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Showing posts from 2021

भक्त कूबा जी कुम्हार

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प्रभु की भक्ति में लीन होकर संसार सागर में रत भक्तों में एक नाम कूबा जी का भी अक्सर लिया जाता रहा है।  कूबा जी का जन्म एक छोटे से राजपूताने गांव में हुआ था। कूबा जी जाति से कुम्हार थे और इनका पैतृक काम मिट्टी के बर्तन बनाकर बेचना था। संतोषी भक्त कूबा जी की पत्नी पूरी देवी भी बड़ी ही धार्मिक और पतिपरायणा थी।  दोनों पति पत्नी इतने संतोषी थे कि महीने भर में वे केवल तीस बर्तन बनाकर अपनी जीविका संचालन करते और शेष समय में भगवान का नाम स्मरण करते थे।  सुख और दुःख को कर्मो का फल तथा माया का प्रपंच मानते हुवे दोनों पति पत्नी अपनी स्थिति में ही सदैव संतुष्ट रहते थे। मिट्टी के केवल तीस बर्तन बनाकर उससे प्राप्त धन से अपनी जीविका के साथ साथ अतिथि सेवा भी कर दिया करते थे जिससे उनके घर में अन्न वस्त्र की सदैव ही कमी रहा करती थी, किन्तु उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं थी। 

ठाकुर जी के छप्पन भोग

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भगवान श्री कृष्ण जी की सेवा हो और छप्पन भोग का स्मरण नहीं हो, ऐसा हो ही नहीं सकता है।  भगवान श्री कृष्ण जी को लगाए जाने वाले छप्पन भोग की बड़ी महिमा है और छप्पन भोग के बिना तो उनकी सेवा पूजा मानो अधूरी सी ही मानी जाती है। भगवान को छप्पन प्रकार के व्यंजन परोसे जाते हैं, जिसे कि छप्पन भोग कहा जाता है। अष्ट प्रहर भोजन करने वाले श्री बालकृष्ण जी को लगाए जाने वाले छप्पन भोग के बारे में भी अलग अलग मान्यताएँ और रोचक कथाएँ प्रचलित हैं। भगवान को लगाया जाने वाला यह छप्पन भोग रसगुल्ले से शुरू होकर इलाइची पर जाकर पूरा होता है। कई जगहों पर सोलह तरह के नमकीन, बीस तरह की मिठाइयां और बीस तरह के सूखे मेवे छप्पन भोग में भगवान को अर्पित किये जाते हैं। 

जीवन संगिनी साथ है तो सब सुख है

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पति पत्नी का सम्बन्ध ही कुछ इस प्रकार का है कि कुछ खट्टी तो कुछ मीठी नोक झोक वाली बातें होना एक आम बात होती है। लेकिन कहते है न कि जब जो हमारे पास होता है तब हमें उसकी कीमत मालूम नहीं पड़ती कीमत मालूम पड़ती है उसके चले जाने के बाद। प्रेम और लड़ाई तो अक्सर होती ही रहती है किन्तु कई बार यह भी देखा गया कि छोटी छोटी सी बात पर हम अपनी पत्नी पर निर्भर होकर उसे बेवजह काफी परेशान करते हैं। कई बार उसे तानों और उलाहनों का भी सामना करना पड़ता है और वह अपने कर्तव्य और प्रेम के वशीभूत होकर सब कुछ नजर अंदाज का सहन कर जाती है आपकी किसी बात का बुरा नहीं मानती है और समर्पित भाव से अपनी चिंता किये बगैर घर की साल संभाल में लगी रहती है।  सुबह उठने से लेकर रात सोने तक आपके और आपके घर के कामों लगी रहने के बाद उसके आराम के वक्त भी उसे किसी काम के बारे में बोल दिया जाता है, जिसे भी वह सहर्ष कर दिया करती है। वह भी मान सम्मान की अपेक्षा रखती है वह भी चाहती है कि उसे भी कोई सहयोग करे। 

भक्तशिरोमणि श्री नामदेव जी

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भक्त शिरोमणि श्री नामदेव जी का जन्म कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को माना जाता है। महाराष्ट्र के सतारा जिले में कराड के पास नरसी वामनी नामक ग्राम में नामदेव जी का जन्म हुआ था किन्तु कुछ लोग मराठवाड़ा के परभणी और कुछ पंढरपुर को इनका जन्म स्थान मानते हैं।  इनकी माता जी का नाम गोनई था और पिताजी दामासेठ था।  भक्त नामदेव के पिताजी दामा सेठ अपना पारम्परिक रूप से दर्जी का कार्य किया करते थे और भगवान विट्ठल के परम भक्त थे। नामदेवजी को भगवन्नाम स्मरण और भगवान विट्ठल की सेवा विरासत में प्राप्त हुई थी। बचपन में भगवान विट्ठल के नाम का जयकारा लगाना ध्यान करना नामदेव जी का नित्य कर्म था।  भगवान विट्ठल की सेवा में लीन नामदेव जी आठ वर्ष की आयु में भगवान को अपने हाथों से नैवैद्य खिलाने और दूध पिलाने लगे थे, वे भगवान विट्ठल की मूर्ति के समक्ष दूध और नैवैद्य लेकर बैठ जाते थे और भगवान से कहते थे कि आप भोग लगाओ नहीं तो मैं भी नहीं खाऊंगा। बालक नामदेव के इस प्रकार से आग्रह करने पर भगवान को भी विवश होकर पाषाण मूर्ति से निकल कर बाहर प्रकट होकर दूध और नैवैद्य का भोग लगाना पड़ता था। माताज...

