अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे

सत्रहवीं शताब्दी में छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में मराठा साम्राज्य के पुरंदर किले के सरदार थे अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे (Murarbaji Deshpande)। दिलेरखान के साथ हुवे युद्ध प्रसंग में मुरारबाजी देशपाण्डे को सदैव याद किया जायेगा। अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है क्योंकि हमारे इतिहास में कई महान योद्धाओं को लुप्त कर दिया गया है, जब शिक्षा के समय इतिहास में उनके बारे में कुछ पढ़ाया ही नहीं जायेगा तो नव पीढ़ी को कैसे जानकारी होगी। उस समय मराठा साम्राज्य सम्पूर्ण भारत में फैला हुआ था,  मुरारबाजी देशपाण्डे का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिला स्थित महाड तालुका के किंजलोली गांव में हुआ था। प्रारंभ में मुरारबाजी जावली के चन्द्रराव मौर्य के साथ थे। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा जावली को मराठा साम्राज्य में शामिल करने के लिए जावली पर आक्रमण के समय चन्द्रराव मौर्य के साथ मुरारबाजी ने जो पराक्रम दिखाया उससे प्रभावित होकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज्य रक्षा के लिए अपने साथ काम करने का प्रस्ताव रखा जिसे मुरारबाजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, जिससे शिवाजी महाराज के हाथ और अधिक मजबूत हो गए। 
छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनके सबसे अधिक विश्वसनीय और पराक्रमी सैनिक मुरारबाजी देशपाण्डे को पुरंदर के किले की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा था। पश्चिमी घाट में समुद्र से लगभग 4472  फीट की ऊंचाई पर स्थित  पुरंदर का यह किला मराठा साम्राज्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण किला रहा होकर इसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने 1946 में जीता होकर तब से ही उन्होंने मराठा साम्राज्य को सम्पूर्ण देश में फ़ैलाने का सपना देखा था। पुरंदर का किला दो पर्वतों की चोटियों पर बना हुआ था, पहली चोटी पर वज्रगढ़ का किला और दूसरी छोटी पर पुरंदर का किला। यह किला दो भागों मांची और बाले में बंटा हुआ था, किले में प्रवेश द्वार के ऊपर जाते ही मांची और किले के ऊपर पहाड़ चढ़कर जाने पर बाले वाले भाग का प्रवेश द्वार आता है, जहाँ जाने का यही एकमात्र रास्ता है। पुरंदर किले के सामने वज्रगढ़ है, दुश्मन को पुरंदर पर आक्रमण करने के पहले वज्रगढ़ का सामना करना होता था। 

मई, 1665 में हुवे युद्ध ने मुरारबाजी देशपाण्डे को इतिहास में अमर कर दिया था। मुग़ल सम्राट औरंगजेब द्वारा भेजा गया मिर्जा राजे जयसिंह मराठा साम्राज्य पर आक्रमण करने आया तब दिलेरखान को मुख्य सेनापति बनाकर तीस हजार सैनिको की विशाल फ़ौज के साथ युद्ध के लिए भेजा। इस फ़ौज के साथ तोपखाना भी था।छत्रपति शिवाजी महाराज उस समय दक्षिण के विजय अभियान पर निकल गए थे। दिलेरखान ने पुरंदर किले को चारो ओर से घेर तो लिया किन्तु उस किले के अंदर प्रवेश कैसे करें, यह नहीं समझ पाया। पुरंदर के किले की मजबूती को देखकर दिलेरखान को बड़ा आश्चर्य हुआ और जब पता किया तो जानकारी मिली कि पुरंदर के किले को जीतने के लिए वज्रगढ़ को जीतना होगा।  वज्रगढ़ के किले की सुरक्षा में लगे सैनिकों को मावल कहा जाता था वहाँ तीन सौ मावल मौजूद थे। पुरंदर के किले की सुरक्षा में तैनात मुरारबाजी देशपाण्डे ने मराठा साम्राज्य के लिए कई लड़ाइयाँ लड़ी थी और  छत्रपति शिवाजी महाराज का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया था किन्तु इतिहास  में पुरंदर युद्ध का  अलग ही महत्त्व है।  

