जगतजननी शक्ति देवी जगदम्बा का प्राकट्य
शक्ति की उपासना, आराधना के नवरात्री के इन दिनों को जगतजननी जगदम्बा माँ दुर्गा की सेवा करते हुए शक्ति पर्व के रूप में मनाये जाने की परंपरा रही है। नवरात्री के ये दिन माँ दुर्गा को सर्वाधिक प्रिय होते हैं। पुरे वर्ष भर में चार नवरात्री के अवसर आते हैं जिनमे दो गुप्त नवरात्री कहे जाते हैं। सनातन धर्म को मानने वाले अधिकांश सनातनी शक्ति पर्व के रूप में मनाये जाने वाले नवरात्री के इन अवसरों पर शक्ति अर्जित करने के लिए माँ जगदम्बा की आराधना, सेवा, पूजा अपने अपने तरीके और परंपरा के अनुसार करते हैं, व्रत उपवास भी करते हैं। माँ जगदम्बा के बारे में कुछ लिखने की मेरी सामर्थ्य तो नहीं है किन्तु महिषासुर के संहार के लिए देवी माँ जगदम्बा के प्राकट्य का विवरण जोकि हमारे पवित्र धार्मिक ग्रंथ श्री दुर्गा सप्तशती के द्वितीय अध्याय में उल्लेखित है, उसे आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
परम बलशाली महिषासुर के नेतृत्व मेँ असुरो की सेना ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया था। देवताओ द्वारा अपने नायक देवराज इंद्र के नेतृत्व में असुरो की सेना के साथ युद्ध तो किया किन्तु उस युद्ध में देवताओँ की सेना महाबली असुरों से पराजित हो गई थी। समस्त देवताओ को जीतकर महिषासुर स्वयं इंद्र बन बैठा था। उस समय असुरों से परास्त समस्त देवतागण भगवान श्री ब्रह्माजी के समक्ष इस संकट के निवारण के लिए उपस्थित हुवे, जब श्री ब्रह्माजी ने भी इस संकट के निवारण में अपने आप को असहाय माना तो वे समस्त देवताओ को साथ लेकर उस स्थान पर गए जहाँ पर भगवान श्री शंकरजी और भगवान श्री विष्णुजी विराजमान थे। समस्त देवताओ ने महिषासुर के पराक्रम और अपनी पराजय का सम्पूर्ण वृतांत उन दोनों देवेश्वरों को विस्तार पूर्वक कह सुनाया कि भगवान महिषासुर सूर्य, इंद्र, अग्नि, यम, वरुण, वायु, चन्द्रमा तथा अन्य देवताओं के सभी अधिलार छीनकर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बन बैठा है। दुरात्मा महिषासुर ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है अब वे सभी देवतागण मनुष्यों की तरह पृथ्वी पर विचरते हैं। अब हम आपकी ही शरण में आये हैं, महिषासुर के वध का कोई उपाय कीजिये और हमारा संकट दूर कीजिये।
देवताओं के वचनों को सुनकर भगवान श्री विष्णुजी और श्री शिवजी ने असुरों पर काफी क्रोध किया, उस समय अत्यंत क्रोध से भरे हुवे चक्रपाणि भगवान श्री विष्णुजी के मुख से एक तेज प्रकट हुआ, उसी प्रकार से ब्रह्माजी, शंकरजी, इंद्रदेव और अन्य सभी देवताओं के शरीर से भी तेज प्रकट हुआ जो सब मिलकर महान तेज का पर्वत सा जान पड़ता था, उस अतुलनीय तेज की ज्वालायें सम्पूर्ण दिशाओं में फ़ैल रही थी। वह सम्पूर्ण तेज पुंज एकत्र होकर एक नारी के रूप में परिणित हो गया। भगवान शंकरजी के तेज से उन देवी का मुख प्रकट हुआ, यमराज जी के तेज से उनके सिर में बाल निकल आये, भगवान श्री विष्णुजी के तेज से उनकी भुजाएँ उत्पन्न हुई। चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तनों का और देवराज इंद्र के तेज से मध्यभाग का प्रादुर्भाव हुआ। वरुणदेव के तेज से जंघा और पिंडली तथा पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग प्रकट हुए। श्री ब्रह्माजी के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से