भक्तिमती कर्माबाई

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भगवान का जहाँ भी नाम आता है उनके साथ ही साथ उनके भक्तों का भी नाम आ ही जाता है। भगवान और भक्त का एक ऐसा रिश्ता होता है जिसका न तो कोई नाम होता है और न ही कोई तुलना होती है। भगवान श्री जगन्नाथ जी और उनके धाम परम पावन पुरी धाम के बारे में सभी को जानकारी है और भगवान श्री जगन्नाथ जी के भक्तगण भक्तिमती कर्माबाई से अनभिज्ञ नहीं है, भगवान के कई भजनों और प्रार्थना, स्तुतियों में भी अनायास कर्मा देवी के नाम का स्मरण हो जाता है तो कई बार भगवान को ताने उलाहने देने के लिए भी कर्मादेवी का नाम लिया जाता है, एक भजन के तो यहाँ तक कह दिया कि कर्माबाई कंई थारी मासि लागे जा घर खिचड़ो खायो रे ।

धन तेरस (धन त्रयोदशी)

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कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस या धन त्रयोदशी कहा जाता है। यमराज जी और कुबेर देव  की पूजा तो इस दिन की ही जाती है किन्तु समुद्र मंथन के समय समुद्र से अमृत कलश लेकर भगवान धन्वन्तरि जी के प्रकट होने के कारण इस दिन को भगवान धन्वन्तरि जी के प्रकटोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। भगवान धन्वन्तरि जी देवताओं के चिकित्सक भी माने जाते हैं इस कारण इन्हें चिकित्सा के देवता भी कहा जाता है और समस्त चिकित्स्कों के लिए धन तेरस का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। भारत सरकार ने भी धनतेरस को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। भगवान महावीर स्वामी जी द्वारा इस दिन तीसरे और चौथे ध्यान में जाने हेतु योग निरोध करते हुवे दीपावली के दिन निर्वाण को प्राप्त किया होने के कारण तभी से इस दिन को जैन समाज द्वारा धन्य तेरस और ध्यान तेरस के नाम से मनाने की परम्परा चली आ रही है।  

करवा चौथ (करक चतुर्थी)

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सनातन हिन्दू धर्म में महिलाओं द्वारा अपने पति की दीर्घायु के लिए रखे जाने व्रतों में से एक है कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी अर्थात करवा चौथ जिसे करक चतुर्थी भी कहते हैं , उत्सवी परम्परा के रूप में मनाया जाने वाला यह पर्व मध्य प्रदेश , राजस्थान , पंजाब,   हरियाणा , उत्तर प्रदेश सहित सम्पूर्ण देश में बड़े ही उत्साह   के साथ   मनाया जाता है। यह व्रत सौभाग्यवती ( सुहागिन ) महिलाएं अपने पति  की दीर्घायु और संकट से बचने  के लिए करती है , जोकि   प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से प्रारम्भ होकर रात्रि में चंद्र दर्शन और उसके पश्चात् भोजन से साथ संपन्न होता है। ग्रामीण से लेकर आधुनिक महिलाऑ तक सभी महिलाएँ करवा चौथ का व्रत बड़ी ही श्रद्धा एवं उत्साहपूर्वक रखती हैं। शास्त्रोक्त मतानुसार चंद्रोदय वाली चतुर्थी को ही यह व्रत होता है इस कारण कभी कभी उदयकालीन तृतीया तिथि को भी ( चंद्रोदय चतुर्थी तिथि में होने के कारण ) इस पर्व को मन...

महर्षि वाल्मीकि जी

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आदिकवि एवं रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का जन्म दिवस आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि को माना जाता है। धर्म ग्रंथों एवं धार्मिक मान्यतानुसार महर्षि कश्यप जी और माता अदिति के नवम पुत्र प्रचेता के पुत्र महर्षि वाल्मीकि जी थे उनकी माता का नाम चर्षणी था और महर्षि भृगु इनके भाई थे, किन्तु बचपन में उन्हें एक निःसंतान भील स्त्री द्वारा चुरा लिया गया था और उस भील स्त्री ने बड़े ही प्रेमपूर्वक बालक रत्नाकर (वाल्मीकि जी का वास्तविक नाम) का लालन पालन किया। भीलनी के जीवनयापन का मुख्य साधन दस्यु कर्म था और वह लूटपाट आदि करते हुए बालक रत्नाकर का लालन पालन कर रही थी, जिसका प्रभाव  बालक रत्नाकर पर भी पड़ा और लूटपाट, हत्या को बालक रत्नाकर ने अपना कर्म बना लिया। जंगलों में ही निवास करते हुवे उन्होंने अपने जीवन का काफी समय बिताया और बड़े होकर एक कुख्यात डाकू रत्नाकर बने। युवावस्था में उनका विवाह भील समुदाय की ही एक कन्या के साथ संपन्न हुआ। विवाह उपरांत कई संतानों के पिता रत्नाकर ने संतानों के भरण पोषण के लिए पापकर्म को ही अपना जीवन मान लिया था। 

