यभामा की ही तरह सुदर्शन चक्र को भी गर्व हो गया था कि देवराज इंद्र के वज्र को भी उन्होंने पराजित कर दिया है। इसी प्रकार गरुड़ को भी अभिमान था कि श्री कृष्ण ने उनके ही सहयोग से इंद्र पर विजय प्राप्त की थी, साथ ही तीव्र वेग से उड़ने का भी गर्व था। इन सभी के गर्व का नाश करने का विचार श्री कृष्ण जी ने करते हुए गरुड़ को आदेश दिया कि द्वारका के उपवन में एक वानर है, उसे पकड़ कर शीघ्र मेरे पास ले आओ, साथ ही यह भी कहा कि यदि उसे पकड़ कर मेरे पास लाने का साहस हो तो अकेले जाओ अन्यथा अपने साथ सैनिकों को लेकर जाओ। गरुड़ ने मन ही मन सोचा कि एक अकेले साधारण से वानर को पकड़ कर लाने के लिए भगवान मुझे भेज रहे हैं और यह भी कह रहे हैं कि अकेले न पकड़ सको तो सैनिकों को साथ लेकर जाओ। यह तो बड़ी लज्जा की बात है, ऐसा सोचकर गरुड़ अकेले ही पंहुचे। वहां देखा कि हनुमानजी की पीठ उनकी ओर थी तथा वे राम नाम संकीर्तन करते हुए फल खा रहे थे। गरुड़ ने उन्हें डरा धमका कर ले जाने का प्रयास किया, किन्तु हनुमानजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब गरुड़ ने उन पर आक्रमण कर दिया, हनुमानजी भी उनके साथ खेलते हुवे मुस्कुराते रहे, परन्तु जब गरुड़ नहीं माने तो उन्होंने गरुड़ को अपनी पूंछ में बांधकर दबा दिया। गरुड़ जी छटपटाते हुवे बोले श्री कृष्ण जी की आज्ञा से आपको बुलाने आया हूँ। इस पर हनुमान जी ने उन्हें छोड़ते हुवे कहा कि वैसे तो श्री राम और श्री कृष्ण एक ही है, किन्तु मैं श्री राम का सेवक हूँ, इस कारण श्री कृष्ण के पास जाना उचित नहीं समझता हूँ।
गरुड़ जी का गर्व अभी भी विध्यमान था, वे सोचने लगे की यदि मैं पकड़ा न गया होता तो इन्हें बलपूर्वक ले जा सकता था। यह सोचकर उन्होंने हनुमान जी पर फिर से आक्रमण कर दिया। भगवान श्री कृष्ण का दूत जानकर हनुमान जी ने उनपर प्रहार नहीं कर मात्र हल्के हाथ से पकड़ कर समुद्र में फेंक दिया। समुद्र में गिरने पर गरुड़ काफी देर तक छटपटाते रहे और कोई उपाय न देखकर श्री कृष्ण जी का ध्यान करने पर वहाँ से निकल कर द्वारका में पंहुचे। श्री कृष्ण जी ने उनकी बात सुनी और मुस्कुराए। अभी भी गरुड़ के मन में तीव्र गति से उड़ने का गर्व शेष था।
भगवान कृष्ण ने गरुड़ को कहा कि तुम फिर जाओ और कहना कि श्री राम ने बुलाया है, अतिशीघ्र चलो। उन्हें साथ लेकर ही आना। गरुड़ जी पुनः जाने की बात सोचकर ही भयभीत हो रहे थे, तब श्री कृष्ण जी उनकी मंशा समझकर बोले कि अब वे तुमसे कुछ नहीं कहेंगे। इधर श्री कृष्ण जी ने सत्यभामा जी को कहा कि वे सीता का रूप धारण करके आवें, हनुमान जी आ रहे है। साथ ही सुदर्शन चक्र को आदेश दिया कि सावधानीपूर्वक पहरा दो। कोई भी द्वारका में प्रवेश नहीं करने पाए। सत्यभामा जी अपने सौन्दर्य के गर्व में मत्त होकर सीता जी का रूप धारण कर श्री कृष्ण जी के वाम भाग में आकर बैठ गई। सुदर्शन चक्र द्वारका के द्वार पर पहरा देने लगे और श्री कृष्ण स्वयं धनुष बाण धारण कर श्री रामचन्द्र जी के स्वरूप में विराजमान हो गए।