चरणों की अंगुलियाँ प्रकट हुई। वसुओं के तेज से हाथों की अंगुलियाँ और कुबेर के तेज से देवी की नासिका प्रकट हुई। देवी के दाँत प्रजापति के तेज से और तीनों नेत्र अग्नि के तेज से प्रकट हुए, देवी की भौहें संध्या के तेज से और कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए। इसी प्रकार से सभी देवताओं के तेज से उन कल्याणमयी देवी का आविर्भाव हुआ, जिन्हे देखकर महिषासुर के सताए हुए सभी देवतागण बहुत प्रसन्न हुए।
पिनाकधारी भगवान श्री शंकरजी ने अपने शूल से एक शूल निकाल कर देवी को प्रदान किया। भगवान श्री विष्णुजी ने भी अपने चक्र से चक्र उत्पन्न करके देवी भगवती को अर्पण किया। वरुण देव ने देवी को शंख भेंट किया, अग्निदेव ने देवी को शक्ति प्रदान की। देवराज इंद्रदेव ने अपने वज्र से वज्र उत्पन्न करके देवी को प्रदान किया साथ ही ऐरावत हाथी से उतार कर एक घंटा भी प्रदान किया। श्री यमराज ने अपने कालदण्ड से दंड, वरुणदेव ने पाश, प्रजापतिजी ने स्फटिकाक्ष की माला देवी को प्रदान की। श्री ब्रह्माजी ने देवी भगवती को कमण्डलु भेंट किया। सूर्यदेव ने देवी भगवती के समस्त रोमकूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया। काल ने देवी भगवती को चमकती हुई दाल और तलवार भेंट की। क्षीर सागर ने देवी भगवती को उज्जवल हार और कभी नहीं फटने वाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये साथ ही दिव्य चूड़ामणि, दो कुण्डल, कड़े. अर्धचंद्र, सब बाहुओं के लिए केयूर, दोनों चरणों के लिए निर्मल नूपुर, गले की सुन्दर हंसली और सभी अँगुलियों में धारण करने के लिए रत्नो की अंगूठियां प्रदान की। श्री विश्वकर्मा जी ने देवी को निर्मल फरसा भेंट किया साथ ही अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र और अभेद कवच भी प्रदान किये। समुद्र ने देवी को सुन्दर कमल का पुष्प भेंट किया। हिमालय ने सवारी के लिए सिंह तथा भांति भांति के रत्न अर्पित किये। कोषपाल कुबेर ने मधु से भरा हुआ पानपात्र तथा सम्पूर्ण नागों के राजा शेष ने देवी को बहुमूल्य मणियों से विभूषित नगर भेंट किया।
इसी प्रकार से अन्य देवताओं ने भी आभूषण और अस्त्र शास्त्र देकर देवी भगवती का सम्मान किया। तब देवी भगवती ने अट्टहासपूर्वक उच्च स्वर से गर्जना की, जिससे सम्पूर्ण विश्व में हलचल मच गई और समुद्र काँप उठे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत हिलने लगे। उस समय सभी देवताओ ने देवी भगवती की विनम्र भक्तिभाव से स्तुति कर प्रार्थना की कि महिषासुर और उसकी सेना का संहार करके हमारी रक्षा करो और हमारा संकट दूर करो। देवी भगवती ने भी प्रसन्न होकर सभी देवताओं को आश्वस्त किया और रणक्षेत्र की और चल पड़ी। रणक्षेत्र में देवी भगवती ने रणचण्डी बनकर अकेले ही महिषासुर की सम्पूर्ण सेना को तहस नहस कर काल के गाल में समा दिया और महिषासुर के सेनापतियों तथा सहयोगी असुरों का संहार कर अंत में महिषासुर का भी संहार कर दिया और सभी देवताओं को भयमुक्त कर सदैव रक्षा का आश्वासन दिया। शक्तिपर्व के अवसर पर देवी भगवती को बारम्बार प्रणाम साथ ही यह प्रार्थना कि वे सम्पूर्ण विश्व को कोरोना महामारी से भयमुक्त करें और सभी की रक्षा करें। सभी का कल्याण करें, सभी पर अपनी कृपा बनाये रखें। जय माता दी।
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