माता सीता द्वारा किया गया श्राद्ध कर्म
कई बार हमारे मन में सवाल उठता है कि श्राद्ध क्या होते हैं, क्यों मानते हैं, कैसे मनाते हैं, यह कोई अन्धविश्वास है या इसका कोई शास्त्रीय आधार भी है। हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि से आश्विन मास की अमावस्या तक के पखवाड़े के सोलह दिन पितृ पक्ष कहे जाते हैं, जिसमें सनातनी अपने पूर्वजों अर्थात पितरों को विशेष रूप से सम्मानपूर्वक याद कर उन्हें धन्यवाद और श्रद्धांजलि अर्पित कर उनके निमित्त ब्रह्मभोज आदि संपन्न करते हैं। सनातन धर्म में पितृ पक्ष का विशेष महत्त्व माना जाता है, ऐसी मान्यता है कि इस समय हमारे पूर्वज अपने वंशजों को आशीर्वाद देने आते हैं। पितृ पक्ष में मृत व्यक्ति का श्राद्ध करने से उन्हें आत्मिक शांति प्राप्त होती है और वे मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं। श्राद्ध कर्म के बारे में हमारे धार्मिक ग्रंथो में भी काफी कुछ उल्लेख मिलता है, रामायण और महाभारत में भी इस संबंध में कई प्रसंग आये हैं। उसी में एक प्रसंग त्रेता युग में माता सीता द्वारा राजा दशरथ जी को पिंड अर्पित करने और राजा दशरथ जी को आत्मिक शांति की प्राप्ति होने का भी एक प्रसंग आता है।
वनवास काल के समय प्रभु श्री राम जी, लक्ष्मण जी और माता सीता पितृ पक्ष के समय श्राद्ध कर्म के लिए गया धाम पधारे। वहाँ ब्राह्मण देव द्वारा बताये श्राद्ध कर्म की आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए दोनों भ्राता गए। श्राद्ध कर्म का समय निकट आता जा रहा था और दोनों भ्रातागण के वापस नहीं लौटने के कारण माता सीता की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी, उसी समय ब्राह्मण देव ने माता सीता से आग्रह किया कि पिंडदान का समय निकला जा रहा है। ठीक उसी समय महाराज दशरथ जी की आत्मा ने भी माता सीता को यह अहसास कराया कि पिंडदान का समय बीता जा रहा है, तब माता सीता ने भी समय का महत्त्व समझ कर यह निर्णय लिया कि वे समय बीतने नहीं देंगी और समय रहते ही स्वयं ही राजा दशरथ जी का पिंडदान करेंगी।
माता सीता ने उस समय फल्गू नदी के साथ साथ वहाँ उपस्थित वटवृक्ष, कौआ, तुलसी, गाय और ब्राह्मण देव को साक्षी मान कर बालू रेत का पिंड बनाकर स्वर्गीय महाराज दशरथ जी का पिंडदान पूर्ण विधि विधान के साथ संपन्न करने के बाद जैसे ही हाथ जोड़कर प्रार्थना की तो महाराज दशरथ जी ने माता सीता द्वारा अर्पित पिंडदान स्वीकार कर लिया। पिंडदान के बाद माता सीता यह सोचकर प्रफुल्लित हो रही थी कि उन्होंने समय रहते पिंडदान कर दिया और उसे महाराज दशरथ जी ने स्वीकार भी कर लिया, वहीँ वे यह भी जानती थी कि प्रभु श्री राम इस बात को नहीं मानेंगे क्योकि पिंडदान पुत्र के बिना नहीं हो सकता है।
प्रभु श्री राम जी और लक्ष्मण जी जब श्राद्ध कर्म की सामग्री लेकर आये और जब उन्होंने पिंडदान के विषय में पूछा तब माता सीता द्वारा बताया कि श्राद्ध कर्म का समय व्यतीत हो रहा था इस कारण समय रहते ही उन्होंने स्वयं ही पिंडदान कर दिया है। प्रभु श्री राम जी को इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था कि बिना पुत्र और बिना सामग्री के पिंडदान किस प्रकार से संपन्न और स्वीकार हो सकता है। तब माता सीता ने कहा कि