महर्षि वाल्मीकि जी

आदिकवि एवं रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का जन्म दिवस आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि को माना जाता है। धर्म ग्रंथों एवं धार्मिक मान्यतानुसार महर्षि कश्यप जी और माता अदिति के नवम पुत्र प्रचेता के पुत्र महर्षि वाल्मीकि जी थे उनकी माता का नाम चर्षणी था और महर्षि भृगु इनके भाई थे, किन्तु बचपन में उन्हें एक निःसंतान भील स्त्री द्वारा चुरा लिया गया था और उस भील स्त्री ने बड़े ही प्रेमपूर्वक बालक रत्नाकर (वाल्मीकि जी का वास्तविक नाम) का लालन पालन किया। भीलनी के जीवनयापन का मुख्य साधन दस्यु कर्म था और वह लूटपाट आदि करते हुए बालक रत्नाकर का लालन पालन कर रही थी, जिसका प्रभाव  बालक रत्नाकर पर भी पड़ा और लूटपाट, हत्या को बालक रत्नाकर ने अपना कर्म बना लिया। जंगलों में ही निवास करते हुवे उन्होंने अपने जीवन का काफी समय बिताया और बड़े होकर एक कुख्यात डाकू रत्नाकर बने। युवावस्था में उनका विवाह भील समुदाय की ही एक कन्या के साथ संपन्न हुआ। विवाह उपरांत कई संतानों के पिता रत्नाकर ने संतानों के भरण पोषण के लिए पापकर्म को ही अपना जीवन मान लिया था। 
एक बार उन्होंने वन में से गुजर रहे नारद जी और साधुओं की मंडली को रोक कर उनके पास जो भी हो देने अन्यथा उनकी हत्या कर देने की धमकी दे दी। साधुओं के पूछने पर कि यह कर्म क्यों करते हो तो उन्होंने कहा कि यह कार्य वे अपनी पत्नी और बच्चों के लिए करते हैं। तब नारद जी बोले कि तुम जो भी पापकर्म कर  रहे हो उसका दंड केवल तुम्हे ही भुगतना है, विश्वास नहीं हो तो अपने परिवारजन से पूछ आओ कि क्या वे तुम्हारे पापकर्म के भागीदार बनेंगे। नारदजी की बात सुनकर डाकू रत्नाकर सोच में डूब गए कि यदि परिवारजन से पूछने जाते हैं तो ये यहाँ से भाग जायेंगे, तब रत्नाकर की शंका को दूर करने के लिए नारद जी बोले कि हम नहीं भागेंगे फिर भी यदि विश्वास न हो तो हमें पेड़ से बांध कर चले जाओ और परिवारजन से पूछ आओ यदि वे तुम्हारे पापकर्म में भागीदार होने की सहमति देते है तो हमारे पास जो भी है हम दे देंगे।     

डाकू रत्नाकर सभी को पेड़ से बांध कर अपने घर जाकर परिवारजन से पूछा  कि उसके  द्वारा किये गए पापकर्म में वे भागीदार है या नहीं। पत्नी और बच्चों ने रत्नाकर डाकू को उन पापकर्मो में सहभागी होने की बात से स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि परिवार के भरण पोषण की जवाबदारी आपकी है, अब आप भरण पोषण किस तरह के कर्म से कर हो उसके जवाबदार आप स्वयं ही है उससे हम परिवारजन को कोई मतलब नहीं है। पत्नी और बच्चों की बात को सुनकर रत्नाकर की आँखे खुल गई और अपने द्वारा किये गए पापकर्मों के लिए काफी पछतावा भी हुआ। डाकू रत्नाकर का ह्रदय इस घटना के बाद दुःख और आघात के कारण परिवर्तित हो गया। वापस आकर नारदजी और साधु मण्डली को मुक्त कर दिया । वे साधु मण्डली से क्षमा मांगकर वापस लौटने लगे तब नारदजी ने कहा कि यदि पापों के कर्मों से मुक्ति चाहते हो तो तमसा नदी के तट पर जाकर राम राम नाम का जप करो किन्तु जीवन भर मारकाट में लिप्त डाकू रत्नाकर राम राम के नाम को भूल राम राम के स्थान पर मरा मरा का जप करते हुवे तपस्या में लीन हो गए।  