मुग़ल सेना ने किले को सामने की तरफ से घेरा तो राजा जयसिंह के बेटे कीरतसिंह ने किले की पिछली ओर से घेराबंदी की। मुरारबाजी देशपाण्डे दो पाटों की बीच फंस गए थे उनको पता था कि यदि मुग़ल सैनिकों द्वारा किले के एक भी माची या बुरुज को ढ़हा दिया तो किले की रक्षा कर पाना कठिन हो जायेगा, उनके पास सात सौ सैनिकों की टुकड़ी थी जो पुरंदर किले की सुरक्षा में तैनात थी। मुग़ल सैनिक वज्रगढ़ पर जाकर तोपों की सहायता से पुरंदर किले पर हमला करना चाहते थे और वे इस प्रयास में लग गए।  मराठा सैनिको ने सामना कर उन्हें खदेड़ा भी किन्तु वे अपनी तोपें मोर्चे की ओर लगातार बढ़ाते रहे। तब सभी मराठा सैनिक इकट्ठे हुवे और वज्रगढ़ जाकर तोपों को निष्क्रिय करके कई मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार पुरंदर किले में लौट आये। 

मुगलों ने पुरंदर के किले को जीतने की लगभग तैयारी कर ही ली थी और किसी भी तरह से बाले किला हासिल करना चाहते थे। मुग़ल सेना की संख्या अधिक होने से भारी पड़ रही थी और मराठा सैनिक इसलिए भी कुछ असहज थे कि उनका राशन पानी और गोला बारूद धीरे धीरे समाप्ति की कगार पर था। दिलेरखान ने पांच हजार मुग़ल सैनिकों की टुकड़ी को अंतिम और निर्णायक हमला करने का आदेश दिया। इधर मुरारबाजी ने भी अंतिम और निर्णायक युद्ध की तैयारी पूरी कर ली। पांच हजार सैनिकों का सामना करना मराठा सैनिकों के लिए आसान नहीं था किन्तु मराठा सेना अपने सिर पर कफ़न बांध कर युद्ध के लिए पहुँच चुकी थी। मुरारबाजी ने एक लक्ष्य बना रखा था कि किसी भी प्रकार दिलेरखान को मौत के घाट उतारा जाय। 

मुरारबाजी ने आत्मआहुति का मार्ग अपनाते हुवे किले का मुख्य द्वार खोल दिया और बचे हुवे सात सौ सैनिक हाथों में तलवार लिए मुग़ल सेना पर टूट पड़े। पुरंदर किले पर लड़े गए इस युद्ध में दोनों ओर से वार प्रतिवार हो रहे थे, भयानक मारकाट मची हुई थी। मुरारबाजी भीषण युद्ध करते हुवे मुग़ल सेना के बीच तक पहुँच चुके थे उनकी आँखे दिलेरखान को खोज रही थी, जोकि सेना के पिछले भाग में हाथी पर हौदे में बैठा हुआ था। मुरारबाजी ने एक मुग़ल घुड़सवार का वध कर उसका घोडा छीनकर उस घोड़े पर सवार होकर दिलेरखान की ओर बढ़ गए। मुरारबाजी युद्ध करते हुवे दिलेरखान की ओर बद रहे थे तब उनके शौर्य और पराक्रम को देखकर दिलेरखान को बड़ा आश्चर्य हुआ। 

बहुत ही कम संख्या में मराठा सैनिकों ने बड़ी संख्या वाली मुग़ल सेना के साथ बड़ी बहादुरी से सामना किया। इस युद्ध में मराठा सैनिको से अधिक मुग़ल सैनिक मारे गए।  इसी बीच दिलेरखान ने एक तीर छोड़ा जो सीधा मुरारबाजी देशपाण्डे की छाती में लगा इसके बाद भी मुरारबाजी ने आगे बढ़कर दिलेरखान की और अपना भाला फेंका तब दिलेरखान का चलाया हुआ दूसरा तीर मुरारबाजी की गर्दन के पार हो गया और एक महान देशभक्त, वीर और शौर्यशाली मुरारबाजी देशपाण्डे वीरगति को प्राप्त हो गए। मुरारबाजी देशपाण्डे की मृत्यु के बाद भी लगभग दो महीने तक यह युद्ध चलता रहा किन्तु मुग़ल नहीं जीत सके। इस प्रकार से अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे ने जीवित रहते मुगल सेना को किले में घुसने नहीं दिया।  ऐसे वीरों के बल पर ही तो छत्रपति शिवाजी महाराज क्रूर विदेशी मुग़ल शासन की जड़ें हिलाकर हिन्दू पद पादशाही की स्थापना कर सके। अमर बलिदानी मुरारबाजी देशपाण्डे को शत शत नमन।          


 

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