महाराज श्री अग्रसेन जी

व्यापारियों  के गढ़ के नाम से प्रसिद्द अग्रोदय नामक राज्य जिसकी राजधानी अग्रोहा थी, वहां के महानतम राजा महाराज अग्रसेन जी का जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। प्रचलित मान्यतानुसार खांडवप्रस्थ, वल्लभगढ़ और अग्रजनपद, वर्तमान में दिल्ली से आगरा, के सूर्यवंशीय महाराजा वल्लभसेन जी के ज्येष्ठ पुत्र महाराज अग्रसेन जी का जन्म द्वापरयुग के अंतिम चरण और कलियुग के प्रारम्भकाल में भगवान राम के पुत्र कुश की चौंतीसवी पीढ़ी में होना माना जाता है। यह भी मान्यता है कि उन्होंने अपनी पंद्रह वर्ष की आयु में पांडवो के पक्ष में महाभारत युद्ध में कौरव सेना के विरूद्ध युद्ध लड़ा था। महाराज श्री अग्रसेन जी बचपन से ही अपनी प्रजा में बहुत ही लोकप्रिय थे, वे एक धार्मिक, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, शांतिदूत तथा समस्त जीवों से प्रेम व स्नेह रखने वाले दयालु राजा थे, जिन्होंने क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर वैश्य कार्य का वणिक धर्म अपनाया था। अग्रसेन जी महाराज के दो विवाह हुवे थे पहला नागराज की पुत्री माधवी से और दूसरा नागवंशी राजा की पुत्री सुन्दरवती से।
महाराज श्री अग्रसेन जी को युवावस्था में नागराज की कन्या राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में सम्मिलित होने का निमंत्रण मिला, उस स्वयंवर में दूर दूर से अनेकों राजा और राजकुमार पधारे थे यहाँ तक कि राजकुमारी के सौंदर्य के वशीभूत होकर देवराज इंद्र भी राजकुमारी से विवाह की इच्छा लेकर वहां उपस्थित हुए थे। स्वयंवर में राजकुमारी माधवी ने अग्रसेन जी के गले में जयमाला डाल उन्हें अपने पति रूप में चुना, जिससे देवराज इंद्र क्रोधित हो गए और उन्होंने प्रतापनगर में वर्षा रोक दी परिणामस्वरूप हाहाकार मच गया अकाल पड़ गया लोग मरने लगे।  तब महाराज श्री अग्रसेन जी ने देवराज इंद्र के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। अग्रसेन जी धर्मयुद्ध लड़ रहे थे उनका पक्ष मजबूत था जिसे देख देवताओं ने नारद जी को मध्यस्थ बना कर दोनों के मध्य सुलह करवा दी। महाराज श्री अग्रसेन जी के अठारह पुत्रों से ही अग्रवाल समाज के गौत्र अस्तित्व में आये।   
 
कुछ समय बाद महाराज श्री अग्रसेन जी ने अपनी प्रजा की खुशहाली के लिए काशी नगरी में जाकर भगवान शिवजी की घोर तपस्या की, जिससे शिवजी प्रसन्न हो गए और उन्होंने महाराज अग्रसेन जी को लक्ष्मी जी की तपस्या करने की कही। शिवजी के निर्देश अनुसार परोपकार के लिए उन्होंने लक्ष्मी जी की तपस्या की।  उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर लक्ष्मी जी ने उन्हें दर्शन देकर अपना नया राज्य बनाने और क्षात्र धर्म का पालन करते हुए अपने राज्य तथा प्रजा का पालन पोषण एवं रक्षा करने को कहा साथ ही यह आशीर्वाद भी दिया कि उनका राज्य हमेशा धन धान्य से परिपूर्ण रहेगा। तब अपने  नए राज्य की स्थापना के लिए महाराज श्री अग्रसेन जी ने अपनी रानी माधवी के साथ सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्होंने एक स्थान पर एक शेरनी को शावक को जन्म देते हुवे देखा, कहा  जाता है कि जन्म लेते ही शावक ने महाराज अग्रसेन जी के हाथी को अपनी माता के लिए खतरा समझ हाथी पर छलांग लगा दी। महाराज श्री अग्रसेन जी को लगा कि इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का यह दैवीय संकेत है, और उसी संकेत के आधार पर उस इलाके में अपने नए राज्य की स्थापना की, जिसका नाम अग्रोदय रखा गया तथा जिस जगह शावक का जन्म हुआ था वहां राजधानी अग्रोहा की स्थापना की। यह राजधानी अग्रोहा वाला स्थान वर्तमान में हरियाणा राज्य के हिसार के पास माना जाता है।   

