खाटू नरेश श्री श्याम बाबा (1)
भारतवर्ष की यह पावन धरा अनादिकाल से ही देवभूमि रही है और अनेकों महापुरुषों का इस धरा पर अवतरण हुआ है। स्वयं ईश्वर भी लोक कल्याण हेतु प्रत्येक युग में अवतार ग्रहण करके इस धरा पर अवतरित होते हैं। ईश्वर के अलावा भी समय समय पर कई महान विभूतियों का इस धरा पर अवतरण हुआ है, जिनकी श्रृंखला में परमवीर बर्बरीक का नाम उस युग से आज तक स्मरणीय, वंदनीय एवं पूजनीय चला आ रहा है, जिन्हें आज भी हम लोग खाटू वाले श्री श्याम बाबा के नाम से जानते हैं और उनके दरबार में अपनी हाजिरी देने तथा उनके दर्शन लाभ से लाभान्वित होने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। फाल्गुन के माह में तो खाटू धाम में विशाल मेला लगता है, जिसमें देश विदेश से काफी श्याम प्रेमी खाटू धाम अपने अपने मनोरथ लेकर बाबा के दर्शन के लिए पधारते हैं।
कहा जाता है कि श्री कृष्णावतार के पूर्व पृथ्वी पर हिंसा, अन्याय, परपीड़न, परद्रव्य हरण जैसे कई अत्याचार की प्रवृतियां अपने चरम पर पहुँच चुकी थी, जिससे समस्त देवता, ऋषि, मुनि, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि बहुत ही चिंतित हो उठे थे और वे सभी पितामह ब्रह्मा जी को आगे कर सुमेरु पर्वत पर श्री हरी विष्णु जी की स्तुति करने लगे। उस समय वहां उपस्थित सुर्यवर्चा नामक महाप्रतापी यक्ष अपने बल और पराक्रम के अभिमान से प्रमत्त होकर ब्रह्मा जी से बोला कि इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना करने से कुछ नहीं होना है, आप लोग अपना समय व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो, मेरे रहते किसी अन्य की प्रार्थना करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप लोग मुझे पृथ्वी पर जाने की अनुमति प्रदान करें, मैं क्षण मात्र में वहां के सारे अत्याचारियों को मृत्यु के मुख में भेज कर पृथ्वी का सम्पूर्ण भार दूर कर दूंगा। उस यक्ष के इस प्रकार के अहंकारपूर्ण कथनों को सुनकर ब्रह्माजी को अत्यंत ही क्रोध आ गया और उन्होंने उस यक्ष को शाप देते हुए कहा कि परब्रह्म परमात्मा की स्तुति से बढ़कर कुछ भी नहीं है, जिसे तुम अपने अहंकार के मद में व्यर्थ का काम बता रहे हो। तुम्हारी बुद्धि अभिमान से दूषित हो गई है। जब पृथ्वी का यह भार समस्त देवतागणों के लिए भी चिंता का विषय है, जिसे तुम अपने अभिमानवश केवल अपने लिए ही साध्य बता रहे हो। तुम्हे अपने इस अहंकारपूर्ण अनर्गल प्रलाप के लिए फल भोगना पड़ेगा। पृथ्वी का भार उतारते समय जब महाभारत का युद्ध आरम्भ होगा उस समय भगवान श्री कृष्ण अपने सुदर्शन चक्र से तुम्हारा शीश काट देंगे और तुम महा पराक्रमी होते हुए भी उस युद्ध में एक साधारण सैनिक की वीरता भी प्रकट नहीं कर सकोगे।
