गुरुदेव श्री अमरदास जी
सिख मत के तृतीय गुरु श्री अमरदास जी हुवे, गुरुदेव अमरदास जी का जन्म अमृतसर के बासरका गांव में हुवा था। तेजमान भल्ला जी खत्री उनके पिताजी का नाम था और उनकी माताजी का नाम सुलक्षणी देवी था, जिन्हें लखमी जी और बखत कौर भी कहते थे। गुरु अमरदास जी का विवाह मनसा देवी के साथ संपन्न हुवा था, जिस विवाह के परिणामतः गुरुदेव अमरदास जी की चार संतान थीं, जिनमे दो पुत्रियां बीबी रानी और बीबी भानी तथा दो पुत्र बाबा मोहन जी और बाबा मोहरी जी थे। गुरु अमरदास जी के पिता सनातनी हिन्दू होकर वैष्णव धर्म का पालन करते हुवे अपना कारोबार किया करते थे। गुरु अमरदास जी भी अपने पिता की तरह ही वैष्णव विचारधारा के रहे होकर हिन्दू मतों, सिद्धांतो तथा धार्मिक नियमों का पालन करते थे तथा विशेष आचार विचार वाला ही उनका रहन सहन था। वे प्रति वर्ष गंगास्नान के लिए हरिद्वार की यात्रा करते थे।
इस प्रकार से अमरदास जी की आयु 60 वर्ष की हो गई थी किन्तु उनके चित्त को शांति प्राप्त नहीं हुई थी। एक दिन प्रातः काल उन्होंने एक अति सुन्दर शब्द (कीर्तन) की मधुर ध्वनि सुनी, श्रवण मात्र से ही उनके मन में अपार आनन्द की अनुभूति हुई। उस समय उनके मन में काफी जिज्ञासा यह जानने की हुई कि वह शब्द किसका है और कौन गा रहा है। बाद में मालूम हुवा कि पास में ही उनके भाई के घर में शब्द का गायन उनके भाई के पुत्र की नवविवाहिता पत्नी बीबी अमरोजी कर रही थी। बीबी अमरोजी जो कि सिख मत के द्वितीय गुरुदेव श्री अंगददेव जी की सुपुत्री थी, जिनसे अमरदास जी को यह जानकारी मिली कि शब्द परमपूज्य श्री गुरुनानक देव जी का था। अमरदास जी ने तब बीबी अमरोजी से उनके पिता से मिलने की इच्छा व्यक्त की। अमरदास जी की इच्छापूर्ति करते हुवे बीबी अमरोजी ने उन्हें अपने पिता गुरुदेव श्री अंगददेव जी से मिलवाया। गुरुदेव श्री अंगददेव जी से मिलने के बाद तो अमरदास जी ने गुरुदेव श्री अंगददेव जी का ही अनुसरण करते हुवे उन्हीं की सेवा में अपना समय व्यतीत करने का निश्चय कर लिया और वहीं पर रहने लगे।
अमरदास जी ने अपनी वृद्धावस्था के समय में भी लगभग 12 वर्ष तक बड़ी कठिन निष्काम सेवा की। अपने अन्य सेवा कार्यो के अलावा अमरदास जी प्रतिदिन प्रातः काल से पहले तीन मील दूरी पर से व्यास नदी से स्वच्छ जल का एक घड़ा भरकर गुरूजी के स्नान की व्यवस्था कर देते थे इस प्रकार उस व्यवस्था के लिए प्रतिदिन छः मील की उनकी यात्रा हो जाया करती थी। जल के साथ साथ लंगर के लिए लकड़ियाँ भी लाने का कार्य वे ही करते थे। गुरुदेव श्री अंगददेव जी ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें एक अंगोछा दिया, जिसे उन्होंने अपने सिर पर बांध लिया। उसके बाद प्रतिवर्ष गुरुदेव उन्हें अंगोछा प्रदान करते और अमरदास जी पूर्व में बंधे हुवे अंगोछे के ऊपर ही उसे भी बांध लेते थे। एक बार अमरदास जी जल लिए चले आ रहे थे, कि रात्रि के अंधियारे में अचानक उनका पैर फिसला और वे गिर गए। जहां वे गिरे थे वहीं एक जुलाहे का घर था, गिरने की आवाज सुनकर जुलाहा और उसकी पत्नी ने आकर देखा और उन्हें संभाला। जब इस घटना की जानकारी गुरुदेव श्री अंगददेव जी को मिली तो उन्होंने अमरदास जी को छाती से लगा लिया और उस दिन उस जल से उन्होंने स्नान नहीं किया, गुरुदेव श्री अंगददेव जी ने अमरदास जी को बैठाया और उनके सिर पर बंधे हुवे सभी अंगोछे निकलवा कर अपने पावन हस्तकमलों से अमरदास जी को स्नान करवाया तथा समस्त सिख समुदाय के सामने गुरुआई की गादी अमरदास जी को प्रदान की।
गुरुगादी पर विराजमान होकर गुरुदेव श्री अमरदास जी ने सिख धर्म का काफी प्रचार प्रसार किया। गुरुदेव श्री अमरदास जी ने सतीप्रथा का विरोध किया और विधवा विवाह प्रारम्भ करवाने के काफी प्रयास किये साथ ही पर्दाप्रथा को त्यागने के बारे में भी काफी सराहनीय प्रयास किये, इस प्रकार गुरुदेव श्री अमरदास जी ने समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुरीतियों को दूर करने के लिए काफी प्रयास किये। उन्होंने अपना निवासस्थान खडूर साहेब से हटाकर गोइंदवाल में बना लिया था। गुरुदेव श्री अमरदास जी बड़े ही विनम्र भाव का सदुपदेश सिखो को दिया करते थे। सिख धर्म के प्रचार प्रसार के लिए उन्होंने अन्य देशों में भी केंद्र स्थापित किये, रोगियों के रोग निवारण के लिए भी उन्होंने काफी कार्य किये। सर्वजन हितार्थाय उन्होंने चौरासी सीढ़ियों की एक बावड़ी बनवाई थी। उनके दर्शनार्थ आने वाले दर्शनार्थियों के लिए सतत लंगर चलता था, जिसमे दर्शनार्थी पहले भोजन पाते थे फिर गुरुदेव के दर्शन पाते थे, कुछ ऐसी ही मंशा गुरुदेव की भी थी। गुरुदेव श्री अमरदास जी सिख पंथ के तृतीय गुरु के रूप में बाईस वर्ष पांच माह तक गुरुगादी पर विराजमान रहे और सिख धर्म का प्रचार प्रसार करते हुवे छियानवे वर्ष की आयु में परलोक गमन कर गए । गुरुदेव श्री अमरदास जी के श्री चरणों में शत शत प्रणाम - दुर्गा प्रसाद शर्मा
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