चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य

 

चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य के जन्म को लेकर इतिहासकारों के मध्य कई मतभेद हैं फिर भी इस प्रकार की मान्यता है कि उनका जन्म करीब 2300 वर्ष पूर्व हुवा था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे।गंधर्वसेन को महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था, इनकी पांच पत्नियाँ मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी थी। रानी मदनलेखा को वीरमति और सौम्यदर्शना भी कहा जाता था, जोकि विक्रमादित्य की माता थी। विक्रमादित्य के भृतहरि, शंख एवं अन्य  भाई के अलावा एक बहन मैनावती भी थी। मैनावती का विवाह धारानगरी के राजा पद्मसेन के साथ हुआ था मैनावती का पुत्र गोपीचंद था जिन दोनों माता पुत्र ने योग दीक्षा ले ली थी। सम्राट वीर विक्रमादित्य का जन्म लगभग 101 ईसा पूर्व हुवा था,  जिन्होंने भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी  के राजसिंहासन पर  बैठकर करीब 100 सालों तक राज किया। राजा  विक्रमादित्य बड़े ही पराक्रमी थे साथ  ही वे अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्द थे, उनके दरबार के नवरत्न भी उनकी शान थे।सम्राट विक्रमादित्य अपने राज्य की जनता की जानकारी और कष्ट निवारण हेतु वे वेश बदलकर नगर करते थे। इतिहास में सबसे लोकप्रिय और न्यायप्रिय राजाओं में से एक माने जाने वाले सम्राट विक्रमादित्य अपने राज्य में न्याय व्यवस्था बनाये रखने के लिए हरसंभव कार्य करते थे।   
कहा जाता है कि पहले विक्रमादित्य के भाई भृतहरि राजा का शासन था, जिनके शासनकाल में शकों का आक्रमण हुआ था उस समय विक्रमादित्य ने शकों का सामना किया और उन्हें सम्पूर्ण एशिया से ही  बाहर खदेड़ दिया था।  विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त कर विश्व के प्रथम कैलेण्डर विक्रम संवत की शुरुआत की थी। बाद में राजा भृतहरि ने वैराग्य धारण कर राज्य का त्याग कर दिया था,  राजा भृतहरि के पुत्रों ने भी जब राज सिंहासन पर बैठने से मना कर दिया तब विक्रमादित्य ने ही राज सिंहासन संभाला। राजा विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त कराने के लिए वृहत अभियान चलाते हुवे अपनी सेना का पुनर्गठन किया। उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई थी, जिसने भारत की सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर भारत को  विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त कर एकछत्र शासन कायम किया था। राजा विक्रमादित्य ने अश्वमेघ यज्ञ भी किया था जिसके बाद वे चक्रवर्ती सम्राट बन गए थे।    

चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का युग इतिहास में स्वर्ण युग कहा जाता है। कहा जाता है कि चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का साम्राज्य वर्तमान भारत, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, जापान, अफगानिस्तान,  म्यांमार, श्रीलंका, इराक, ईरान, कुवैत, टर्की, मिस्त्र, अरब, नेपाल, दक्षिण कोरिया,  उत्तर कोरिया, इंडोनेशिया, अफ्रीका, रोम तक विस्तारित था और इसके अलावा अन्य कई देश सन्धिकृत थे। सम्राट विक्रमादित्य पहले राजा थे जिन्होंने अरब पर विजय प्राप्त की थी।  चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के शासन का वर्णन भविष्य पुराण एवं स्कन्द पुराण में भी मिलता है। प्राचीन अरब साहित्य में भी सम्राट विक्रमादित्य के शासन का वर्णन मिलता है। कहते है कि  प्रसिद्द अरबी कवि जरहाम किनतोई ने भी अपनी पुस्तक सायर उल ओकुल में  सम्राट विक्रमादित्य की अरब विजय का उल्लेख किया है, जो पुस्तक तुर्की इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्द लाइब्रेरी मकतब ए सुल्तानिया में आज भी सुरक्षित होना बताते है। कहते हैं कि सम्राट विक्रमादित्य रोम के राजा जूलियस सीजर को युद्ध में हराकर बंदी बनाकर उज्जैन में लाये थे।  

राज दरबार में नव रत्नों को नियुक्त करने की परंपरा चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने  ही प्रारम्भ की थी उनके दरबार में धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि नवरत्न थे जो उच्च कोटि के विद्वान्, श्रेष्ठ कवि, राजनीतिज्ञ, आयुर्वेदाचार्य, गणित एवं विज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान् एवं अपने अपने क्षेत्र के विषेशज्ञ थे और चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के राज दरबार की शान थे। चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य तब तक भोजन नहीं करते थे जब तक कि उनकी प्रजा भोजन न कर ले, उनकी वीरता, न्यायप्रियता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेकानेक गाथाएँ भारतीय साहित्य के कई भाषाओं के ग्रंथों में वर्णित है। यह भी कहा जाता है कि चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य की न्यायप्रियता से प्रभावित होकर देवराज इंद्र ने उन्हें बत्तीस पुतलियों वाला एक भव्य सिंहासन भेंट में दिया था जो पश्चात में करीब ग्यारह सौ वर्ष बाद इन्हीं के वंशज राजा भोज को मिला था।   