कालांतर में यही सुर्यवर्चा यक्ष द्वापर युग में पाण्डुपुत्र भीमसेन के पौत्र एवं घटोत्कच के पुत्र के रूप में नरकासुर के प्रधान मंत्री मुर असुर की पुत्री कामकंटकटा के गर्भ से उत्पन्न हुआ। बालक जन्म लेते ही युवावस्था को प्राप्त हो गया था और उसने तत्काल अपने माता पिता को प्रणाम कर कहा कि प्रत्येक बालक के आदि गुरु माता पिता ही होते हैं, आप मुझे मेरा नाम प्रदान करें। तब घटोत्कच ने कहा कि पुत्र तुम्हारे बाल बर्बराकार (घुंघराले) हैं इसलिए तुम्हारा नाम बर्बरीक होगा, तुम अपने कुल का हर्ष बढ़ाओगे। इसके पश्चात बालक बर्बरीक ने उत्सुकतावश कुछ प्रश्न अपने पिता से किये, जिसके समुचित उत्तर एवं बालक की जिज्ञासा का निराकरण करने के लिए घटोत्कच अपने पुत्र को साथ लेकर द्वारकापुरी पहुंचे, जहां यदुवंशियों की सभा में उन्होंने उग्रसेन, वासुदेव, सात्यकि, अक्रूर, बलराम जी आदि श्रेष्ठ पुरुषों का अभिवादन करते हुए अपने पुत्र सहित द्वारकाधीश भगवान श्री कृष्ण जी के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। भगवान श्री कृष्ण ने दोनों को उठा कर अपने ह्रदय से लगाया और आशीर्वाद देकर अपने पास बैठाते हुए आने का प्रयोजन पूछा। तब घटोत्कच ने अपनी कुशल क्षेम बताते हुए कहा कि प्रभु मेरा पुत्र आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता है, इसी प्रयोजन से मैं इसे लेकर आपके सन्मुख उपस्थित हुआ हूँ।
भगवान श्री कृष्ण ने युवा बर्बरीक को सुह्रदय नाम देते हुवे कहा कि वत्स तुम्हारे मन में जो भी प्रश्न पूछने की इच्छा हो बगैर किसी संकोच के पूछो। तब बर्बरीक ने एकाग्रतापूर्वक श्री कृष्ण के चरणों में प्रणाम कर पूछा प्रभो संसार में उत्पन्न हुए जीवों के कल्याण का सर्वोत्तम उपाय कौन सा है, इस विषय में विभिन्न विभिन्न लोग अपना मत देकर धर्म, दान, तपस्या, द्रव्य, भोग, मोक्ष आदि के बारे में बताते हैं, इनमें से सर्वश्रेष्ठ किसी एक श्रेय को आप मेरे लिए बताने की कृपा करें, जो मेरे और मेरे कुल के लिए सभी प्रकार से कल्याणकारी हो। बर्बरीक का प्रश्न सुन भगवान श्री कृष्ण बोले पुत्र प्रत्येक वर्ण के लिए अलग अलग श्रेय का विधान है, ब्राह्मणों के लिए इन्द्रियसंयम, तप और स्वाध्याय उत्तम है, क्षत्रियों के लिए बल की साधना श्रेष्ठ है, वैश्यों के लिए पशुपालन और कृषिकार्य का विधान है तो शूद्रों के लिए सेवा श्रेयस्कर है। तुम श्रेष्ठ क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए हो इसलिए ऐसी अपार शक्ति की प्राप्ति के लिए साधना करो जिसकी कोई तुलना नहीं हो। ऐसी अपार शक्ति प्राप्त कर तुम दुष्टों का दमन और साधुओं पर उपकार करो, जिससे तुम्हें यश, कीर्ति और स्वर्ग की प्राप्ति होगी। पुत्र, बल की प्राप्ति देवी कृपा से ही संभव है इसलिए तुम देवी आराधना करो।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा देवी आराधना करने का कहने पर बर्बरीक ने पूछा कि प्रभु मैं किस देवी की, कहाँ और कैसे आराधना करूं ? तब भगवान श्री कृष्ण बोले वत्स गुप्त क्षेत्र के नाम से प्रसिद्द महीसागर संगम नामक उत्तम तीर्थ है जहाँ पर नवदुर्गा का निवास है, तुम वहीं पर जाकर उनकी आराधना करो तुम्हें अपने अभिष्ट फल की प्राप्ति होगी।अपनी जिज्ञासा शांत होने पर युवक बर्बरीक भगवान श्री कृष्ण, अपने पिता घटोत्कच एवं उपस्थित सभी सभासदों को प्रणाम कर गुप्त क्षेत्र के लिए निकल पड़े। गुप्त क्षेत्र पहुंच कर बर्बरीक एकनिष्ठ भाव से नवदुर्गा देवी की उपासना में तल्लीन हो गये। तीन वर्षों की अनवरत आराधना पर देवियों ने प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा कि वत्स बर्बरीक हम तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हैं, अब तुम्हारे पास ऐसा अमोघ बल होगा जो तीनों लोकों में दुर्लभ होगा। तुम कुछ समय यही पर निवास करो, कुछ दिनों बाद यहाँ मगध देश के ब्राह्मण विजय का आगमन होगा, जिनके संपर्क से तुम्हारा कल्याण होगा।