महाराज श्री अग्रसेन जी

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व्यापारियों  के गढ़ के नाम से प्रसिद्द अग्रोदय नामक राज्य जिसकी राजधानी अग्रोहा थी, वहां के महानतम राजा महाराज अग्रसेन जी का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। प्रचलित मान्यतानुसार खांडवप्रस्थ, वल्लभगढ़ और अग्रजनपद, वर्तमान में दिल्ली से आगरा, के सूर्यवंशीय महाराजा वल्लभसेन जी के ज्येष्ठ पुत्र महाराज अग्रसेन जी का जन्म द्वापरयुग के अंतिम चरण और कलियुग के प्रारम्भकाल में भगवान राम के पुत्र कुश की चौंतीसवी पीढ़ी में होना माना जाता है। यह भी मान्यता है कि उन्होंने अपनी पंद्रह वर्ष की आयु में पांडवो के पक्ष में महाभारत युद्ध में कौरव सेना के विरूद्ध युद्ध लड़ा था। महाराज श्री अग्रसेन जी बचपन से ही अपनी प्रजा में बहुत ही लोकप्रिय थे, वे एक धार्मिक, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, शांतिदूत तथा समस्त जीवों से प्रेम व स्नेह रखने वाले दयालु राजा थे, जिन्होंने क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर वैश्य कार्य का वणिक धर्म अपनाया था। अग्रसेन जी महाराज के दो विवाह हुवे थे पहला नागराज की पुत्री माधवी से और दूसरा नागवंशी राजा की पुत्री सुन्दरवती से।

भक्त बामा खेपा

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भक्त बामा खेपा माता तारा के परम प्रिय भक्त रहे, उनका जन्म पश्चिम बंगाल के एक गांव में हुआ था। इनके जन्म के कुछ दिनों बाद ही इनके पिता का देहांत हो गया, माता गरीबी हालात में बच्चों के पालन पोषण में असमर्थ थी इस कारण उन्होंने अपने बच्चों को तारा शक्तिपीठ के पास ही रहने वाले अपने भाई के यहाँ भेज दिया था। मां के घर बच्चों के साथ बहुत अच्छा व्यव्हार नहीं होता था, इस कारण बालक बामाचरण की रूचि माता तारा शक्तिपीठ तथा गांव के श्मशान में आने वाले साधु संगति की ओर बढ़ने लगी। बालक बामाचरण माता तारा को बड़ी माँ और अपनी माँ को छोटी माँ कहा करते थे। बालक बामाचरण कभी श्मशान में जलती चिता के पास जाकर बैठ जाता, तो कभी ऐसे ही हवा में बातें करता हुआ युवावस्था में आ गया। बामाचरण की इस प्रकार की हरकतों के कारण उसका नाम बामाचरण से बामा खेपा पड़ गया, खेपा अर्थात पागल। गांव वाले बामाचरण को पागल समझते थे इस कारण उन्होंने उनके नाम के साथ उपनाम जोड़ दिया था, पर गांव वाले नहीं जानते थे उस उच्च कोटि के महामानव को।  

जगतजननी शक्ति देवी जगदम्बा का प्राकट्य

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शक्ति की उपासना, आराधना के नवरात्री के इन दिनों को जगतजननी जगदम्बा माँ दुर्गा की सेवा करते हुए शक्ति पर्व के रूप में मनाये जाने की परंपरा रही है।  नवरात्री के ये दिन माँ दुर्गा को सर्वाधिक प्रिय होते हैं।  पुरे वर्ष भर में चार नवरात्री के अवसर आते हैं जिनमे दो गुप्त नवरात्री कहे जाते हैं। सनातन धर्म को मानने वाले अधिकांश सनातनी शक्ति पर्व के रूप में मनाये जाने वाले नवरात्री के इन अवसरों पर शक्ति अर्जित करने के लिए माँ जगदम्बा की आराधना, सेवा, पूजा अपने अपने तरीके और परंपरा के अनुसार करते हैं, व्रत उपवास भी करते हैं।  माँ जगदम्बा के बारे में कुछ लिखने की मेरी सामर्थ्य तो नहीं है किन्तु महिषासुर के संहार के लिए देवी माँ जगदम्बा के प्राकट्य का विवरण जोकि हमारे पवित्र धार्मिक ग्रंथ श्री दुर्गा सप्तशती के द्वितीय अध्याय में उल्लेखित है, उसे आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।   

श्राद्ध कर्म

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आज के समय में आमजन नित्य कर्म, श्राद्ध, तर्पण, पंचदेव पूजन, कुलदेवी पूजन इत्यादि सारे अनुष्ठानिक कर्म करना भूलते जा रहे हैं। भारतीय अपनी तुलना पाश्चत्य देशों से करते हैं, किन्तु यह सही नहीं है क्योंकि पृथ्वी पर भारत भूमि कर्म भूमि है तथा अन्यत्र भोग भूमि है। वहां अपने सुख दुःख भोगने के लिए के लिये जन्म लेते हैं और यहां कर्म करने के लिए। पद्मपुराण में श्री ब्रह्मा जी नारद जी से कहा है कि देवताओं की इस देवभूमि पर किये हुए कर्मों से ही कर्म फल निर्धारित होते हैं, यहाँ किये हुए कर्म के अनुसार ही आपका जन्म कहाँ, किस परिवार  में, किस कुल में होगा, आपको माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पत्नी, मित्र, संबंधी कैसे मिलेंगे यह सब यही के कर्मों से निर्धारित होता है। आप अपने बच्चों को भले ही कितना भी पढ़ा लिखा दो किन्तु सनातनी हिन्दू होने के नाते उन्हें पंचदेव पूजन और श्राद्ध कर्म करना अवश्य सिखाओ, अपने और मामा पक्ष की दो चार पीढ़ियों के नाम भी बताओ। यदि आपको अपने कुल देवी देवता की जानकारी नहीं है तो कम से कम  पितृों का तो पता होगा, उन्हीं को प्रसन्न रखो आपकी आधी से ज्यादा समस्या तो समाप्त हो ...

