सरदार भगत सिंह

सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1906 को एक सिख किसान परिवार में हुआ था।  उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। बचपन में बारह साल की उम्र में ही अमृतसर में हुए जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बालमन पर गहरा प्रभाव डाला था, बारह मील पैदल चलकर वे जलियाँवाला बाग जा पहुंचे थे। भगत सिंह ने लाहौर के नॅशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। वर्ष 1922 में चौरी चौरा हत्याकांड के बाद गांधीजी द्वारा किसानों का साथ नहीं देने पर भगत सिंह काफी निराश हो गए और उसके बाद उनका अहिंसा पर से विश्वास उठ गया और सशस्त्र क्रांति से ही स्वतंत्रता प्राप्त हो सकती है, यह निश्चय कर लिया था। 
उसके बाद वे चंद्रशेखर आजाद के साथ ग़दर दल का हिस्सा बन गए। काकोरी कांड में पंडित रामप्रसाद बिस्मिल एवं उनके साथी क्रांतिकारियों को फांसी तथा अन्य साथियो को आजीवन कारावास की सजा होने से भगत सिंह बड़े ही उद्विग्न हो गए होकर चंद्रशेखर आजाद के साथ हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन नामक संगठन के माध्यम से सेवा, त्याग और पीड़ा सहन कर सकने वाले नवयुवकों को एकजुट करने में लग गए। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया था, उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारी में चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु आदि रहे। चन्द्र शेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबत्ती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खाई थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी भी की।       

साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय जबरदस्त प्रदर्शन हुए थे, जिनमें सम्मिलित होने वाले जनसमुदाय पर अंग्रेजी शासन ने लाठीचार्ज भी किया था। लाठीचार्ज में उस समय लाला लाजपत राय काफी घायल हुए थे, जिनकी बाद में मृत्यु हो गई थी। लाला जी की मृत्यु से भगत सिंह काफी आहत हुए और उन्होंने एक गुप्त योजना के तहत पुलिस सुपरिटेंडेंट को मारने की योजना बनाई। योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने टहलने लगे और जयगोपाल अपनी साईकिल लेकर इस प्रकार बैठ गए मानो साईकिल ख़राब हो गई हो।  उधर चंद्रशेखर आजाद पास के ही एक स्कूल की दीवार के पास छिपकर घटना के अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे।  जयगोपाल के इशारे से सब सचेत हो गए, और ए. एस. पी. सॉन्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधे अंग्रेज अधिकारी के सिर में गोली मारी और उसके तुरंत बाद भगत सिंह ने भी तीन चार गोली दाग कर वहीं पर उसका काम तमाम कर दिया और भागने लगे। इन्हें भागते देख एक सिपाही ने इनका पीछा करना शुरू किया तब चंद्रशेखर आजाद ने उस सिपाही को सावधान किया कि आगे बढ़े तो गोली मार दूंगा, जब सिपाही नहीं माना तो आजाद ने उसे वही गोली मार कर ख़त्म कर दिया, इस प्रकार इन्होने लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला ले लिया और सही सलामत भाग निकले।  

भगत सिंह को पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों के शोषण की नीति पसंद नहीं थी, उस समय अंग्रेज ही सर्वेसर्वा थे बहुत ही कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाए थे। इस कारण अंग्रेजों द्वारा मजदूरों के प्रति अत्याचार का उनका विरोध स्वाभाविक ही था। भगत सिंह और उनके दल ने यह सुनिश्चित किया कि मजदुर विरोधी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित नहीं होने देंगे। उन सभी की मंशा थी कि अंग्रेजों को पता लगना चाहिए कि अब हिंदुस्तानी जाग्रत हो गए हैं और उनके दिल में ऐसी नीतियों के प्रति घोर आक्रोश है।  इसी मंशा की पूर्ति के लिए उन्होंने दिल्ली स्थित केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई थी। इसमें भगत सिंह चाहते थे कि कोई खून खराबा न हो और अंग्रेजों तक उनकी आवाज भी पहुँच जाये।  इस कार्य के लिए सर्वसम्मति से भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के नाम का चयन हुआ। तय योजना के अनुसार इन दोनों ने केंद्रीय असेम्बली में ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था ताकि कोई आहत न हो। पूरा हॉल धुंवें से  भर गया, भगत सिंह चाहते तो वहाँ से भाग सकते थे पर उन्होंने शायद पहले से ही सोच रखा था कि चाहे फांसी भी हो जाय वे नहीं भागेंगे सब दंड स्वीकार है।  बम फटने के बाद उन्होंने इंकलाब जिंदाबाद, साम्रज्यवाद मुर्दाबाद के नारे लगाते हुवे अपने साथ लाये हुवे पर्चे हवा में उछाल दिए। इसके कुछ देर बार ही पुलिस आ गई और उन्हें गिरफ्तार करके ले गई।      

भगत सिंह दो साल तक जेल में रहे, इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रन्तिकारी विचार व्यक्त  किया करते थे। भगत सिंह को पंजाबी, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भाषा का भी ज्ञान था। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन कार्य भी जारी रहा लेखों के साथ ही अपने सम्बन्धियों को पत्र लिखकर भी अपने विचार व्यक्त कर दिया करते थे। अपने लेखों में पूंजीपतियों के खिलाफ लिखते हुए वे कहते थे कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहे भारतीय ही क्यों न हो वह उनका शत्रु है। 

जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने कई दिनो तक भूख हड़ताल  भी की थी, उनके एक साथी यतींद्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में ही अपने प्राणों को त्याग दिया था। अदालत ने भगत सिंह को अपराधी सिद्ध करते हुए 68 पृष्ठों के अपने निर्णय अनुसार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई और सजा सुनाते ही लाहौर में धारा 144 लगा  दी गई। भगत सिंह की फांसी की सजा की माफ़ी के लिए प्रिवी कौंसिल में प्रस्तुत अपील को भी ख़ारिज कर दिया गया। उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और भी अधिक उद्विग्न हो जावेगी जो उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाए, इसी कारण से उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफीनामा लिखने से साफ मना  कर दिया।   

23 मार्च 1931 को शाम भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने के पहले भगतसिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और फांसी के लिए ले जाते समय तीनों मस्ती में मेरा रंग दे बसंती चोला मेरा रंग दे, मेरा रंग दे बसंती चोला माय रंग दे बसंती चोला गा रहे थे।  फांसी के बाद किसी  प्रकार का कोई आंदोलन भड़क न जाय इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर टुकड़े किये फिर बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर चले वहां मिंट्टी का तेल डालकर इन्हें  जलाया जाने लगा किन्तु गांव के लोगों को शक हो जाने और उनके आ  जाने से उन अधजले अवशेष सतलुज नदी में फेंक कर भाग गए।  तब गांववालों ने उन अवशेषों को एकत्र कर विधिवत दाह संस्कार किया और इस प्रकार से भगत सिंह हमेशा के लिए अमर हो गए। आज भी भगत सिंह को आजादी के दीवाने के  रूप में  देखा जाता है, जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिंदगी देश के लिए समर्पित कर दी। मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले, माँ भारती के वीर सपूत, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह जी की जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन।                    


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