नवदुर्गा देवी के आदेश से बर्बरीक वहीं रहने लगे। कुछ समय व्यतीत होने पर ब्राह्मण विजय का आगमन हुआ। ब्राह्मण देव ने वहां पूजन कर सुदीर्ध काल तक देवी आराधना की। ब्राह्मण की साधना से तुष्ट देवी ने स्वप्न में आकर उन्हें दर्शन देते हुए कहा कि ब्राह्मण श्रेष्ठ तुम सिद्धिमाता के आँगन में भक्तिपूर्वक सभी विद्याओं की साधना करो, हमारा भक्त सुह्रदय सभी प्रकार से तुम्हारी सहायता करेगा। दूसरे दिन ब्राह्मण विजय ने बर्बरीक से कहा की भद्र जब तक मैं यहाँ माता के समक्ष विद्या साधना में रत रहूँ तब तक तुम देवी स्त्रोत का पाठ करते हुए यहीं रहो, जिससे मेरी साधना में किसी प्रकार के विघ्न नहीं आवें। ब्राह्मण की बात सुनकर बर्बरीक उनके आदेश पालन में तत्पर हो गए। ब्राह्मण की तपश्चर्या और आराधना के मध्य बहुत से राक्षसों और असुरों ने विघ्न डालने का प्रयास किया किन्तु वे सभी महावीर बर्बरीक द्वारा मारे गए।
उस समय एक दैत्य माया का आश्रय लेकर एक दिगम्बर सन्यासी के वेश में प्रकट होकर बोला कि यह बड़े ही अनर्थ का काम हो रहा है, अग्नि में आहुति डालकर काफी जीवों का अकारण वध किया जा रहा है। बुद्धिमान बर्बरीक तुरंत ही उस दैत्य की कपट माया को पहचान गए और बोले की अग्नि में आहुति देने से सभी देवताओं को तृप्ति होती है, तू माया से कपट रूप धरकर मिथ्यावचन कर रहा है, इसलिए दंड का पात्र है। यह कहकर बलशाली बर्बरीक ने अपने मुष्टि प्रहार से उसके सारे दांत तोड़ दिए। वह दैत्य वहां से भागकर पाताल लोक में स्थित बहुप्रभा नामक नगरी में जा छिपा, बर्बरीक भी उसका पीछा करते हुवे वहां आ पहुंचे। वहां उस दैत्य के सहायक राक्षसों ने बहुत बड़ी आसुरी सेना के साथ पराक्रमी बर्बरीक को घेर लिया किन्तु महाबली बर्बरीक ने उन्हें क्षण मात्र में ही परास्त कर मार डाला।
उन दैत्यों के संहार से नागराज वासुकि को बड़ी प्रसन्नता हुई क्योंकि नागराज वासुकि एवं उनके कुलबंधुओं सहित समस्त सहायकों को इन राक्षसों द्वारा काफी प्रताड़ित कर यहाँ से अन्यत्र चले जाने के लिए विवश कर दिया था। वे बर्बरीक से बोले कि हम तुमसे अति प्रसन्न हैं, और तुम्हें कोई मनोवांछित वर देना चाहते हैं। किन्तु बर्बरीक ने नागराज वासुकि से अपने लिए कुछ न मांगकर यह मंशा व्यक्त की कि नागराज यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो मेरी यही प्रार्थना है कि ब्राह्मण विजय सभी प्रकार की बाधाओं से विमुक्त होकर सिद्धि प्राप्त करे। नागराज वासुकि के तथास्तु कहने पर महापराक्रमी बर्बरीक द्वारा वह नगरी नागराज को सुपुर्द कर ब्राह्मण विजय के पास जाने के लिए निकल पड़े। लौटते समय मनोहारी मार्ग में उन्होंने देखा कि एक स्थान पर कल्प वृक्ष के नीचे कई रूपवती नागकन्याएँ एक रत्नमय दिव्य शिवलिंग की पूजा अर्चना कर रही है।