उनके द्वारा किये गए श्राद्ध कर्म के बारे में उस समय वहां उपस्थित फल्गू नदी, तुलसी, कौआ. गाय, वटवृक्ष और ब्राह्मण देव से पूछ कर अपनी संतुष्टि करने को कहा। जब प्रभु श्री राम जी ने इन सभी से पिंडदान के विषय में जानकारी लेना चाही तो फल्गू नदी, तुलसी, कौआ. गाय और ब्राह्मण देव ने अपने अल्प स्वार्थवश तथा भयवश असत्य कथन कर दिया कि माता सीता ने कोई पिंडदान नहीं किया। केवल वटवृक्ष ने सत्य स्थिति से प्रभु श्री राम जी को अवगत कराया कि माता सीता द्वारा हम सभी को साक्षी रखकर विधि विधानपूर्वक महाराज दशरथ जी का पिंडदान संपन्न किया है।
फल्गू नदी, तुलसी, कौआ. गाय और ब्राह्मण देव के इस प्रकार से सरासर असत्य वचन कहने से माता सीता को उन पांचों पर बड़ा ही क्रोध आया तथा उन्होंने क्रोधित होकर इन पांचों को आजीवन श्राप दिया। फल्गू नदी को माता सीता द्वारा श्राप दिया कि वह केवल नाम की नदी रहेगी उसमें पानी नहीं रहेगा, इसी कारण फल्गू नदी गया में सुखी पड़ी रहती है, रेत को खोदकर के चुल्लु भर जल श्राद्ध कर्म के लिए प्राप्त होता है। गाय को माता सीता द्वारा श्रापित किया था कि जिस खाद्य सामग्री के भक्षण के प्रलोभन में उसने असत्य भाषण किया वही खाद्य संबरी के लिए उसे दर दर भटकना होगा और असत्य भाषण के कारण ही मुख मंडल पूजनीय नहीं होगा। माता सीता के श्राप के परिणामस्वरूप गाय पूजनीय होने के बाद भी मुख मंडल के स्थान पर उसकी पूंछ को उद्धारक माना गया है और उसी के सहारे वैतरणी पार करने की उक्ति भी कही जाती है।
इसी प्रकार से माता सीता द्वारा कौवे को श्राप दिया कि वह तिरस्कृत रहेगा और लड़ झगड़ कर ही खायेगा, सो वैसी ही स्थिति कौवे की आज भी है। तुलसी को गया की मिटटी में नहीं पनपने के श्राप के परिणामस्वरूप तुलसी गया की मिटटी में नहीं फलती है, ऐसा कहा जाता है। ब्राह्मण देव भी अपने असत्य भाषण के कारण माता सीता द्वारा श्रापित हुवे। माता सीता द्वारा ब्राह्मण को कभी भी संतुष्ट नहीं होने तथा कितना भी मिले उसकी दरिद्रता बनी रहने का श्राप दिया। इसी कारण आज भी देखा गया है कि ब्राह्मण दान दक्षिणा से कभी संतुष्ट होते ही नहीं है। माता सीता द्वारा दिए गए श्रापों का प्रभाव आज भी इन पांचों में देखा जा सकता है।
जहाँ असत्य बोलने पर उक्त पांचों को माता सीता ने श्राप दिया था वहीँ सत्य बोलने के लिए वटवृक्ष को उन्होंने अपना आशीर्वाद भी दिया, उन्होंने प्रसन्न होकर वटवृक्ष को आशीर्वाद दिया कि उसे लम्बी आयु प्राप्त होगी और वह सदैव दुसरों को छाया प्रदान करेगा साथ ही यह भी आशीर्वाद दिया कि पतिव्रता नारी वटवृक्ष की पूजा या स्मरण भी कर लेगी तो उसके सुहाग की रक्षा तो होगी साथ ही सुहाग दीर्घायु भी होगा, तो आज वृक्षों में वटवृक्ष की आयु सबसे अधिक है और सुहागिन नारियाँ अपने पति की रक्षा और दीर्घायु के लिए वटवृक्ष की पूजा वट सावित्री व्रत के अवसर पर करती है। इसी प्रकार से गयाधाम में आज भी जब तक अक्षय वट वृक्ष के नीचे श्राद्ध कर्म संपन्न नहीं होता तब तक श्राद्ध कर्म को पूर्ण नहीं माना जाता है, ऐसा कहा कि वह वही वटवृक्ष है।
पितृ पक्ष के अवसर पर सभी पितृदेवों को नमन सभी पर पितृदेव की कृपा और आशीर्वाद बना रहे। जय श्री कृष्ण।
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