तारणहार प्रभु श्री कृष्ण
भगवान श्री कृष्ण जी के चरित्र से कोई भी सनातन धर्म को मानने वाला सनातनी अनभिज्ञ नहीं है किन्तु कतिपय लोगों द्वारा उनके चरित्र को लेकर कई टीका टिप्पणी की जाती रही है और अपने हिसाब से उनके चरित्र की व्याख्या भी की जाती रही है। इस कार्य में जहां सनातन धर्म के विरोधियों के साथ ही कुछ टी वी सीरियल और फ़िल्मों का योगदान है वहीं कुछ कथाकारों ने भी अपनी कथाओं के माध्यम से वास्तविक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करते हुवे एक अलग ही काल्पनिक चरित्र का बखान सिर्फ अपनी कथा को रसीली बनाने के दुराशय से करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और योगिराज भगवान श्री कृष्ण जी के चरित्र को विकृत करके प्रस्तुत करने में लगे हुवे हैं। जबकि हमारे सनातन धर्म की सच्चाई हमारे धर्म ग्रंथों के माध्यम से आसानी से प्राप्त हो सकती है, जिससे उपरोक्तानुसार कतिपय लोगों द्वारा फैलाई गई भ्रांतियों को भी दूर किया जा सकता है। आइये हम हमारे धर्म ग्रंथों से प्राप्त जानकारी अनुसार तारणहार भगवान श्री कृष्ण जी के जीवन के बारे में जानने का प्रयास करते हैं।
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मध्य रात्रि को मथुरा में कंस के कारगार में माता देवकी और पिता वासुदेव जी की अष्टम संतान के रूप में भगवान श्री कृष्ण जी द्वारा माता देवकी जी के गर्भ से जन्म लिया, उसी दिन वासुदेव जी उन्हें नन्द - यशोदा के घर गोकुल में छोड़ आते हैं। इस प्रकार से जन्म लेते ही माता पिता का सानिध्य छूट जाता है। मात्र छः दिन की उम्र में षष्टी स्नान के दिन ही कंस द्वारा उन्हें मारने के लिए भेजी गई राक्षसी पूतना का सामना करना पड़ा और खेलखेल में ही उसका उद्धार किया, उसके बाद एक वर्ष की आयु होते होते फिर कंस द्वारा अन्य राक्षस तृणावर्त को उन्हें मारने भेजा जिसका भी उद्धार भगवान श्रीकृष्ण जी के हाथों हुआ।
एक वर्ष पांच माह बीस दिन की आयु में माघ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन भगवान श्री कृष्ण जी का अन्नप्राशन संस्कार संपन्न हुआ, उसके बाद दो वर्ष की आयु में महर्षि गर्गाचार्य जी द्वारा दाऊ भैया के साथ उनका भी नामकरण संस्कार कराया। दो वर्ष छः माह की उम्र में माता द्वारा ऊखल से बांधकर दी सजा के परिणामस्वरूप यमलार्जुन (नलकूबर और मणिग्रीव) का उद्धार किया। गोकुल में इस प्रकार की बाल लीला करते हुवे कंस के द्वारा भेजे और भी राक्षसों का उद्धार करते हुवे दो वर्ष दस माह की आयु में गोकुल से वृंदावन पंहुचे।
वृतासुर और बकासुर नामक कंस के द्वारा भेजे गए राक्षसों का चार वर्ष की आयु में उद्धार किया। उसके बाद पांच वर्ष की आयु में अधासुर का उद्धार किया साथ ही दावाग्नि का पान भी किया और ब्रह्मा जी के गर्व को भी भंग किया तथा कालिया नाग का मर्दन कर उसे यमुना नदी को छोड़ने के लिए विवश कर ब्रजवासियों को कालिया नाग के भय से मुक्त किया। पांच वर्ष तीन माह की आयु में यमुना नदी में स्नान कर रही गोपियों का चीर हरण कर मर्यादित जीवन की शिक्षा दी वहीं पांच वर्ष आठ माह की आयु में यज्ञ पत्नियों पर कृपा की।
सात वर्ष दो माह सात दिन की आयु में गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर धारण कर देवराज इंद्र का गर्व भंग किया और गोवर्धनधारी कहलाये उसके बाद उन्हें गोविन्द का नाम भी मिला। सात वर्ष दो माह अठारह दिन की आयु में नन्द बाबा को वरुणलोक से छुड़ाकर वापस लाये। आठ वर्ष एक माह की आयु में गोपियों के साथ महारास किया। आठ वर्ष छः माह पांच दिन की आयु में सुदर्शन गन्धर्व का उद्धार किया उसके बाद आठ वर्ष छः माह इक्कीस दिन की आयु में शंखचूड़ दैत्य का उद्धार किया। अपनी नौ वर्ष की आयु में अरिष्ठासुर (वृषभासुर) और केशी नामक दैत्य का उद्धार कर केशव कहलाये।
दस वर्ष दो माह की आयु में वृंदावन भी छोड़ दिया और मथुरा आ गए जहाँ दस वर्ष दो माह बीस दिन की आयु में मथुरा नगरी में कंस का वध कर उसका उद्धार किया और कंस के पिता उग्रसेन जी को मथुरा के राज सिंहासन पर दोबारा पदासीन किया साथ ही कंस के कारागार से अपने जनक माता पिता देवकी जी और वासुदेव जी को छुड़ाया।ग्यारह वर्ष की आयु में अवंतिका नगरी में सांदीपनी मुनि के गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए गए जहाँ एक सौ छब्बीस दिनों में सम्पूर्ण वेदों, गजशिक्षा, अश्वशिक्षा, धनुर्वेद सहित चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया। उसके बाद पञ्चजन दैत्य का उद्धार कर पाञ्चजन्य शंख को धारण किया। बारह वर्ष की आयु में भगवान श्री कृष्ण जी का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार हुआ।
