बसंत पंचमी

आँगन  में अम्बुआ बौराया है,  महुए ने जंगल महकाया है,  पलाश पर टेसू दहकाया है, लगता है बसंत आया है।माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथी को श्री पंचमी और बसंत पंचमी कहा जाता है।  भारतीय सनातन धर्म में इस दिन का धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से काफी महत्त्व है।  सनातन धर्म में इसे एक त्यौहार के  मनाने की परंपरा रही है, जिसका आज भी निर्वाह किया जा रहा है। हमारे यहाँ पुरे वर्ष भर में जो मौसमों और ऋतुओं की व्यवस्थाऍ हैं, उसमें एक बसंत ऋतु का अपना अलग ही महत्त्व है।  बसंत का मौसम सभी जनमानस का अति मनचाहा मौसम होता है। 
बसंत ऋतू के आगमन से प्रकृति का कण कण खिल उठता है। मानव ही नहीं पशु पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नई उमंग के साथ सूर्योदय होता है और नई चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। वैसे तो माघ का पुरा महीना ही उत्साहदायक है परन्तु बसंत का स्वागत करने के लिए मनाया जाने वाला यह पर्व बसंत पंचमी को ही मनाया जाता है। बसंत के आते ही फूलो पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों के फूलों की एक अलग ही स्वर्णिम आभा दिखाई देने लगती है। जौ और गेहूँ की बालियां खिलने लगती है, आमों पर मांजर (मौर) आ जाते हैं। चहुँऔर रंग बिरंगी तितलियाँ मंडराने लगती हैं और भँवरो का गुंजन सुनाई देने लगता है।  

हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी तब न तो ध्वनि थी और न स्वर थे ।  सम्पूर्ण सृष्टि एकदम शांत थी।  उस समय भगवान श्री हरि विष्णु जी की आज्ञा से ब्रह्मा जी ने इसी दिन अपने कमण्डल से जल लेकर संकल्पित होकर जब छोड़ा तो उससे एक चतुर्भुज नारी के रूप में अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ।  जिनके हाथों में वीणा, माला, पुस्तक इत्यादि थी, जिन्हें सरस्वती नाम प्रदान किया गया।  जब ब्रह्मा जी के कहने पर देवी सरस्वती ने अपनी वीणा की तान छेड़ी तो सम्पूर्ण जगत में ध्वनि फ़ैल गई और वाणी का उद्भव हुआ।  देवी सरस्वती को ज्ञान और संगीत की देवी भी कहा जाता है और बसंत पंचमी का दिन देवी सरस्वती के प्राकट्य दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।  

देवी भागवत पुराण में उल्लेख है कि माघ शुक्ल पंचमी तिथि को ही संगीत, काव्य, कला, शिल्प, रस, छंद और शब्द शक्ति जिव्हा को प्राप्त हुई थी।  इसी कारण से बसंत पंचमी के दिन हम लोग देवी सरस्वती का पूजन अर्चन कर उनकी आराधना करते हैं।  इस दिन ज्ञान की वृद्धि और उन्नति के लिए बच्चों की शिक्षा को प्रारम्भ करने की भी परम्परा रही है।  समस्त शिक्षाविद एवं कलाकार इस दिन ज्ञान और कला की  देवी माँ सरस्वती का पूजन कर उनसे और अधिक ज्ञानवान और कला से परिपूर्ण होने का आशीर्वाद चाहते हैं।  जिस प्रकार सैनिकों के लिए शस्त्र और विजयादशमी का महत्त्व है, व्यापारियों के लिए अपने तराजू बाट और बहीखाते साथ दीपावली का महत्त्व है उसी प्रकार शिक्षाविदों और कलाकारों के लिए बसंत पंचमी का महत्त्व है। चाहे कवि हो या लेखक, गायक हो या वादक, नाटककार हो या नृत्यकार सब इस दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और माँ सरस्वती की वंदना करके ही करते हैं।

 देवी सरस्वती का प्राकट्य दिवस एवं बसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक बसंत पंचमी का त्यौहार सम्पूर्ण भारत सहित भारत देश के बाहर भी कई देशों में मनाया जाता है।  हमारे देश में महाराष्ट्र एवं बंगाल में तो कई सामाजिक संस्थाएं इस दिन को बच्चों को विद्यारम्भ संस्कार प्रदान करने के लिए बड़े आयोजन रखती  हैं, जिसमे समाजजन अपने छोटे छोटे बच्चों को संस्कारित कराने हेतु उन आयोजनों में सम्मिलित होते हैं।  ऐसी मान्यता है कि बसंत पंचमी के दिन जो भी व्यक्ति देवी सरस्वती की पूजन विधि विधान से करता है उसे विद्या और बुद्धि का विशेष वरदान देवी सरस्वती से प्राप्त होता है।  बसंत पंचमी के दिन पीले वस्त्र पहनकर पीले पुष्पों से पूजन करने का भी विधान है।  इसी के साथ पीले रंग की सामग्री से बने हुवे भोजन का नैवेद्य लगाकर खुद प्राप्त करने की भी प्राचीन परम्परा है, जिसका कई लोग आज भी अनुसरण करते हैं।  

बसंत पंचमी के दिन  देवी सरस्वती के अलावा भगवान श्री हरि विष्णु और कामदेव की भी पूजन करने का विधान है।  बसंत पंचमी के दिन को अबूझ मुहूर्त के रूप में भी मान्यता हमारे सनातन धर्म में मानी जाती है, इस कारण विद्यारम्भ के अतिरिक्त अन्य मांगलिक कार्य, विवाह आदि के कार्य भी इस दिन बगैर मुहूर्त देखे किये जाने की प्रथा आज भी प्रचलन में है।  कई समाजों में तो आज भी यह परम्परा है कि देवउठनी एकादशी के ही समान बसंत पंचमी पर भी सामुहिक विवाह आदि के आयोजन किये जाकर कई जोड़ों के पाणिग्रहण संस्कार संपन्न कराये जाते हैं।  

बसंत पंचमी का पर्व अन्य कई कारणों से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सिखधर्म के दशम गुरुदेव गुरु गोविन्द सिंह जी का जन्म भी इसी दिन हुआ था हालांकि कुछ मान्यताएँ यह भी है की इस दिन गुरु गोविन्द सिंह जी का विवाह संपन्न हुआ था।  परम प्रतापी राजा भोज का जन्म भी बसंत पंचमी के ही दिन हुआ था और राजा भोज बसंत पंचमी के दिन बहुत बड़ा उत्सव मानते थे।  यह भी कहा जाता है कि महाराज पृथ्वीराज चौहान जी का आत्मबलिदान भी इसी दिन हुआ था।  हमारे धार्मिक ग्रंथो, काव्य ग्रंथों में पृथक पृथक रूप से चित्रित बसंत पंचमी का यह पावन पर्व भारत देश के अलावा पश्चिमोत्तर बांग्लादेश और नेपाल में तो मानते ही हैं साथ ही विश्व भर में रहने वाले हमारे देशवासी हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।  आइये हम भी  देवी सरस्वती के प्राकट्य दिवस एवं प्रकृति के निखार के इस दिवस बसंत पंचमी को प्रेम एवं उत्साह से मनाते हुवे माँ शारदा की आराधना कर लाभ प्राप्त करें। जय माँ शारदा।  




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