खाटू नरेश श्री श्याम बाबा (2)

गतांक से आगे - अब तक हमने महापराक्रमी बर्बरीक के पूर्व जन्म का कथानक इसके पूर्व वाले लेख में पढ़ा  था। उसके पश्चात् जब ब्राह्मण विजय से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद और देवी द्वारा बताये अनुसार होमकुण्ड की भस्म को अपने पास सुरक्षित रखने के कुछ समय बाद ही दुर्योधन की कुटिलता और गांधार नरेश शकुनि की धूर्तता से पराजित होकर पांडवबन्धु एवं द्रोपदी सभी प्रसिद्द तीर्थों में भ्रमण करते हुवे वनवास की अवधि में इस तीर्थ क्षेत्र में स्नान तथा देवी दर्शन के लिए पहुंचे। अपनी थकान मिटाने के लिए वे सभी विश्राम के लिए वृक्ष की छाया में बैठे, सभी प्यास से भी व्याकुल थे। सामने जलकुण्ड देखकर भीमसेन उस कुंड से जल प्राप्त करने की इच्छा से आगे बढ़े।  तब धर्मराज युधिष्ठिर ने शास्त्र मर्यादा बताते हुए भीमसेन से कहा कि तुम पहले कुण्ड से जल लेकर बाहर ही हाथ पैर धोकर ही जल पीना, किन्तु प्यास से व्याकुल भीमसेन धर्मराज की बातों पर ध्यान नहीं दे सके और बगैर हाथ पैर धोये ही कुण्ड में प्रवेश कर उसी में हाथ पैर और मुँह धोने लगे। 
भीमसेन को ऐसा करते देख वहाँ देवी की सेवा में तत्पर बर्बरीक ने नाराज होकर कठोर वाणी में कहा कि इस कुण्ड के पवित्र जल से मैं रोज देवी को स्नान कराता हूँ और तुम इस प्रकार इस जल को अपवित्र कर रहे हो।  तुम्हारा यह कार्य अत्यंत ही पापपूर्ण और अमर्यादित है। बर्बरीक की बातें सुन भीमसेन को क्रोध आ गया और वे बोले कि जल प्राणियों के उपयोग के लिए ही होता है सभी शास्त्रों में तीर्थ स्नान का विधान है, तुम व्यर्थ मेरी निंदा क्यों कर रहे हो। तब बर्बरीक बोले तुम्हारा कहना सही है किन्तु निरंतर प्रवाहित नदी के लिए यह नियम है, कूप सरोवर आदि स्थावर जल के लिए नहीं। इनमें प्रविष्ट होने के पहले जल लेकर बाहर ही हाथ पैर धोने का विधान शास्त्रों में ही सुनिश्चित किया गया है।  अतः तुम शीघ्र ही कुण्ड से बाहर निकल आओ।   
  
भीमसेन ने बर्बरीक की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, तब बर्बरीक ने भीमसेन के मस्तक को लक्ष्य बना ईंट के टुकड़ो से मारना प्रारम्भ कर दिया।  इस प्रकार प्रहार करते देख भीमसेन अपने आप को बचाते हुवे कुण्ड से बाहर आए फिर दोनों एक दूसरे को ललकारते हुए आपस में भिड़ गए। बर्बरीक के सामने भीमसेन कुछ ही देर में दुर्बल पड़ने लगे। अंततः बर्बरीक ने भीमसेन को उठा लिया और उन्हें जल में फेंकने के लिए समुद्र की ओर चल पड़े।  तब देवाधिदेव महादेव ने प्रकट होकर बर्बरीक से कहा कि वत्स ये भरतकुल श्रेष्ठ तुम्हारे पितामह भीमसेन हैं, इन्हें छोड़ दो। ये यहाँ अपने भाइयों और पत्नी द्रोपदी के साथ तीर्थयात्रा पर आये हैं और ये सभी तुम्हारे सम्मानीय हैं। महादेव की यह वाणी सुनकर बर्बरीक भीमसेन को छोड़कर उनके पैरों में गिर पड़े और अत्यंत दुःखी होकर बोले मुझे धिक्कार है जो मैंने ऐसा दारुण पाप कर दिया। उनकी बातें सुनकर भीमसेन ने उन्हें ह्रदय से लगाकर सांत्वना दी किन्तु बर्बरीक जोकि आत्म ग्लानि से अत्यंत पीड़ित होकर बोले पितामह अब मुझे जीने का अधिकार नहीं है।  मुझसे आपका जो अपमान हुआ है, उसका प्रायश्चित केवल मृत्यु ही है अतः जिस शरीर से आपका अपमान हुआ वह शरीर अभी इसी मही सागर संगम में विसर्जित कर देता हूँ।  यह कहकर बर्बरीक समुद्र में प्रवेश कर गए।  