महाराज श्री अग्रसेन जी ने सामाजिक उत्थान हेतु नियम बनाया था कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले प्रत्येक परिवार की सहायता के लिए नगर में रहने वाला प्रत्येक परिवार एक सिक्का और एक ईंट देगा, जिससे नगर में आकर बसने वाले नए परिवार के स्वयं के लिए निवास और व्यापार हेतु आवश्यक प्रबंध हो सके और उसे किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़े। कहा जाता है कि उनके राज्य में लाखों व्यापारी रहा करते थे तब नव आगंतुक के पास लाखों रूपये और ईंटे एकत्र हो जाया करती थी जिससे वह अपने रहने के साथ ही चिंता रहित होकर अपना व्यापार शुरू कर सकता था। इसी प्रकार महाराज श्री अग्रसेन जी द्वारा आपने शासनकाल में वैदिक सनातन आर्य संस्कृति की मान्यताओं को लागू कर राज्य के पुनर्गठन में कृषि, व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ ही नैतिक मूल्यों  की भी प्रतिष्ठा की थी। महाराज श्री अग्रसेन जी के राज्य में अग्रोदय गणराज्य ने दिन दूनी रात चौगूनी तरक्की की थी। 

महाराज श्री अग्रसेन जी ने माता महालक्ष्मी जी की कृपा से अपने राज्य को अठारह गणराज्यों में विभाजित कर एक विशाल राज्य अग्रोदय का निर्माण किया था। महर्षि गर्ग ने महाराज श्री अग्रसेन जी को अठारह गणाधिपतियों के साथ अठारह यज्ञ का संकल्प करवाया, उन यज्ञों में बैठे गणाधिपतियों के  नाम पर ही अग्रवंश के साढ़े सत्रह गौत्रों की स्थापना हुई। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ऋषि बने उन्होंने सबसे बड़े राजकुमार विभु को दीक्षित कर गर्ग गौत्र प्रदान किया। दूसरा यज्ञ गोभिल ऋषि द्वारा करवाया गया उन्होंने दूसरे राजकुमार को गोयल गौत्र प्रदान किया। इसी प्रकार से तीसरे यज्ञ में गौतम ऋषि ने गोयन गौत्र धारण करवाया तो चौथे यज्ञ में वत्स ऋषि ने बंसल गौत्र प्रदान किया। पांचवे यज्ञ में कौशिक ऋषि ने कंसल गौत्र,  छठे यज्ञ में शांडिल्य ऋषि ने सिंघल गौत्र, सातवे यज्ञ में मंगल ऋषि द्वारा मंगल गौत्र, आठवें यज्ञ में जैमिन ऋषि ने जिंदल गौत्र, तो नवें यज्ञ में ताण्ड्य ऋषि द्वारा तिंगल गौत्र प्रदान किया। इसी प्रकार से दसवे यज्ञ में और्य ऋषि द्वारा ऐरन, ग्यारहवे यज्ञ में धौम्य ऋषि द्वारा धारण गौत्र प्रदान किया तो बारहवे यज्ञ में मुद्गल ऋषि ने मन्दल गौत्र और तेरहवें यज्ञ में वशिष्ठ ऋषि ने बिंदल गौत्र प्रदान किया। 