दिव्य शिवलिंग को देखकर उत्सुकतावश बर्बरीक ने उन नागकन्याओं से पूछा कृपया यह बताइये कि इस दिव्य प्रकाशमयी शिवलिंग की स्थापना किसने की है तथा इसके चारों ओर से निकलनेवाले मार्ग कहाँ कहाँ जाते हैं ? बर्बरीक द्वारा पूछने पर नागकन्याओं ने बताया कि सम्पूर्ण नागों के अधिपति भगवान श्री शेषजी ने कठिन तपस्या कर यहाँ इस शिवलिंग की स्थापना की है। इस शिवलिंग के दर्शन, स्पर्श, ध्यान और पूजन से सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है। यहाँ से पूर्व की तरफ जाने वाला मार्ग श्री पर्वत, पश्चिम की तरफ जाने वाला मार्ग शूर्पारक क्षेत्र, उत्तर का मार्ग प्रभास तीर्थ और दक्षिण का मार्ग कुरुक्षेत्र की ओर जाता है, इन मार्गों का निर्माण क्रमशः इलापत्र, कर्कोटक, ऐरावत और तक्षक नाग ने किया है। इसके अलावा शिवलिंग के ऊपर की ओर जाने वाला मार्ग जिधर जाने के लिए आप खड़े हैं वह गुप्त क्षेत्र में सिद्धलिंग के पास तक जाता है, जिस मार्ग को स्कन्द स्वामी ने अपनी अमोघ शक्ति के आघात से बनाया है।
बर्बरीक के प्रश्नो का उत्तर देने के बाद नागकन्याओं ने उनका परिचय जानना चाहा कि जब वे अंदर गए थे तब राक्षसों के पीछे गए थे अब अकेले कैसे आ रहे हैं, इसके अलावा वे सभी युवा बर्बरीक के मोहक स्वरुप पर मोहित होकर सभी उन्हें पति रूप में वरण करने की इच्छापूर्ति हेतु भी बर्बरीक से निवेदन करने लगी। तब बर्बरीक ने अपनी जाति कुल का सम्पूर्ण परिचय देते हुवे दैत्यों के संहार की पूरी बात कहते हुए सभी नागकन्याओं से कहा कि देवियों मैंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया है इसलिए आपकी इच्छा पूर्ण करने में असमर्थ हूँ। इसके बाद बर्बरीक ने श्रद्धापूर्वक भक्तिभाव से दिव्य शिवलिंग का पूजन कर साष्टांग दंडवत प्रणाम कर चल पड़े और ब्राह्मण विजय के पास आ पहुंचे।
ब्राह्मण विजय तब तक अपनी आराधना पूर्ण कर चुके थे, बर्बरीक को देखकर वे काफी प्रसन्न हुवे और बोले वीर श्रेष्ठ तुम्हारी कृपा से मैंने अतुलनीय सिद्धि प्राप्त कर ली है तुम चिरंजीवी होकर सदा सुखी रहो, दानशील और विजयी बनो। मेरे होमकुंड से अत्यंत पवित्र भस्म उठा लो, यह इतनी प्रभावी है कि युद्ध में शत्रुओं पर फेंकने मात्र से उसका विनाश हो जावेगा। ब्राह्मण विजय की स्नेहभरी बातें सुनकर उदार ह्रदय बर्बरीक बोले जो निष्काम भाव से किसी का उपकार करता है वही साधु कहलाता है। अतः आप यह पवित्र भस्म किसी अन्य को प्रदान कर दें। आपके सफल मनोरथ प्राप्ति से ही मुझे अपने कर्म का फल प्राप्त हो गया है, मैं कुछ नहीं चाहता हूँ। इस पर देवताओं ने कहा कि भविष्य में कौरवों और पांडवों के मध्य भयंकर युद्ध होगा यदि यह भस्म कौरवों के हाथ लग गई तो पांडव पराजित हो जावेंगे, अतः तुम पांडवों के कल्याण के लिए यह भस्म धारण करो। तब बर्बरीक ने उस भस्म को लेकर अपने पास सुरक्षित रख लिया।
इसके बाद महाभारत युद्ध में क्या हुआ और महापराक्रमी बर्बरीक शीश के दानी कैसे बने इसके लिए अगले लेख खाटू वाले श्री श्याम बाबा (2) अवश्य पढ़े। जय श्री श्याम।
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