सरदार भगत सिंह

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सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1906 को एक सिख किसान परिवार में हुआ था।  उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। बचपन में बारह साल की उम्र में ही अमृतसर में हुए जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बालमन पर गहरा प्रभाव डाला था, बारह मील पैदल चलकर वे जलियाँवाला बाग जा पहुंचे थे। भगत सिंह ने लाहौर के नॅशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। वर्ष 1922 में चौरी चौरा हत्याकांड के बाद गांधीजी द्वारा किसानों का साथ नहीं देने पर भगत सिंह काफी निराश हो गए और उसके बाद उनका अहिंसा पर से विश्वास उठ गया और सशस्त्र क्रांति से ही स्वतंत्रता प्राप्त हो सकती है, यह निश्चय कर लिया था। 

माता सीता द्वारा किया गया श्राद्ध कर्म

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कई बार हमारे मन में सवाल उठता है कि श्राद्ध क्या होते हैं, क्यों मानते हैं, कैसे मनाते हैं, यह कोई अन्धविश्वास है या इसका कोई शास्त्रीय आधार भी है। हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि से आश्विन मास की अमावस्या तक के पखवाड़े के सोलह दिन पितृ पक्ष कहे जाते हैं, जिसमें सनातनी अपने पूर्वजों अर्थात पितरों को विशेष रूप से सम्मानपूर्वक याद कर उन्हें धन्यवाद और श्रद्धांजलि अर्पित कर उनके निमित्त ब्रह्मभोज आदि संपन्न करते हैं। सनातन धर्म में पितृ पक्ष का विशेष महत्त्व माना जाता है, ऐसी मान्यता है कि इस समय हमारे पूर्वज अपने वंशजों को आशीर्वाद देने आते हैं। पितृ पक्ष में मृत व्यक्ति का श्राद्ध करने से उन्हें आत्मिक शांति प्राप्त होती है और वे मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं।  श्राद्ध कर्म के बारे में हमारे धार्मिक ग्रंथो में भी काफी कुछ उल्लेख मिलता है, रामायण और महाभारत में भी इस संबंध में कई प्रसंग आये हैं।  उसी में एक प्रसंग त्रेता युग में माता सीता द्वारा राजा दशरथ जी को पिंड अर्पित करने और राजा दशरथ जी को आत्मिक शांति की प्राप्ति होने का भी एक प्रसंग आता है।...

अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे

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सत्रहवीं शताब्दी में छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में मराठा साम्राज्य के पुरंदर किले के सरदार थे अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे (Murarbaji Deshpande)। दिलेरखान के साथ हुवे युद्ध प्रसंग में मुरारबाजी देशपाण्डे को सदैव याद किया जायेगा। अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है क्योंकि हमारे इतिहास में कई महान योद्धाओं को लुप्त कर दिया गया है, जब शिक्षा के समय इतिहास में उनके बारे में कुछ पढ़ाया ही नहीं जायेगा तो नव पीढ़ी को कैसे जानकारी होगी। उस समय मराठा साम्राज्य सम्पूर्ण भारत में फैला हुआ था,  मुरारबाजी देशपाण्डे का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिला स्थित महाड तालुका के किंजलोली गांव में हुआ था। प्रारंभ में मुरारबाजी जावली के चन्द्रराव मौर्य के साथ थे। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा जावली को मराठा साम्राज्य में शामिल करने के लिए जावली पर आक्रमण के समय चन्द्रराव मौर्य के साथ मुरारबाजी ने जो पराक्रम दिखाया उससे प्रभावित होकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज्य रक्षा के लिए अपने साथ काम करने का प्रस्ताव रखा जिसे मुरारबाजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, जिससे ...

तारणहार प्रभु श्री कृष्ण

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भगवान श्री कृष्ण जी के चरित्र से कोई भी सनातन धर्म को मानने वाला सनातनी अनभिज्ञ नहीं है किन्तु कतिपय लोगों द्वारा उनके चरित्र को लेकर कई टीका टिप्पणी की जाती रही है और अपने हिसाब से उनके चरित्र की व्याख्या भी की जाती रही है। इस कार्य में जहां सनातन धर्म के विरोधियों के साथ ही कुछ टी वी सीरियल और फ़िल्मों का योगदान है वहीं कुछ कथाकारों ने भी अपनी कथाओं के माध्यम से वास्तविक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करते हुवे एक अलग ही काल्पनिक चरित्र का बखान सिर्फ अपनी कथा को रसीली बनाने के दुराशय से करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और योगिराज भगवान श्री कृष्ण जी के चरित्र को विकृत करके प्रस्तुत करने में लगे हुवे हैं। जबकि हमारे सनातन धर्म की सच्चाई हमारे धर्म ग्रंथों के माध्यम से आसानी से प्राप्त हो सकती है, जिससे उपरोक्तानुसार कतिपय लोगों द्वारा फैलाई गई भ्रांतियों को भी दूर किया जा सकता है। आइये हम हमारे धर्म ग्रंथों से प्राप्त जानकारी अनुसार तारणहार भगवान श्री कृष्ण जी के जीवन के बारे में जानने का प्रयास करते हैं।   