सिंहासन बत्तीसी के बारे में एक कथानुसार राजा विक्रमादित्य  बहुत ही न्यायप्रिय राजा थे जिनके न्याय की परख के लिए देवराज इंद्र ने उन्हें बुलाया वहाँ उनकी सभा में दो अप्सराओं रम्भा और उर्वशी के मध्य नृत्य की प्रतियोगिता थी जिसमे राजा विक्रमादित्य को श्रेष्ठ नर्तकी का निर्णय देना था। राजा विक्रमादित्य ने दोनों अप्सराओं को एक एक पुष्पगुच्छ दिया और पुष्पगुच्छ पर एक एक बिच्छु रख कर दोनों अप्सराओं से कहा कि नृत्य के समय पुष्पगुच्छ सीधे ही रहना चाहिए। रम्भा ने जैसे ही नृत्य करना प्रारम्भ किया बिच्छु ने उसे काट लिया तो रम्भा ने पुष्पगुच्छ फेंक कर नृत्य बंद कर दिया, वहीं दूसरी ओर उर्वशी ने नृत्य प्रारम्भ किया। उर्वशी द्वारा अति सुन्दर नृत्य प्रस्तुत किया जिससे बिच्छु को कोई कष्ट नहीं हुआ। राजा विक्रमादित्य ने उर्वशी को श्रेष्ठ नर्तकी होने का निर्णय दिया। राजा विक्रमादित्य की बुद्धि और विवेकशीलता से देवराज इंद्र बड़े प्रसन्न हुवे और उन्होंने राजा विक्रमादित्य को बत्तीस बोलने वाली मूर्तियों से युक्त सिंहासन भेंट किया। 

समस्त ब्रह्माण्ड में अपनी सुंदरता के  लिए विख्यात ये मूर्तियां अभिशिप्त थी और इनका श्राप किसी चक्रवर्ती राजा के न्याय से ही कट सकता था। इन मूर्तियों के अपने नाम क्रमशः रत्नमंजरी, चित्रलेखा, चन्द्रकला, कामकंदला, लीलावती, रविभामा, कौमुधे, पुष्पवती, मधुमालती, प्रभावती, कीर्तिमती, सुनैना, सुन्दरवती, सत्यवती, विध्यति, तारावती, रुपरेखा, ज्ञानवती, चंद्रज्योति, अनुरोधवती, धर्मवती, करुणावती, त्रिनेत्र मृगनयनी, वैदेही, मानवती,  जयलक्ष्मी, कौशल्या, रानी रूपवती थे। राजा विक्रमादित्य की गाथाएँ कई भाषाओं की कहानियों में मिलती है जिनमें विक्रम बैताल और सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ अति रोचक और ज्ञानवर्धक है,  बैताल पच्चीसी की पच्चीस कहानियाँ और सिंहासन बत्तीसी की बत्तीस कहानियां रोचक और न्यायपूर्ण कहानियाँ हैं।  

चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य बहुत ही पराक्रमी, बलशाली और बुद्धिमान राजा थे।  हमारा सनातन धर्म आज राजा विक्रमादित्य के ही कारण बचा हुआ है।  चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का शासनकाल रामराज्य के बाद सर्वश्रेष्ठ माना जाता था, जहाँ राजा और प्रजा दोनों ही धर्म पर चलने वाले थे।  चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के काल में हर नियम धर्म शास्त्र के हिसाब से बने होते थे।  न्याय, राजकाज सब कुछ धर्म शास्त्र के नियमों पर चलता था।  उन्होंने केवल धर्म ही नहीं बचाया बल्कि उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर भी सुदृढ़ बनाया।  उनके शासनकाल में भारत का कपडा विदेशी व्यापारी सोने के वजन से खरीदते थे।  भारत में उस समय प्रचुर मात्रा में सोना आ गया था।  चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य  स्वर्ण मुद्रा प्रचलन में थी। उनके शासनकाल में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था जिस पर एक रूपये का भी कर्ज हो।  राजा  विक्रमादित्य एकमात्र ऐसे राजा थे जिन्होंने अपनी प्रजा का कर्जा खुद चुकाया हो।  न्यायप्रिय चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के दरबार से कभी भी कोई निराश नहीं जाता था। हमारे ऐसे महान चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य को हम शत शत नमन करते हैं।   





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