अपनी बारह से अठाइस वर्ष की आयु तक श्री कृष्ण जी द्वारा मथुरा में जरासन्ध को सत्रह बार पराजित किया उसके बाद अठाइस वर्ष की आयु में ही जरासन्ध के बार बार हमले से ब्रज भूमि को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से मथुरा छोड़ने का निश्चय किया उसी समय जरासन्ध के द्वारा कालयवन के साथ अठारवी बार हमले के समय कालयवन की सेना का संहार कर मथुरा में युद्ध से भाग कर रणछोड़ कहलाये तथा मार्ग में ही कालयवन का संहार करवाया और डाकोर में अल्प विश्राम करते हुवे रत्नाकर (सिन्धुसागर) पर द्वारिका नगरी की स्थापना की।
उनतीस से सैंतीस वर्ष की आयु में रुक्मिणी हरण पश्चात् द्वारिका में रुक्मिणी से विवाह, जांबवन्त से युद्ध उसके बाद स्यमन्तक मणि प्राप्ति के साथ ही जांबवन्ती के साथ विवाह हुआ। इसी प्रकार से सत्यभामा एवं कालिंदी से विवाह के साथ ही कैकय देश की कन्या भद्रा और मद्र देश की कन्या लक्ष्मणा से विवाह हुआ। इसी आयु में नरकासुर का वध कर नरकासुर की कैद से सोलह हजार एक सौ कन्याओं को मुक्त कराकर द्वारिका में उनसे विवाह हुआ। इसी समय में अमरावती में इन्द्रादि देवताओं को जीतकर पारिजात वृक्ष (कल्पवृक्ष) के साथ ही इंद्र देव से अदिति के कुण्डल लेकर द्वारिका आये। इसी समय में शोणितपुर में बाणासुर से युद्ध के बाद उषा और अनिरुद्ध को लेकर द्वारिका वापसी की। पौण्ड्रक, काशिराज, सुदिक्षण और कृत्या का वध और काशी दहन भी इसी समय हुआ।
अड़तीस वर्ष से चहोत्तर वर्ष की आयु में पांडवों की सहायता के साथ ही द्रोपदी स्वयंवर के साथ साथ इंद्रप्रस्थ की रचना करवाने के अलावा सुभद्रा हरण में अर्जुन की सहायता की। शिशुपाल और उसके भाई शाल्व का वध किया। पिचोत्तर वर्ष की आयु में धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर इंद्रप्रस्थ आगमन हुआ। जरासन्ध के वध में भीम की सहायता कर जरासन्ध की कारागार से बीस हजार आठ सौ राजाओं को मुक्त करवाकर मगध के सिंहासन पर जरासन्ध के पुत्र को बैठाया। पिचोत्तर वर्ष दस माह चौबीस दिन की आयु में द्युत क्रीड़ा में द्रोपदी (चीरहरण) की लाज बचाई तथा उसके बाद वन में पांडवों से भेंट कर सुभद्रा और अभिमन्यु को साथ लेकर द्वारिका को चले।
उन्नब्बे वर्ष एक माह सत्रह दिन की आयु में अभिमन्यु और उत्तरा के विवाह में बारात लेकर विराट नगर पहुंचे और वहीं विराट की राजसभा में कौरवों के अत्याचार तथा पाण्डवों के धर्म व्यवहार का पक्ष रखते हुवे सुयोग्य दूत को हस्तिनापुर भेजने का प्रस्ताव रखा और सभी सभासदों के आग्रह पर स्वयं पाण्डवों का सन्धि प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर गए और आगामी रणनीति द्रुपद जी के सुपुर्द कर द्वारिका लौट आये। द्वारिका में युद्ध के सहायता के लिए दुर्योधन और अर्जुन का एक साथ आना और दोनों को ही सहायता की स्वीकृति देकर अपनी चतुरंगिणी सेना दुर्योधन को देकर अर्जुन का सारथि बनना स्वीकार किया। उन्नब्बे वर्ष तीन माह सत्रह दिन की आयु में कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश देने के बाद महाभारत युद्ध में अर्जुन के सारथि बनकर पाण्डवों की अनेक प्रकार से सहायता की।
उन्नब्बे वर्ष चार माह आठ दिन की आयु में अश्वत्थामा को तीन हजार वर्षो तक जंगल में भटकने का श्राप दिया और गांधारी के श्राप को स्वीकार किया। उन्नब्बे वर्ष सात माह सात दिन की आयु में धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करवाया और इक्यानवे बानवे वर्ष की आयु में धर्मराज युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ में सम्मिलित हुवे। एक सौ पच्चीस वर्ष चार माह की आयु में द्वारिका में यदुवंश का कुल विनाश हुआ उसके बाद उन्होंने उद्धव जी को उपदेश दिया होकर एक सौ पच्चीस वर्ष पांच माह इक्कीस दिन की आयु में प्रभास क्षेत्र में अपनी लीला को समेट कर स्वधामगमन किया। जय श्री कृष्ण।
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