रक्षा बंधन

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प्रतिवर्ष पवित्र श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला महत्वपूर्ण पावन पर्व है रक्षाबंधन, जोकि भाई बहन के असीम प्रेम एवं भावनात्मक संबंधों का प्रतीक पर्व है। इस दिन बहनें अपने अपने भाइयों की कलाई पर पवित्र रेशमी धागा बांधकर भाइयों  के दीर्घायु जीवन एवं सुरक्षा की कामना करती हैं और बहनों के इस स्नेह बंधन में बंधकर भाई अपनी बहन की रक्षा के लिए कृत संकल्पित होता है।  रक्षा सूत्र के रूप में बांधा जाने वाला रेशमी लाल पीला धागा या कलावा समय के साथ साथ उत्सवप्रिया माता बहनों द्वारा कब रंग बिरंगी राखी में परिवर्तित हो गया इसका कोई प्रमाण नहीं है।  बहनों द्वारा अपने भाइयों को बंधा गया यह रक्षा सूत्र रक्षा का बंधन नहीं बल्कि रक्षा का कवच है, जिसे बांधकर बहनें अपने भाई की रक्षा की चिंता से मुक्त होकर अपने भाई को विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला करने के लिए अधिक सक्षम बनाती हैं।  रक्षा बंधन के पर्व को मनाने को लेकर कई सारी मान्यताऐं  प्रचलित हैं।  

अमर बलिदानी शहीद हेमू कालानी

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अविभाजित भारत के सिंध जोकि वर्तमान में पाकिस्तान में है, के सक्खर नामक जिले को अमर बलिदानी शहीद हेमू कालानी की जन्म स्थली के रूप में जाना जाता है। पेसूमल कालानी इनके पिता एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे और माता जी जेठीबाई एक धार्मिक गृहस्थ महिला थी। जिस प्रकार शहीद भगत सिंह अपने चाचा अजीत सिंह से प्रभावित थे, उसी प्रकार से हेमू कालानी के चाचाजी मंघाराम कालानी भी कांग्रेस के कार्यकर्त्ता थे और हेमू बचपन से ही उनके कार्यकलापों से काफी प्रभावित रहे और उन्ही के कारण हेमू के मन में देश की स्वतंत्रता की भावना जाग्रत हुई। यह भी एक अजीब सा संयोग था कि जिस दिन भगत सिंह शहीद हुए उस दिन हेमू कालानी का जन्म दिन था और वे आठ वर्ष के थे। हेमू बचपन से ही साहसी रहे होकर अपने विद्यार्थी जीवन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहे। सात वर्ष की आयु से ही वे तिरंगा लेकर अंग्रेजों की बस्ती में अपने दोस्तों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों का नेतृत्व किया करते थे।  हेमू कालानी एक होनहार बालक के साथ ही तैराक, धावक और तीव्र साईकिल चालक भी थे, तैराकी में उन्हें कई बार पुरुस्कृत भी किया गया था। जब सिंध प्रा...

भारत की प्रथम महिला जासूस कैप्टन नीरा आर्या

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उत्तर प्रदेश के मेरठ में खेकड़ा गांव के एक सम्पन्न जाट परिवार में जन्मी नीरा का सम्पूर्ण जीवन काफी संघर्षमय रहा।  बचपन में ही बीमार माता पिता के इलाज में काफी खर्च होने से घर के हालात बिगड़ गए, कोई कमाने वाला नहीं था इस कारण कर्ज बढ़ता गया बाद में माता पिता के गुजर जाने के बाद नीरा और छोटा भाई बसंत कुमार अनाथ हो गए। पिता की हवेली और जमीन साहूकारों ने छीन ली तो दोनों बच्चे दर दर भटकने पर विवश हो गए। इसी बीच कलकत्ता के बहुत बड़े व्यापारी चौधरी सेठ छज्जूराम जी को ये दोनों बच्चे मिले। सेठ छज्जूराम मूल रूप से हरियाणा के जाट समाज से थे और बहुत ही दयालु, दानवीर एवं देशभक्त व्यक्ति थे, बच्चो की हालत पता लगने पर उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। सेठजी ने दोनों बच्चों को लालन पालन व शिक्षा के लिए गोद ले लिया और बच्चों के धर्मपिता बन कर उन्हें कलकत्ता ले गए, वहां दोनों बच्चों की शिक्षा हुई। सेठजी के आर्य समाज से जुड़े होने के कारण दोनों बच्चे आर्य समाज की विचरधारा से आकर्षित हुए।  

गुरुदेव श्री अर्जुन देव जी

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सिख संप्रदाय के पंचम गुरुदेव श्री गुरुदेव अर्जुनदेव जी का जन्म गोइंदवाल साहिब में हुआ था।  चतुर्थ गुरुदेव श्री रामदास जी और बीबी भानी जी के छोटे सुपुत्र गुरु अर्जुनदेव जी का विवाह गंगादेवीजी के साथ संपन्न हुआ था।  पिता श्री गुरुदेव रामदास जी ने अर्जुनदेव जी को सर्वगुण संपन्न देखकर १८ वर्ष की आयु में ही गुरुगादी सौंप दी थी। गुरुदेव श्री अर्जुनदेव जी अत्यंत ही शांत और गंभीर स्वाभाव के स्वामी थे और दिन रात संगत सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह स्नेह था, उन्होंने मानव कल्याण के लिए आजीवन कार्य किया। शहीदों के सरताज और शान्तिपुंज गुरुदेव श्री अर्जुनदेव जी को आध्यात्मिक जगत में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, उन्होंने ही धर्म कार्यों के लिए सिखों की कमाई से दशमांश की मर्यादा निर्धारित की थी। 