गरुड़ जी डरते डरते जिस उपवन में हनुमानजी विराजित थे, वहां पंहुचे तथा उनके पास नहीं जाकर दूर से ही बोले कि प्रभु श्री राम ने आपको जल्द ही बुलाया है, आप मेरे कंधे पर बैठ जाऐ ताकि चलने में देर न हो। हनुमान जी ने अत्यंत प्रसन्न होकर कहा कि मेरा परम सौभाग्य है कि मेरे प्रभु श्री राम ने मुझे बुलाया है। तुम चलो मैं आता हूँ। गरुड़ जी ने सोचा कि ये मुझसे पीछे चलकर देर से ही पंहुचेंगे, परन्तु भयभीत भी थे और हनुमान जी से कुछ कहने का साहस भी नहीं कर पा रहे थे। अतः वे चुपचाप वहां से चल पड़े।
हनुमान जी गरुड़ जी से पहले ही द्वारका में आ चुके थे। द्वारका के द्वार पर पहरा दे रहे सुदर्शन चक्र ने जोरदार शब्दों में हनुमान जी से कहा कि ठहरो मैं द्वारका में प्रवेश नहीं करने दूंगा। हनुमान जी बोले तुम भगवान के दर्शन में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकते हो, ऐसा कहकर हनुमान जी ने सुदर्शन चक्र को पकड़ कर अपने मुख में रख लिया और महल में जा पंहुचे।
महल में जाकर उन्होंने देखा कि प्रभु श्री राम सिंहासन पर विराजमान हैं किन्तु माता जानकी के दर्शन नहीं हो रहे हैं, उन्होंने प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम करके पूछ ही लिया कि प्रभु माता जानकी दिखाई नहीं पड़ रही हैं और उनके स्थान पर यह कौन बैठी है, आपने किस दासी को इतना सम्मान दे दिया। सत्यभामा जी लज्जित हो गई और उनका सौंदर्य का गर्व जाता रहा। भगवान ने हनुमान जी से पूछा तुम्हें यहाँ आने से किसी ने रोका तो नहीं, यहाँ तक कैसे पंहुचे। तब हनुमान जी ने अपने मुख से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के चरणों रख दिया। सुदर्शन चक्र भी लज्जित हो गए और उनका भी गर्व नष्ट हो गया। इसके बाद बड़ी तेजी से गरुड़ जी आये और जब उन्होंने पहले से ही हनुमान जी को वहां बैठे देखा तो उनका भी तीव्र गति से उड़ने का गर्व भी नष्ट हो गया। इस प्रकार से भगवान ने श्री हनुमान जी के माध्यम से तीनों के गर्व को नष्ट करवा दिया। जय श्री कृष्ण।
गरुड़ जी का गर्व अभी भी विध्यमान था, वे सोचने लगे की यदि मैं पकड़ा न गया होता तो इन्हें बलपूर्वक ले जा सकता था। यह सोचकर उन्होंने हनुमान जी पर फिर से आक्रमण कर दिया। भगवान श्री कृष्ण का दूत जानकर हनुमान जी ने उनपर प्रहार नहीं कर मात्र हल्के हाथ से पकड़ कर समुद्र में फेंक दिया। समुद्र में गिरने पर गरुड़ काफी देर तक छटपटाते रहे और कोई उपाय न देखकर श्री कृष्ण जी का ध्यान करने पर वहाँ से निकल कर द्वारका में पंहुचे। श्री कृष्ण जी ने उनकी बात सुनी और मुस्कुराए। अभी भी गरुड़ के मन में तीव्र गति से उड़ने का गर्व शेष था।
