भक्तशिरोमणि श्री नामदेव जी
भक्त शिरोमणि श्री नामदेव जी का जन्म कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को माना जाता है। महाराष्ट्र के सतारा जिले में कराड के पास नरसी वामनी नामक ग्राम में नामदेव जी का जन्म हुआ था किन्तु कुछ लोग मराठवाड़ा के परभणी और कुछ पंढरपुर को इनका जन्म स्थान मानते हैं। इनकी माता जी का नाम गोनई था और पिताजी दामासेठ था। भक्त नामदेव के पिताजी दामा सेठ अपना पारम्परिक रूप से दर्जी का कार्य किया करते थे और भगवान विट्ठल के परम भक्त थे। नामदेवजी को भगवन्नाम स्मरण और भगवान विट्ठल की सेवा विरासत में प्राप्त हुई थी। बचपन में भगवान विट्ठल के नाम का जयकारा लगाना ध्यान करना नामदेव जी का नित्य कर्म था। भगवान विट्ठल की सेवा में लीन नामदेव जी आठ वर्ष की आयु में भगवान को अपने हाथों से नैवैद्य खिलाने और दूध पिलाने लगे थे, वे भगवान विट्ठल की मूर्ति के समक्ष दूध और नैवैद्य लेकर बैठ जाते थे और भगवान से कहते थे कि आप भोग लगाओ नहीं तो मैं भी नहीं खाऊंगा। बालक नामदेव के इस प्रकार से आग्रह करने पर भगवान को भी विवश होकर पाषाण मूर्ति से निकल कर बाहर प्रकट होकर दूध और नैवैद्य का भोग लगाना पड़ता था। माताजी जो कुछ भी बालक नामदेव को देती वे अपने प्रिय विट्ठल को अर्पित कर दिया करते थे।
नौ वर्ष की आयु में बालक नामदेव का विवाह कल्याण की निवासी राजाई के साथ संपन्न हुआ। दाम्पत्य जीवन के परिणामस्वरूप नामदेव जी को चार पुत्र और एक कन्या संतानोत्पत्ति हुई थी। बेटो के विवाह हुए बहुऍ आई किन्तु नामदेव जी को गृहासक्ति नहीं हुई और वे अपना गांव घर छोड़कर पंढरपुर में ही आकर बस गए। भक्त नामदेव जी ने विसोबा खेचर जी को अपना गुरु बनाया और उनसे पंढरपुर के पचास कोस दूर स्थित ओढ़िया नागनाथ नामक प्राचीन शिव मंदिर में शिक्षा ग्रहण की थी। इस मंदिर से एक ओर प्रसंग जुड़ा हुआ है वह इस प्रकार है कि एक बार शिवरात्रि के अवसर पर नामदेव जी वहां दर्शन करने गए और भगवान शंकर के दर्शन पूजन करके उनके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गए और कीर्तन करने लगे। उस समय शिवजी का अभिषेक करने वाले पंडितों ने नामदेव जी की कीर्तन भक्ति का तिरस्कार करते हुवे वहां से उन्हें हटा दिया। नामदेव जी भी नम्रतापूर्वक वहां से हटकर मंदिर के पिछवाड़े खड़े होकर कीर्तन करने लगे। कहते हैं कि भगवान भूतनाथ अभिषेक करने वाले ब्राह्मणों की तरफ पीठ फेरकर नामदेव जी के सम्मुख हो गए। बताया जाता है कि वहाँ इस घटना का प्रमाण मंदिर में स्थित नंदी की प्रतिमा से भी मिलता है जोकि भगवान शिव के सम्मुख नहीं होकर पीछे स्थित है।