राजा भोज और सिंहासन बत्तीसी का प्रसंग

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परम पराक्रमी , बलशाली , अति न्यायप्रिय और बुद्धिमान राजा   चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के न्याय से प्रभावित और प्रसन्न होकर देवराज इंद्र ने उन्हें बत्तीस पुतलियों से युक्त उत्तम सिंहासन भेंट किया था , इस रहस्यमयी सिंहासन का क्या हुआ यह तो कोई भी नहीं जानता किन्तु ऐसा कहा जाता है कि यह सिंहासन ग्यारह सौ वर्षों के बाद उन्हीं के वंशज राजा भोज को मिला था। तब तक तो इतिहास भी बदल गया था और इस सिंहासन के मिलने के बाद राजा भोज द्वारा सिंहासन पर बैठने की इच्छा के परिणामस्वरूप ही सिंहासन की  बत्तीस   पुतलियों में से प्रत्येक ने चक्रवर्ती  सम्राट   विक्रमादित्य के बल, पराक्रम, महानता, न्याय और बुद्धिमानी की कथाएँ राजा भोज को सुनाई थी। वे ही बत्तीस कथाएँ सिंहासन बत्तीसी के नाम से जगप्रसिद्ध हुई। 

श्री जगन्नाथ धाम और रथ यात्रा

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भगवान विष्णु के पावन धाम और सनातन धर्म के धार्मिक श्रद्धा के स्थापित प्रमुख केंद्र जिन्हें हम लोग चार धाम के नाम से जानते हैं, उनमें से एक धाम है श्री जगन्नाथ धाम। जगन्नाथ धाम जोकि श्री हरि विष्णु जी के अवतार श्री कृष्ण जी का स्थान होकर भारतवर्ष के उड़ीसा राज्य में सागर की तटवर्ती पुरी नगरी में स्थित है, जहाँ जगत के स्वामी श्री जगन्नाथ भगवान (श्री कृष्णजी) विराजमान हैं और उन्हीं के नाम से यह स्थान जगन्नाथ पुरी कहलाया गया है। श्री जगन्नाथ धाम में भगवान श्री जगन्नाथ जी के साथ उनके बड़े भ्राता श्री बलभद्र जी और भगिनी सुभद्रा जी भी विराजमान हैं। भगवान श्री विष्णु जी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने चारों दिशाओं में बसे हुए अपने चारों धाम की यात्रा करते हैं तो यात्रा के उस क्रम में वे उत्तर दिशा स्थित हिमालय की ऊँची चोटियों पर विध्यमान अपने धाम बद्रीनाथ धाम में स्नान करते हैं उसके बाद पश्चिम दिशा स्थित गुजरात की द्वारिका नगरी में वस्त्र धारण करते हैं। यात्रा के अगले क्रम में वे पूर्व दिशा में स्थित जगन्नाथ पुरी धाम में भोजन ग्रहण करने के पश्चात् दक्षिण दिशा में स्थित रामेश्वरम धाम में जाकर ...

चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य और उनके नवरत्न

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इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य का नाम सर्वविदित है तो उनका शासनकाल भी इतिहास में स्वर्णिम युग के रूप में ही माना जाता है। अत्यंत ही न्यायप्रिय, प्रजापालक,  पराक्रमी, बलशाली और बुद्धिमान  राजा रहे चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य अपनी प्रजा का अपनी संतान की भांति ध्यान रखते थे। अपनी प्रजा के कल्याण और विकास के लिए हरसंभव प्रयास वे करते ही रहते थे, अपने शासनकाल में प्रजा के हितों को दृष्टिगत रखते हुए हर क्षेत्र में कल्याणकारी कार्य तत्काल किये जाने की व्यवस्थाऍ उन्होंने की थी। प्रजा के कल्याण और सुविधाओं की व्यवस्था में किसी प्रकार का कोई अवरोध उत्पन्न न हो इसलिए उन्होंने हर क्षेत्र के विशेषज्ञ अपने दरबार में नियुक्त किये थे, जिनसे समय समय पर सलाह लेकर कल्याणकारी कार्य संपन्न किये जाते थे। 

चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य

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  चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य के जन्म को लेकर इतिहासकारों के मध्य कई मतभेद हैं फिर भी इस प्रकार की मान्यता है कि उनका जन्म करीब 2300 वर्ष पूर्व हुवा था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे।गंधर्वसेन को महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था, इनकी पांच पत्नियाँ मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी थी। रानी मदनलेखा को वीरमति और सौम्यदर्शना भी कहा जाता था, जोकि विक्रमादित्य की माता थी। विक्रमादित्य के भृतहरि, शंख एवं अन्य  भाई के अलावा एक बहन मैनावती भी थी। मैनावती का विवाह धारानगरी के राजा पद्मसेन के साथ हुआ था मैनावती का पुत्र गोपीचंद था जिन दोनों माता पुत्र ने योग दीक्षा ले ली थी। सम्राट वीर विक्रमादित्य का जन्म लगभग 101 ईसा पूर्व हुवा था,  जिन्होंने भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी  के राजसिंहासन पर  बैठकर करीब 100 सालों तक राज किया। राजा  विक्रमादित्य बड़े ही पराक्रमी थे साथ  ही वे अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्द थे, उनके दरबार के नवरत्न भी उनकी शान थे।सम्राट विक्रमा...

