रक्षा बंधन
प्रतिवर्ष पवित्र श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला महत्वपूर्ण पावन पर्व है रक्षाबंधन, जोकि भाई बहन के असीम प्रेम एवं भावनात्मक संबंधों का प्रतीक पर्व है। इस दिन बहनें अपने अपने भाइयों की कलाई पर पवित्र रेशमी धागा बांधकर भाइयों के दीर्घायु जीवन एवं सुरक्षा की कामना करती हैं और बहनों के इस स्नेह बंधन में बंधकर भाई अपनी बहन की रक्षा के लिए कृत संकल्पित होता है। रक्षा सूत्र के रूप में बांधा जाने वाला रेशमी लाल पीला धागा या कलावा समय के साथ साथ उत्सवप्रिया माता बहनों द्वारा कब रंग बिरंगी राखी में परिवर्तित हो गया इसका कोई प्रमाण नहीं है। बहनों द्वारा अपने भाइयों को बंधा गया यह रक्षा सूत्र रक्षा का बंधन नहीं बल्कि रक्षा का कवच है, जिसे बांधकर बहनें अपने भाई की रक्षा की चिंता से मुक्त होकर अपने भाई को विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला करने के लिए अधिक सक्षम बनाती हैं। रक्षा बंधन के पर्व को मनाने को लेकर कई सारी मान्यताऐं प्रचलित हैं।
रक्षा प्रदान करने वाला यह बंधन सामान्यतः बहनें अपने भाई की कलाई पर बांधती हैं। कई जगहों पर इस दिन प्रातः सबसे पहले श्रवण कुमार की पूजा होती है, जिसमे लाल गुलाबी रंग से श्रवण कुमार की कावड़ सहित आकृति बनाई जाती है और उसके बाद मीठे पदार्थ या हलवे का भोग लगाकर राखी अर्पित करने के बाद ही अन्य कार्य प्रारम्भ होता है। बहनों द्वारा अपने भाई को रक्षा सूत्र बांधने के साथ ही साथ प्रकृति की रक्षा हेतु तुलसी एवं नीम के पेड़ को भी रक्षा सूत्र बांधे जाने की परम्परा कहीं कहीं चल रही है, जिसे वृक्ष रक्षाबंधन कहा जाता है। इसके अलावा किसी शुभ कार्य या निर्णायक मोर्चे पर जाते समय पत्नी द्वारा पति को तथा गुरुकुल में शिष्यों द्वारा अपने गुरुजन को भी रक्षा सूत्र बांधने के परंपरा का निर्वाह आज भी कई स्थानों पर देखने को मिल जाता है। शास्त्रों एवं पुराणों में श्रावणी पूर्णिमा को पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वाद कर्म भी प्रचलन में है, किन्तु इसका प्रचलन आजकल कम होता जा रहा है। सनातन धर्म में शास्त्रोक्त मान्यतानुसार श्रावणी पूर्णिमा को ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को रक्षासूत्र बांधने की परम्परा रही है,जो आज भी कहीं कहीं देखने को मिल जाती है। रक्षासूत्र बांधने के बाद यजमान ब्राह्मण को यथाशक्ति दक्षिणा आदि प्रदान कर सम्मानित करते हैं।
रक्षा बंधन का पर्व मनाने का रीति रिवाज और परम्परा भी विभिन्न विभिन्न जगहों पर भिन्न भिन्न तरीके से मनाये की रही है। ब्राह्मण वर्ग में इस दिन श्रावणी कर्म की परम्परा है उस दिन सुबह सभी लोग योग्य आचार्य के सानिध्य में किसी नदी या सरोवर के किनारे हेमाद्री स्नान, पूजन, तर्पण आदि करके यज्ञोपवीत बदलते हैं, उसके बाद ही अपने अन्य कार्य करते हैं। हमारे धर्म ग्रंथो में रक्षा बंधन को पुण्य प्रदायक, पापनाशक और विष तारक भी कहा जाता है, जिससे कि ख़राब कर्मों का नाश होता है। उसी प्रकार से जैन धर्म में जैन मंदिरों में पुजारी द्वारा सभी भक्तों को पवित्र धागा प्रदान किया जाता है। सिख धर्म में भाई बहनों द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व को हर्षोल्लास के साथ राखरी त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। दक्षिण भारत में इस त्यौहार को अबित्तम कहा जाता है और इस दिन मंत्रोच्चार के साथ यज्ञोपवीत को बदला जाता है।
उत्तर भारत में इसे कजरी पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है और इस दिन माता भगवती की पूजन करके उनसे अच्छी फसल की कामना की जाती है और इस दिन खेत में गेहूँ और अन्य अनाज बोया जाता है। गुजरात में बहनें अपने भाइयों को राखी तो बांधती ही है साथ ही वहां इस दिन पवित्रोपन्ना नामक पूजा की जाती है जिसमें रुई को पंचगव्य में भिगोकर शिवलिंग के चारों ओर बांध देते हैं। समुद्री किनारों वाले क्षेत्रों में इस दिन वर्षा के देवता इंद्र और वरुण देव की पूजा करने की परंपरा है। श्रावण मास की पूर्णिमा के इस दिन वरुण देव को नारियल प्रदान किये जाते हैं। समुद्र को नारियल अर्पित कर समुद्र देव से हर प्रकार से सुरक्षा की प्रार्थना की जाती है, इसलिए इसे नारियल पूर्णिमा भी कहा जाता है। मछुआरे मछली पकड़ने की शुरुआत भी इसी दिन से करते हैं। भारत के अलावा अन्य कई देशो में भी रक्षा बंधन के इस पावन त्यौहार को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