अपना शरीर त्याग करने के आशय से बर्बरीक के समुद्र में प्रवेश करने पर वहाँ सिद्धाम्बिका आदि देवियाँ उपस्थित हुई और उन्होंने बर्बरीक को समझाया की अनजाने में किये हुए पाप का कोई दोष नहीं लगता है इसलिए तुम दुखी मत होओ, देखो तुम्हारे पीछे तुम्हारे पितामह भी दौड़े चले आ रहे हैं। यदि तुम शरीर का त्याग कर दोगे तो वे भी अपना शरीर छोड़ देंगे, जिससे तुम्हें अपयश रूप पाप का भागी होना पड़ेगा। इसलिए शरीर त्यागने का विचार छोड़ दो, थोड़े समय बाद भगवान श्री कृष्ण के हाथों तुम्हार उद्धार होगा और तुम परम मोक्ष को प्राप्त होओगे। तुम उस समय की प्रतिक्षा करते हुए यही सुखपूर्वक निवास करो।  देवियों की बात मानकर बर्बरीक बड़े ही दुःखी मन से जल बाहर निकले, देवियों ने भी उन्हें चिरकाल तक सबका पूजनीय होने का आशीर्वाद दिया और अंतर्धान हो गई।  

पांडवों का वनवास  तेरहवाँ वर्ष समाप्त हुआ. उसके बाद युद्ध के लिए दोनों पक्षों की सेनाएँ आमने सामने एकत्र हुई तब पितामह भीष्म ने अपने पक्ष के वीरों से यह प्रश्न किया कि कौन कितने दिनों में सेना सहित पांडवों का संहार कर सकता है, तब द्रोणाचार्य ने 15 दिन, अश्वत्थामा ने 10 दिन, कर्ण ने 6 दिन में सेना सहित पांडवों को मारने की बात कही। अपने गुप्तचरों से यह समाचार सुन भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष यही प्रश्न महाराज युधिष्ठिर ने अपनी सेना के महारथियों से पूछा तब अर्जुन ने कहा कि वह अकेला ही एक दिन में सेना सहित कौरवों का सेना सहित वध कर सकता है। तब पराक्रमी बर्बरीक हँसते हुवे बोल उठे कि आप सभी लोग यही बैठकर सारा खेल देखें मैं सेना सहित सभी को एक मुहूर्त में ही यमलोक भेज दूंगा।  बर्बरीक की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण बोले वत्स भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा जैसे महारथियों से संरक्षित कौरवों की विशाल वाहिनी को तुम किस प्रकार मुहूर्त भर में यमलोक भेज दोगे। 