सुखी दाम्पत्य जीवन अर्थात आपसी प्रेम, विश्वास और तालमेल

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सनातन धर्म के चारों आश्रमों में से गृहस्थ आश्रम को सबसे बड़ा माना जाता है। विवाह संस्कार के साथ ही इस आश्रम की शुरुआत मानी जाती है।  गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिये पति और पत्नी को माना जाता है।पति और पत्नी अपने आपसी प्रेम, विश्वास और तालमेल के साथ इस  गृहस्थी रूपी गाड़ी को सुचारु रूप से चलाते हुवे एक आदर्श उदाहरण समाज में प्रस्तुत कर श्रेष्ठ जीवन यापन कर सकते हैं, किन्तु वर्तमान में कुछ स्थिति इस तरह की देखने में आती है कि जरा जरा सी बात पर दोनों में विवाद हो जाता है और फिर योग्य समझाइश के आभाव में तथा कुछ विघ्नसंतोषी लोगों के हस्तक्षेप से छोटी सी बात का विवाद एक बड़ा ही बतंगड़ बन जाता है जिसके परिणामस्वरूप कई  गृहस्थी बिगड़ रही है, कोर्ट में केस बढ़ते जा रहे हैं और कई लोग परेशान हो रहे हैं। जबकि  पति और पत्नी दोनों के द्वारा आपस में एक दूसरे की बात मानकर, एक दूसरे का सम्मान करते हुवे आपसी प्रेम, विश्वास और तालमेल से ऐसे विवादों को समाप्त किया जा सकता है। कुछ इसी प्रकार की एक सत्य घटना आज आपके समक्ष प्रस्तुत की जा रही है। इसमें नाम और स्थान को परिवर्तित किया गया है। ...

खाटू नरेश श्री श्याम बाबा (1)

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भारतवर्ष की यह पावन धरा अनादिकाल से ही देवभूमि रही है और अनेकों महापुरुषों का इस धरा पर अवतरण हुआ है।  स्वयं ईश्वर भी लोक कल्याण हेतु प्रत्येक युग में अवतार ग्रहण करके इस धरा पर अवतरित होते हैं।  ईश्वर के अलावा भी समय समय पर कई महान विभूतियों का इस धरा पर अवतरण हुआ है, जिनकी श्रृंखला में परमवीर बर्बरीक का नाम उस युग से आज तक स्मरणीय, वंदनीय एवं पूजनीय चला आ रहा है, जिन्हें आज भी हम लोग खाटू वाले श्री श्याम बाबा के नाम से जानते हैं और उनके दरबार में अपनी हाजिरी देने तथा उनके दर्शन लाभ से लाभान्वित होने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। फाल्गुन के माह में तो खाटू धाम में विशाल मेला लगता है, जिसमें देश विदेश से काफी श्याम प्रेमी खाटू धाम अपने अपने मनोरथ लेकर बाबा के दर्शन  के लिए पधारते हैं।  

खाटू नरेश श्री श्याम बाबा (2)

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गतांक से आगे - अब तक हमने महापराक्रमी बर्बरीक के पूर्व जन्म का कथानक इसके पूर्व वाले लेख में पढ़ा  था। उसके पश्चात् जब ब्राह्मण विजय से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद और देवी द्वारा बताये अनुसार होमकुण्ड की भस्म को अपने पास सुरक्षित रखने के कुछ समय बाद ही दुर्योधन की कुटिलता और गांधार नरेश शकुनि की धूर्तता से पराजित होकर पांडवबन्धु एवं द्रोपदी सभी प्रसिद्द तीर्थों में भ्रमण करते हुवे वनवास की अवधि में इस तीर्थ क्षेत्र में स्नान तथा देवी दर्शन के लिए पहुंचे। अपनी थकान मिटाने के लिए वे सभी विश्राम के लिए वृक्ष की छाया में बैठे, सभी प्यास से भी व्याकुल थे। सामने जलकुण्ड देखकर भीमसेन उस कुंड से जल प्राप्त करने की इच्छा से आगे बढ़े।  तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्र मर्यादा बताते हुए भीमसेन से कहा कि तुम पहले कुण्ड से जल लेकर बाहर ही हाथ पैर धोकर ही जल पीना, किन्तु प्यास से व्याकुल भीमसेन धर्मराज की बातों पर ध्यान नहीं दे सके और बगैर हाथ पैर धोये ही कुण्ड में प्रवेश कर उसी में हाथ पैर और मुँह धोने लगे। 

वीरांगना पन्ना धाय की स्वामीभक्ति

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भारतीय इतिहास में महान नारी शक्तियों के कई चरित्र हैं, जिस तरह से चित्तौड़गढ़ के इतिहास में रानी पद्मिनी के जौहर की अमर गाथा के साथ मीराबाई के भक्तिपूर्ण गीत गूंजा करते हैं, वहीं उदयपुर का इतिहास पन्ना धाय के बगैर अधूरा ही है।  पन्ना धाय जैसी महान नारी की स्वामीभक्ति की कहानी भी अपना एक अलग ही स्थान रखती है।  पन्ना धाय किसी राज परिवार की सदस्या नहीं थी, अपना सर्वस्व स्वामी को अर्पित कर देने वाली स्वामीभक्त वीरांगना पन्ना धाय का जन्म एक छोटे से गांव कमेरी में हुआ था।  राणा उदयसिंह को माँ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना "धाय माँ" कहलाई थी।  पन्ना का पुत्र चन्दन और राजकुमार उदयसिंह साथ साथ बड़े हुवे थे। राजकुमार उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान ही पाला था।  राजकुमार उदयसिंह की माता रानी कर्मावती के सामूहिक आत्मबलिदान द्वारा स्वर्गारोहण पश्चात् बालक उदयसिंह की परवरिश करने का दायित्व पन्ना ने ही संभाला था और पूरी लगन से बालक उदयसिंह की सुरक्षा करते हुवे परवरिश की थी। मेवाड़ के इतिहास में जिस गौरव के साथ महाराणा प्रताप को याद किया जाता है, उसी गौ...