नामदेव जी के वैसे तो अनेक शिष्य हुवे किन्तु उनके प्रथम शिष्य थे परिसा भागवत। मराठी भाषा में परिसा का अर्थ होता है सुनो। ये महानुभाव पंढरपुर में श्रीमदभागवत कथा वाचक थे और सदैव ही आमजन को सुनो भागवत का उपदेश दिया करते थे, जिससे इनका नाम ही सुनो (परिसा) भागवत पड़ गया था। इन्हे अपने ज्ञान पर गर्व था और नामदेव जी के यश से ईर्ष्या थी। एक बार इनकी कथा सुनने के लिए नामदेव जी भी बैठे थे तब इन्हे मौका मिल गया और इन्होने नामदेव जी को नीचा दिखाने के लिए ईर्ष्यावश काफी कुछ कहा किन्तु नामदेव जी शांत भाव से सुनते रहे और अंत में बिना कोई उत्तर दिए परिसा भागवत के चरणों में नतमस्तक हो गए, जिससे परिसा भागवत को और भी प्रोत्साहन मिला। घर जाकर उन्होंने अपनी पत्नी को कहा कि नामदेव बड़ा ही भक्त बनता है आज मैंने उसकी सारी पोल खोल दी तो मेरे चरणों में आ गिरा और माफ़ी मांगने लगा।
परिसा भागवत की पत्नी काफी समझदार थी नामदेवजी जैसे भक्त की निंदा और उनके तिरस्कार की बात से उन्हें काफी दुःख हुआ। उन्होंने अपने पति को समझया कि भक्तों से इस प्रकार ईर्ष्या करना और उन्हें नीचा दिखाना ठीक नहीं होता है, जिन नामदेव जी की भक्ति से ओढ़िया में भगवान शंकर भी घूम गए उनसे आप ईर्ष्या मत करो और तिरस्कार भी मत करो। भगवान भी उनके वश में है इसलिए उनसे प्रेम करो और उनका आदर करो, हो सकता है कि उनकी ही कृपा से आपका भी उद्धार हो जाये। पतिव्रता नारी का यह उपदेश परिसा भागवत पर असर कर गया उन्हें अपने किये पर काफी पछतावा भी हुआ। इसके बाद से वे भक्त नामदेव जी की हरिकथाऍ बड़े ही आदर के साथ सुनने लगे। एक दिन नामदेव जी जब कीर्तन कर रहे थे तब कीर्तन पर उन्होंने श्री पाण्डुरंगजी को नृत्य करते देखा तब तो कीर्तन संपन्न होते ही वे भक्त नामदेव जी के चरणों में गिर गए। नामदेव जी ने उन्हें उठाया और गले से लगाया उसके बाद तो परिसा भागवत अपना सारा अभिमान छोड़कर नामदेव जी के शिष्य बन गए।
भगवान विट्ठल की आज्ञा से नामदेव जी संत ज्ञानेश्वर जी के साथ साथ पंढरपुर से तीर्थयात्रा पर निकले। तीर्थयात्रा के बीच में राजस्थान की मरुभूमि में बीकानेर के पास उन्हें प्यास लगी। बड़ी ही विडंबना थी अब मरुभूमि में जल कहाँ से मिलेगा। बड़ी मुश्किल से उन्हें एक कुआ दिखाई दिया किन्तु वह भी सूखा था। ज्ञानेश्वर जी को योग की कई सिद्धियाँ प्राप्त थी सो वे अपनी योग सिद्धि से कुवे में नीचे उतरे और तल को भेदकर जल पी आये और नामदेव जी से बोले तुम्हे भी इसी तरह से जल ला देता हूँ तब नामदेव जी बोले कि कहीं जल भी किसी दूसरे के हाथ से पिया जाता है क्या ? ऐसा कहकर उन्होंने अपने विट्ठल को पुकारा, तो ऐसा बताया जाता है कि पुकार के बाद तुरंत ही पुकार के उत्तर में कुवे के अंदर से जल का सोता फुट पड़ा और पूरा कुआ जल से भर गया और जल कुवे की पाल के ऊपर से बाहर बहने लगा। ज्ञानेश्वर जी इस प्रकार से नामदेवजी की भक्ति का यह प्रताप देखकर अति प्रसन्न हुए और बोले कि तुमने अपनी निष्ठा से भगवान को अपना लिया है तुम धन्य हो।