भगवान श्री कृष्ण की बात सुनकर महाप्रतापी बर्बरीक ने अपने विशाल धनुष पर एक बाण चढ़ाकर उसे भस्म पूरित करके छोड़ दिया, उस बाण से निकलने वाली भस्म दोनों सेनाओं के योद्धाओं के मर्मस्थल पर जा गिरी। केवल पांचों पांडवों, कृपाचार्य और अश्वत्थामा के शरीर से उसका स्पर्श नहीं हुआ।  इसके बाद बर्बरीक ने कहा कि आप देख रहे हैं कि मैंने सभी योद्धाओं के मर्मस्थलॉ का निरीक्षण कर लिया है अब मेरे द्वारा दूसरा  बाण चलाये जाते ही वह इन सबके मर्मस्थल पर जाकर गिरेगा और वे सब के सब मृत्यु के मुख में प्रविष्ट हो जावेंगे। बर्बरीक के यह कहते ही भगवान श्री कृष्ण ने अनिष्ट की आशंका को देखते हुवे सहसा अति शीघ्रता से अपने सुदर्शन चक्र से बर्बरीक का मस्तक काट दिया। भगवान श्री कृष्ण के इस कार्य से सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ, चारो ओर कोलाहल व्याप्त हो गया, पांडव भी दुखी हो गए। तभी सिद्धाम्बिका आदि देवियो ने आकर पांडवों को सांत्वना दी और बर्बरीक के पूर्व जन्म के वृतांत से सभी को अवगत कराया तथा ब्रह्माजी द्वारा सुर्यवर्चा यक्ष को भगवान श्री कृष्ण के हाथों मारे जाने के शाप की बात भी बताई।  

यहाँ कुछ मत भिन्नता भी है वह इस प्रकार कि बर्बरीक द्वारा अपनी माता को यह वचन दिया था कि वह किसी भी परिस्थिति में कमजोर पक्ष की तरफ से ही लड़ेगा। माता से इस प्रकार वचनबद्ध बर्बरीक ने महादेव जी को प्रसन्न करके उनसे तीन अमोघ अजेय बाण भी प्राप्त किये थे, जब भगवान श्री कृष्ण ने यह देखा कि कौरवों का पक्ष कमजोर होने पर बर्बरीक कौरवो की तरफ से युद्ध में लड़ सकता है तो वे ब्राह्मण के वेश में बर्बरीक के सामने आ गए और बोले कि सिर्फ तीन बाणों से तुम युद्ध कैसे लड़ोगे तो बर्बरीक बोले कि ये साधारण बाण नहीं है। एक ही बाण सम्पूर्ण सेना के लिए काफी है और इतना ही नहीं लक्ष्य प्राप्ति के बाद बाण वापस अपने स्थान पर आ जाता है।  श्री कृष्ण बोले हम जिस पीपल के पेड़ के नीचे खड़े है उस पीपल के सभी पत्तों को छेद कर दिखाओ तो मै मन जाऊंगा कि तुम्हारे एक बाण से ही सेना का अंत हो सकता है।  इस पर बर्बरीक ने उत्तेजित होकर तुरंत बाण को धनुष पर चढ़ा कर चला दिया देखते ही देखते पीपल के पेड़ पर लगे हुवे और नीचे गिरे सभी पत्तों में छेद हो गया और बाण श्री कृष्ण जी के पैरो के आसपास घूमने लगा क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैरो के नीचे छिपा लिया था। कहा जाता है कि हरियाणा के हिसार में स्थित उसी महाभारतकालीन पेड़ के पत्तों में आज भी छेद है सबसे बड़ी बात यह है कि उस पेड़ में जो नए पत्ते आते है उनमे भी छेद  पाया जाता है और इतना ही नहीं इसके बीज से उत्पन्न नए पेड़ के पत्तो में भी छेद पाया जाता है। 

भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि धर्म रक्षा के लिए पांडवों की जीत होना चाहिये किन्तु माता को दिए वचनों से बद्ध होकर अगर बर्बरीक कौरवों की और से लड़ेगा तो अधर्म की जीत हो जाएगी।  तब उन्होंने बर्बरीक से दान की इच्छा प्रकट की और जब बर्बरीक ने दान देने का वचन दिया तो उन्होंने बर्बरीक से उनका शीश मांग लिया। बर्बरीक द्वारा भगवान श्री कृष्ण को पहचानते हुवे उनके विराट स्वरुप को देखने की तथा सम्पूर्ण महाभारत युद्ध को देखने की मंशा व्यक्त करते हुवे सहर्ष ही भगवान श्री कृष्ण की मांग को स्वीकार कर अपना शीश उन्हें प्रदान करने की सहमति  दे दी। तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उनका शीश धड़ से पृथक कर दिया। इस प्रकार महान प्रतापी बर्बरीक शीश के दानी भी कहलाये। 