इसी प्रकार चौदहवें यज्ञ में मैत्रेय ऋषि ने मित्तल और पन्द्रहवे यज्ञ में कश्यप ऋषि ने कुच्छल गौत्र प्रदान किया।  सोलहवे और सत्रहवें यज्ञ में मधुकुल और तायल गौत्र धारण करवाए गए। इस प्रकार से सत्रह यज्ञ पूर्ण हो चुके थे।  यज्ञादि में उस समय पशु बलि दी जाती थी, इस अठारहवे यज्ञ में बलि के लिए लाये गए घोड़े को बहुत ही बैचेन और डरा हुआ देख महाराज श्री अग्रसेन जी के मन में विचार आया कि ऐसे यज्ञ से क्या फायदा जो पशुओं के रक्त से सना हुआ हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के न चाहने पर भी पशु बलि पर रोक लगा दी। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोककर कहा कि भविष्य में मेरे राज्य में प्राणीमात्र की रक्षा सभी लोग करेंगे, कोई भी व्यक्ति यज्ञ में  पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा और न ही मांस खायेगा। इसके साथ ही उन्होंने अहिंसा धर्म भी अपना लिया। इधर अंतिम यज्ञ में यज्ञाचार्यों द्वारा बताया गया कि पशुबलि नहीं देने से गौत्र अधूरा रह जायेगा तब भी महाराज अग्रसेन जी बलि के लिए राजी नहीं हुवे इस कारण अठारहवे यज्ञ में नगेंद्र ऋषि द्वारा अभिमंत्रित नांगल गौत्र को पशुबलि नहीं देने कारण आधा माना जाता है। इस प्रकार से अग्रवाल समाज में अठारह के बजाय साढ़े सत्रह गौत्र ही प्रचलन में हैं। हरेक गौत्र अलग अलग होने के बाद भी सब एक अंग बने रहे, इसी कारण एकता में बंधकर अग्रवाल समाज सर्वांगीण विकास कर सका।    

महाराज श्री अग्रसेन जी के राज्य के वैभव से अन्य राजा काफी ईर्ष्या करते थे और वे बार बार अग्रोहा पर आक्रमण भी करते रहते थे किन्तु उनकी सदैव पराजय ही होती थी।  बार बार आक्रमण के कारण महाराज श्री अग्रसेन जी के राजकाज और प्रजा की भलाई वाले कार्यों में बाधा उत्पन्न होती थी और उनकी प्रजा भी भयभीत और त्रस्त हो गई थी, इसके अलावा एक बार अग्रोहा में भीषण अग्निकांड हो गया था जिस पर काबू नहीं पाया जा सका था। अग्निकांड में हजारो लोग बेघरबार हो गए, सबकुछ जल कर खाक हो गया और विवश होकर उन्हें वहां से पलायन करना पड़ा किन्तु उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोड़ी। वे आज भी महाराज अग्रसेन जी के द्वारा निर्देशित मार्ग का ही अनुसरण कर रहे हैं। महाराज श्री अग्रसेन जी  ने 108 वर्षों तक राज किया और फिर अपनी कुलदेवी महालक्ष्मी जी के निर्देश पर राजकाज का दायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु को सुपुर्द करके वानप्रस्थ आश्रम अपना कर वन की ओर प्रस्थान कर गए।  

महाराज अग्रसेन जी समाजवाद के प्रवर्तक, युग पुरुष, न्यायप्रिय, महादानी और राम राज्य के समर्थक थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई महान कार्य किये और एक कुशल राज्य की स्थापना की। महाराज श्री अग्रसेन जी को न्यायप्रियता, दयालुता और प्रजा के हित में किये गए कार्यो के कारण इतिहास के पन्नों में भगवान तुल्य स्थान प्राप्त है और महाराज श्री अग्रसेन जी उन महान विभूतियों में से एक रहे हैं जो सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के कार्यों द्वारा युगों युगों तक अमर रहेंगे। महाराज श्री अग्रसेन जी को शत शत नमन, बारम्बार प्रणाम।       

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