ज्ञानेश्वर जी के समाधि लेने के बाद नामदेव जी कई साधुओं की मंडली के साथ तीर्थयात्रा करते हुवे मथुरा वृन्दावन पहुंचे और श्री विट्ठल नाम का संकीर्तन करते हुवे श्री कृष्ण जी की सम्पूर्ण लीलास्थलियों के दर्शन करते हुवे पंजाब पहुंचे। पंजाब में भी नामदेव जी ने भगवन्नाम का काफी प्रचार किया। जिस प्रकार से महाराष्ट्र में उनके भजन कीर्तन गाये जाते थे उसी प्रकार से पंजाब में भी नामदेव जी की वाणी गाई जाने लगी। श्री गुरुग्रंथ साहब में भी भक्त नामदेव जी के पदों का संकलन किया गया है। ज्वालापुर में भक्त नामदेव जी का एक मठ है इसके अलावा गुरदासपुर में भी नामदेव जी द्वारा बनवाया गया ठाकुरद्वारा है, जहाँ बाद में भक्त नामदेव जी की चरणपादुका स्थापित की गई है।
एक बार नामदेव जी हरिकीर्तन कर रहे थे तब एक मुग़ल बादशाह भक्त नामदेव जी के कीर्तन का तिरस्कार करने और भक्त नामदेव जी का अपमान करने की मंशा से वहाँ आये और वहां आकर एक गाय की हत्या कर दी और नामदेव जी से बोले कि यदि तुम्हारे राम, कृष्ण, हरी, विट्ठल वास्तव में हैं तो इस गाय को पुनः जीवित कर दो अन्यथा इसी तलवार से तुम्हारा वध कर दूंगा। तब ऐसा बताते है की नामदेवजी ने भगवान विट्ठल से प्रार्थना करके उस गाय को पुनः जीवनदान दिलवा दिया। नामदेव जी अठारह वर्ष पंजाब में रहे उसके बाद वे पंढरपुर वापस लौट आये। पंढरपुर लौटकर नामदेव जी विट्ठल प्रभु से बोले हे भगवान आप जैसे परमदेव दूसरे कोई नहीं हैं, पंढरपुर जैसा कोई क्षेत्र नहीं है और चंद्रभागा जैसा कोई तीर्थ नहीं है और यही अभिलाषा है कि अब अंतिम समय तक अपने श्री चरणों में ही रहने देना। पंढरपुर में श्री विट्ठल मंदिर के महाद्वार की सीढियो पर ही अस्सी वर्ष की आयु में भक्त नामदेव जी ने अपना शरीर त्याग किया और श्री हरी विट्ठल प्रभु के श्री चरणों में लीन हो गए।
भक्त श्री नामदेव जी का सम्पूर्ण जीवन मानव कल्याण के लिए समर्पित रहा। भक्त नामदेवजी की वाणी से सरलता थी और उनकी वाणी ह्रदय को बांधे रखती थी। नामदेवजी ने ब्रह्मविद्या को लोक सुलभ बनाकर महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक भगवन्नाम का प्रचार किया, पजाब में उन्हें नामदेव बाबा के नाम से जाना जाता है। पंढरपुर में आज भी हर साल लाखो भक्तगण आकर भगवान विट्ठल और उनके परम भक्त शिरोमणि श्री नामदेव जी के दर्शन लाभ प्राप्त करते हैं। विट्ठल विट्ठल विट्ठला हरी ॐ विट्ठला, भगवान श्री विट्ठल प्रभुजी को सादर नमन करते हुवे भक्त शिरोमणि श्री नामदेव जी के श्री चरणों में भी हमारा सादर वंदन। दुर्गा प्रसाद शर्मा।
Comments
Post a Comment