कई वर्षों की कठिन तपस्या करते समय दीमकों ने इनके ऊपर बाम्बी बना ली थी और जब तपस्या पूर्ण करके वे दीमकों की बाम्बी जिसे वाल्मीकि भी कहते हैं, तोड़कर बाहर निकले तो इन्हें वाल्मीकि कहा जाने लगा। इसी तपस्या के फलस्वरूप वे वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्द हुए और कई वर्षों की कठिन तपस्या के बाद उन्हें महर्षि पद भी प्राप्त हुआ तथा परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा और आशीर्वाद प्राप्त कर महर्षि वाल्मीकि द्वारा भगवान श्री राम के जीवनचरित्र पर आधारित महाकाव्य रामायण की संस्कृत भाषा में रचना की थी। महर्षि वाल्मीकि वैदिक काल के महान ऋषि थे जिनके द्वारा रचित महाकाव्य रामायण जगत का पहला काव्य था। नदी किनारे तपस्या के समय वाल्मीकि जी ने देखा कि एक सारस पक्षी का जोड़ा प्रेमालाप में मग्न था तभी किसी शिकारी ने नर पक्षी पर बाण चलाकर उसकी हत्या कर दी। इस दुष्कृत्य को देखकर महर्षि वाल्मीकि जी के मुख से अनायास ही एक श्लोक की रचना हो गई, यह श्लोक विश्व का प्रथम श्लोक था।     

महर्षि वाल्मीकि जी द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण में चौबीस हजार श्लोक है। महर्षि वाल्मीकि जी रामायण काल में रहे होकर उनका प्रभु श्री राम से भेंट का भी उल्लेख मिलता है साथ ही प्रभु श्री राम द्वारा माता सीता को त्यागने के बाद वाल्मीकि जी ने ही उन्हें अपने आश्रम में स्थान देकर प्रभु श्री राम और माता सीता के दोनों तेजस्वी पुत्रों लव और कुश को विद्या भी प्रदान की थी। महर्षि वाल्मीकि जी खगोल विद्या और ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड विद्वान् थे।  यह भी मान्यता है कि त्रेता युग के महर्षि वाल्मीकि ने ही कलियुग में गोस्वामी तुलसीदास जी के रूप में जन्म लेकर रामचरित मानस की रचना की। 

महर्षि वाल्मीकि जी का जीवनचरित्र दृढ़ इच्छा शक्ति और अटल निश्चय का सुन्दर मिश्रण है लूटपाट करने वाले एक डाकू से महाकाव्य रामायण की रचना करने वाले परम ज्ञानी तपस्वी महर्षि वाल्मीकि बनने तक का सफर प्रेरणादायक है, जोकि मानव को अपने बुरे कर्मों को त्याग कर सत्कर्म और भक्तिभाव की राह पर चलने की प्रेरणा प्रदान करता है। जीवन में किये गए सत्कर्म और पापकर्म का फल प्राणी को स्वयं ही भुगतना पड़ते हैं जन्म, लालन पालन और अंत यह मनुष्य के हाथों में नहीं होता है। ज्ञानदर्शन हो जाने पर पापकर्म को त्याग कर धर्म के मार्ग पर चलने से जब डाकू रत्नाकर भी महर्षि वाल्मीकि बन सकते हैं तो एक आम इंसान भी दुष्कर्म का त्याग करके एक अच्छा इंसान बन सकता है। पश्चाताप की राह कठिन तो होती है किन्तु एक बार पाप नष्ट हो जाने पर जीवात्मा पर परमात्मा की विशेष कृपा होती है। महर्षि वाल्मीकि जी के प्रकटोत्सव के पावन अवसर पर उन्हें कोटि कोटि नमन। जय श्री राम।       

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