धड़ से मस्तक के पृथक होने पर भगवान श्री कृष्ण ने देवी से कहा कि देवी यह भक्त का मस्तक है, इसे अमृत से सिंचित कर अजर अमर कर दो,  देवी ने भी वैसा ही किया। उसके बाद भगवान श्री कृष्ण बोले वत्स जब तक यह पृथ्वी, सूर्य और चंद्र रहेंगे, तुम सब लोगों द्वारा पूजनीय रहोगे। अब तुम इस पर्वत शिखर पर विराजमान होकर वहीं से महाभारत युद्ध का अवलोकन करना। तब महादानी बर्बरीक का मस्तक पर्वत पर स्थित हो गया और वहां से उन्होंने सम्पूर्ण महाभारत के युद्ध को देखा।  महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद यह विवाद छिड़ गया कि कौरव पक्ष के प्रधान प्रधान महारथियों का वध किसने किया। धर्मराज युधिष्ठिर सारा श्रेय भगवान श्री कृष्ण को दे रहे थे किन्तु भीमसेन को यह नागवार लग रहा था। अंत में यह निर्णय हुआ कि इसका निराकरण पर्वत शिखर पर विराजमान बर्बरीक के मस्तक से कराया जावे।  

भीमसेन ने जब पर्वत शिखर पर जाकर बर्बरीक के मस्तक से पूछा कि पुत्र तुमने महाभारत का पूरा युद्ध देखा है, तुम्ही बताओ कौरवों की सेना के किस किस महारथी का किसने वध किया। बर्बरीक का मस्तक बोल उठा कि समस्त शत्रुओं के साथ पांडवों की ओर से मैंने केवल एक ही पुरुष को युद्ध करते देखा है। उस पुरुष की बांयी तरफ पांच मुख और विभिन्न आयुधों से सुशोभित दस हाथ थे। उस पुरुष के दांयी ओर एक मुख और चक्र आदि से सुशोभित चार भुजाएँ थी। बांयी ओर के मस्तक पर जटाये थी और  दांये मस्तक पर मुकुट चमक रहा था।  उस पुरुष ने बांयी ओर भस्म तथा दांयी ओर चन्दन का लेप कर रखा था। बांयी ओर चन्द्रकला तथा दांयी और कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। इस पुरुष के अतिरिक्त मैंने किसी अन्य को कौरव सेना से युद्ध करते नहीं देखा। बर्बरीक के इतना कहते ही आकाश मंडल मधुर ध्वनियों से गूंज उठा, देवतागण पुष्पवर्षा करने लगे।  भीमसेन काफी लज्जित हुए और वे श्री कृष्ण के पैरों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगे।  

उसके पश्चात भगवान श्री कृष्ण भीमसेन के साथ पुनः बर्बरीक के पास पहुंचे और बोले वत्स तुम्हें इस क्षेत्र  त्याग नहीं करना चाहिए।  हम सभी से जो भी अपराध हुवे हों उन्हें विस्मृत कर देना।  इस स्थान पर विराजित होकर तुम सम्पूर्ण लोगों द्वारा पूजित और सम्मानित होओगे। तुम्हारी वीरता और उदारता की कथा युगो युगो तक गूँजती रहेगी। भक्तों की आस्था और विश्वास के अनुरूप यही महा प्रतापी बर्बरीक वर्तमान में खाटू नरेश, खाटू वाले श्री श्याम प्रभु, शीश के दानी, हारे का सहारा, श्री श्याम बाबा के नाम से प्रसिद्द हैं और भगवान श्री कृष्ण, सिद्धाम्बिक देवियों आदि के वरदान से सर्वत्र पूजनीय एवं वंदनीय हैं।  हम भी नतमस्तक होकर खाटू वाले श्याम बाबा को साष्टांग दंडवत प्रणाम कर प्रार्थना करते हैं कि बाबा सबका कल्याण करें सब पर अपनी कृपा और आशीर्वाद बनाये ऱखे। जय श्री श्याम बाबा।                         

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