राखी के इस त्यौहार का आध्यात्मिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व भी है। इतिहास में भी राजा पुरु और सिकंदर का प्रसंग काफी चर्चित रहा, जिसमें सिकंदर की पत्नी ने सिकंदर के प्राणो की रक्षा के लिए राजा पुरु को राखी प्रेषित की थी और राजा पुरु ने भी उस राखी का सम्मान किया। इसी प्रकार से रानी कुर्मावती का प्रसंग भी रक्षाबंधन के इसी त्यौहार के नाम पर दर्ज है। पुराणों के अनुसार असुरों के बलि ने देवताओं पर आक्रमण किया और देवताओं के राजा इंद्र को काफी क्षति पहुंची तब देवराज इंद्र की पत्नी शची ने भगवान विष्णु के पास जाकर अपनी व्यथा कही तो भगवान विष्णु ने उन्हें एक धागा प्रदान कर कहा कि इसे जाकर अपने पति की कलाई पर बांध दे। देवराज इंद्र को जब उनकी पत्नी शची द्वारा यह धागा बांधा गया तब देवराज इंद्र के हाथों राजा बलि की पराजय हुई और उन्होंने अमरावती पर पुनः अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। इस प्रकार युद्ध में जाने से पूर्व पत्नी द्वारा अपने पति को रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा प्रारम्भ हुई।
राजा बलि से ही सम्बद्ध एक और अन्य कथा प्रचलित है कि जब वामन अवतार में भगवान विष्णु जी वामन रूप में राजा बलि के पास भिक्षा लेने पहुंचे और तीन पग भूमि मांगी। राजा बलि द्वारा दान का संकल्प किये जाने पर जब आकाश, धरती, पाताल को तीन पग में नाप कर राजा बलि को रसातल में पहुंचा दिया, तब राजा बलि ने अपनी भक्ति के बल पर भगवान विष्णु जी से हर समय अपने सामने रहने का वचन ले लिया, इस पर माता लक्ष्मी चिंतित हो गई। नारद जी की सलाह पर माता लक्ष्मी एक ब्राह्मण महिला के रूप में राजा बलि के महल में आकर रहने लगी और उसके बाद उन्होंने राजा बलि की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध कर उन्हें अपना भाई बनाया और बदले में कुछ देने को कहा। राजा बलि को यह नहीं मालूम था कि स्वयं लक्ष्मी जी उनसे कुछ मांग रही है जब राजा बलि ने कहा कि जो चाहो मांगो तो माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को लेकर वैकुण्ठ जाने की इच्छा व्यक्त की और भगवान विष्णु जी को साथ लेकर वैकुण्ठ आ गई, कहा जाता है कि जिस दिन रक्षा सूत्र बांधा था उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा ही थी।
रक्षा सूत्र से सम्बंधित एक अन्य पौराणिक कथा है कि द्वापर युग में शिशुपाल वध के समय भगवान श्री कृष्ण की अंगुली में गहरी चोट लग गई थी और रक्त बहने लगा था तब द्रोपदी ने अपनी साड़ी को फाड़कर भगवान श्रीकृष्ण जी की अँगुलि में बांध दिया था ताकि रक्त बहना रुक जाये। द्रोपदी के इस कार्य से भगवान श्री कृष्ण जी को काफी प्रसन्नता हुई और उन्होंने द्रोपदी के साथ भाई बहन का रिश्ता निभाया और वादा किया कि समय आने पर वे उसकी मदद अवश्य करेंगे। कई वर्षो बाद जब कौरवों की सभा में कौरवों के राजकुमार दुःशासन ने द्रोपदी का चीरहरण करना चाहा तब भगवान श्रीकृष्ण जी ने द्रोपदी की रक्षा की और उनकी लाज बचाई थी, ऐसा कहा जाता है कि उस दिन भी श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि ही थी। महाभारत में भी पांडवों और उनकी सेना की रक्षा के लिए भगवान श्री कृष्ण जी ने महाराज युद्धिष्ठिर को रक्षाबंधन का त्यौहार मनाने की सलाह दी थी। यह भी मान्यता है कि प्रभु श्री राम ने सीताजी को छुड़ाने के लिए यात्रा इसी दिन से प्रारम्भ की थी। इसी प्रकार से इस रक्षा बंधन के पर्व से सम्बंधित और भी कई पौराणिक कथाएँ जिनमे संतोषी माता की कथा के साथ साथ यमराज और यमुनाजी की भी कथा में भी भाई बहन के असीम प्रेम और समर्पण का उल्लेख मिलता है। रक्षा सूत्र बांधते समय बोले जाने वाला मन्त्र येन बद्दो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल।। अर्थात जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, वही सूत्र से मैं तुझे बांधता हूँ। हे रक्षे। तुम अडिग रहना (तुम अपने संकल्प से कभी भी विचलित न होन।)
रक्षा बंधन के इस पावन पर्व के अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं।
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