भगवान कृष्ण ने गरुड़ को कहा कि तुम फिर जाओ और कहना कि श्री राम ने बुलाया है, अतिशीघ्र चलो। उन्हें साथ लेकर ही आना। गरुड़ जी पुनः जाने की बात सोचकर ही भयभीत हो रहे थे, तब श्री कृष्ण जी उनकी मंशा समझकर बोले कि अब वे तुमसे कुछ नहीं कहेंगे। इधर श्री कृष्ण जी ने सत्यभामा जी को कहा कि वे सीता का रूप धारण करके आवें, हनुमान जी आ रहे है। साथ ही सुदर्शन चक्र को आदेश दिया कि सावधानीपूर्वक पहरा दो। कोई भी द्वारका में प्रवेश नहीं करने पाए। सत्यभामा जी अपने सौन्दर्य के गर्व में मत्त होकर सीता जी का रूप धारण कर श्री कृष्ण जी के वाम भाग में आकर बैठ गई। सुदर्शन चक्र द्वारका के द्वार पर पहरा देने लगे और श्री कृष्ण स्वयं धनुष बाण धारण कर श्री रामचन्द्र जी के स्वरूप में विराजमान हो गए।
गरुड़ जी डरते डरते जिस उपवन में हनुमानजी विराजित थे, वहां पंहुचे तथा उनके पास नहीं जाकर दूर से ही बोले कि प्रभु श्री राम ने आपको जल्द ही बुलाया है, आप मेरे कंधे पर बैठ जाऐ ताकि चलने में देर न हो। हनुमान जी ने अत्यंत प्रसन्न होकर कहा कि मेरा परम सौभाग्य है कि मेरे प्रभु श्री राम ने मुझे बुलाया है। तुम चलो मैं आता हूँ। गरुड़ जी ने सोचा कि ये मुझसे पीछे चलकर देर से ही पंहुचेंगे, परन्तु भयभीत भी थे और हनुमान जी से कुछ कहने का साहस भी नहीं कर पा रहे थे। अतः वे चुपचाप वहां से चल पड़े।
हनुमान जी गरुड़ जी से पहले ही द्वारका में आ चुके थे। द्वारका के द्वार पर पहरा दे रहे सुदर्शन चक्र ने जोरदार शब्दों में हनुमान जी से कहा कि ठहरो मैं द्वारका में प्रवेश नहीं करने दूंगा। हनुमान जी बोले तुम भगवान के दर्शन में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकते हो, ऐसा कहकर हनुमान जी ने सुदर्शन चक्र को पकड़ कर अपने मुख में रख लिया और महल में जा पंहुचे।
महल में जाकर उन्होंने देखा कि प्रभु श्री राम सिंहासन पर विराजमान हैं किन्तु माता जानकी के दर्शन नहीं हो रहे हैं, उन्होंने प्रभु को साष्टांग दंडवत प्रणाम करके पूछ ही लिया कि प्रभु माता जानकी दिखाई नहीं पड़ रही हैं और उनके स्थान पर यह कौन बैठी है, आपने किस दासी को इतना सम्मान दे दिया। सत्यभामा जी लज्जित हो गई और उनका सौंदर्य का गर्व जाता रहा। भगवान ने हनुमान जी से पूछा तुम्हें यहाँ आने से किसी ने रोका तो नहीं, यहाँ तक कैसे पंहुचे। तब हनुमान जी ने अपने मुख से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के चरणों रख दिया। सुदर्शन चक्र भी लज्जित हो गए और उनका भी गर्व नष्ट हो गया। इसके बाद बड़ी तेजी से गरुड़ जी आये और जब उन्होंने पहले से ही हनुमान जी को वहां बैठे देखा तो उनका भी तीव्र गति से उड़ने का गर्व भी नष्ट हो गया। इस प्रकार से भगवान ने श्री हनुमान जी के माध्यम से तीनों के गर्व को नष्ट करवा दिया। जय श्री कृष्ण।
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