पाटण की रानी साहिबा रूदाबाई जी

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हमारा भारत देश जहाँ प्राचीन राजे रजवाड़ों की वीरता के लिए प्रसिद्द है वहीं पर यहाँ की वीरांगनाओं के किस्से भी कम नहीं हैं, एक से बढ़कर एक अनगिनत वीरांगनाओं की कहानी हमारे इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जिनकी वीरता, बुद्धिमानी, युद्ध कौशल के साथ ही प्रशासनिक सामर्थ्य के चर्चे आज भी समय समय पर याद किये जाते हैं । भारत देश के गुजरात में ऐसी ही एक वीरांगना हुई थी पाटण की रानी साहिबा रुदा बाई, जिन्होंने सुल्तान बेघारा के सीने को फाड़ कर उसका दिल निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोंबीच टांग दिया था और उसके धड़ से सर अलग करके पाटण राज्य के दरवाजे पर टांग कर यह चेतावनी दी थी कि कोई भी आतताई भारतवर्ष पर या भारत की नारियों पर बुरी नजर डालेगा उसका हाल ठीक नहीं होगा। 

बसंत पंचमी

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आँगन  में अम्बुआ बौराया है,  महुए ने जंगल महकाया है,  पलाश पर टेसू दहकाया है, लगता है बसंत आया है। माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथी को श्री पंचमी और बसंत पंचमी कहा जाता है।  भारतीय सनातन धर्म में इस दिन का धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से काफी महत्त्व है।  सनातन धर्म में इसे एक त्यौहार के  मनाने की परंपरा रही है, जिसका आज भी निर्वाह किया जा रहा है। हमारे यहाँ पुरे वर्ष भर में जो मौसमों और ऋतुओं की व्यवस्थाऍ हैं, उसमें एक बसंत ऋतु का अपना अलग ही महत्त्व है।  बसंत का मौसम सभी जनमानस का अति मनचाहा मौसम होता है। 

क्रान्तिकारी रास बिहारी बोस

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हमारे देश में आज़ादी के लिए कई लोगों को याद किया जाता है किन्तु क्रान्तिकारी रास बिहारी बोस की बात ही अलग है। बंगाल के चन्द्रनगर में दिनांक 25 मई 1885 को रास बिहारी बोस का जन्म हुआ था। बचपन से ही वे क्रान्तिकारियों  संपर्क में आ गए थे।  हाई स्कूल करने के बाद ही वन विभाग में उनकी नौकरी लग गई थी, जहां रहकर उन्हें अपने विचारो को क्रियान्वित करने का अच्छा अवसर मिला।  रास बिहारी बोस को केमिकल्स के प्रति अत्यधिक लगाव होने से उन्होंने क्रूड बम बनाना सीख लिया था और सघन वनों में रहते हुवे बम, गोली का परिक्षण भी वे आसानी से कर लिया करते थे, जिस पर किसी को शक भी नहीं होता था। पश्चिम बंगाल में अलीपुर बमकाण्ड में नाम आने के बाद वे देहरादून शिफ्ट हो गए थे किन्तु देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा कम नहीं हुआ था।  

मकर संक्रांति

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संक्रांति का अर्थ है सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि मे प्रवेश करना।  वर्ष भर में जब जब भी सूर्य का राशि परिवर्तन होता है तब तब ही संक्रांति आती है, इस प्रकार से वर्ष भर में बारह संक्रांति आती है। प्रत्येक संक्रांति को पवित्र दिवस के रूप में शास्त्रोक्त मान्यता प्राप्त है।  सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करने के वास्तविक समय का वास्तविक ज्ञान तो हमारे लिए असंभव है क्योंकि वह समय अति अल्प होता है और उस अल्प काल में संक्रांति के कार्यों को कर पाना भी संभव नहीं है।  देवी पुराण में संक्रांति की लघुता का उल्लेख करते हुवे बताया गया है कि स्वस्थ मनुष्य जब एक बार अपनी पलक झपकाता है तो उस पलक गिरने भर के समय का तीसवां काल तत्पर  कहलाता है और तत्पर का सौंवा भाग त्रुटि  कहा जाता है और त्रुटि सौवें भाग के समय में सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश कर जाता है।  

देवी माता सती ( 51 शक्ति पीठ) - (3)

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गतांक से आगे - माता सती का शरीर श्री हरि   विष्णु जी के सुदर्शन चक्र से   इक्यावन (51) खंडों में विभक्त होकर आर्यावर्त के विभिन्न विभिन्न स्थानों   पर गिरा।   जहां जहां माता सती के शरीर के अंग गिरे वह स्थान   एक महान शक्तिपीठ में परिणित हुआ , जहां पर साधकगण अपनी साधना कर भगवती जगदम्बा को प्रसन्न कर लाभ प्राप्त करते हैं। इक्यावन शक्तिपीठों  श्रृंखला में विगत लेख में इक्कीस शक्तिपीठ का उल्लेख किया गया था,  शेष शक्तिपीठ की जानकारी  निम्नानुसार प्रस्तुत की जा रही है -