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Showing posts from 2022

महाभारत कालीन स्थानों का वर्तमान में अस्तित्व

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सनातन धर्म के बारे में कई लोग आज भी यह प्रश्न अथवा संदेह करते अक्सर मिल जाया करते हैं कि रामायण और महाभारत में वर्णित कथानक सत्य है अथवा काल्पनिक। इस सम्बन्ध में कई चर्चाएं, बहस आदि भी हो चुकी है, काफी प्रामाणिक स्थितियां स्पष्ट हो जाने के बाद भी कुछ लोग आज भी उस समय और घटनाओं को नकारते हुवे उसे मात्र किस्से और कहानी कहने में नहीं चूकते हैं। हजारो वर्षो का समय व्यतीत हो जाने के बाद आज भी हमें कई प्रमाण, अवशेष मिल ही जाते हैं जिनसे यह एहसास हो जाता है कि हजारों साल पहले यह सब कुछ घटित हुआ था, यह पूर्णतः वास्तविक रहा है इसमें कुछ भी काल्पनिक नहीं है। इस लेख में हम महाभारतकालीन कुछ ऐसे स्थानों के विषय में विचार करेंगे जो आज भी विद्यमान हैं और महाभारतकालीन स्थितियों की गवाही देकर संदेहों को दूर कर उस समस्त घटनाक्रम को प्रामाणिक कर रहे हैं। महाभारतकाल में कई बड़े राज्यों का उल्लेख मिलता है,  जिनका उल्लेख आगे किया जा रहा है।  

गणितज्ञ श्री राधानाथ जी सिकदर

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विदेशी आक्रामकों के शासनकाल के दौरान हमारे देश की कई महान विभूतियां गुमनामी में ही रही होकर उन्हें जो मान, सम्मान और पहचान मिलना थी उससे वे वंचित हो गए और श्रेय किसी और को मिल गया। तात्कालिक इतिहासकारों ने जिस स्वरुप में इतिहास में तथ्य विलोपित कर अन्य महिमामण्डन कर दिए गए, उसी स्वरुप में हमें आज भी पढ़ाया और बताया जा रहा है। आज आवशयकता है कि तत्समय के इतिहास जिसमें सिर्फ एक तरफ़ा जानकारी उपलब्ध है, उससे बाहर निकल कर वास्तविकता को जानने और समझने की तथा आगे आने वाली पीढ़ी को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने की। माउन्ट एवरेस्ट का मूल संस्कृत नाम सगरमाथा बताया जाता है जोकि नेपाल में आज भी प्रचलित है।  तिब्बती भाषा में इसे चोमोलुंगमा अर्थात विश्व की माँ देवी कहा जाता है।  फिर इसे पीक - 15 के नाम से जाना जाने लगा। फिर भारत में आये ब्रिटिश शासन के प्रथम सर्वेयर सर जार्ज एवरेस्ट कालांतर में माउन्ट एवरेस्ट का नाम सर जार्ज एवरेस्ट के नाम पर रखा गया, यह ही हमें इतिहास में बताया जाता है किन्तु सर जार्ज एवरेस्ट का किसी भी प्रकार का कोई उल्लेखनीय योगदान माउन्ट एवरेस्ट के सम्बन्ध में इतिहास में न...

इनसे कभी विवाद नहीं करना चाहिए

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कई लोगों की आदत होती है कि वे छोटी छोटी सी बात पर कहीं भी, किसी के साथ भी और किसी भी परिस्थिति में विवाद कर ही लेते हैं, हालांकि वे ऐसा जानबूझकर ना करते हों किन्तु उनका स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि ऐसी स्थिति निर्मित हो ही जाती है, जबकि कुछ लोग इस प्रकार के होते हैं जिनसे किसी भी स्थिति में विवाद नहीं करना चहिये या विवाद से यथासंभव बचना चाहिए। विवाद से बचने वालों के विषय में मनु स्मृति में उल्लेख है कि  ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः।  बालवृद्धातुरैर्वैधैर्ज्ञातिसम्बन्धिबांन्धवैः।।  मातापितृभ्यां यामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।  दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्।। अर्थात मनु स्मृति अनुसार उक्त 15 लोगों से कभी भी विवाद नहीं करना चाहिए, मनु स्नृति में बताये अनुसार इन 15 लोगों में 1. यज्ञ करने वाले, 2. पुरोहित, 3. आचार्य, 4. अतिथि, 5. माता, 6. पिता, 7. निकटस्थ संबंधी अर्थात माता पिता के भाई बहन इत्यादि, 8. भाई,  9. बहन, 10. पुत्र, 11. पुत्री, 12. पत्नी, 13. पुत्रवधु, 14. दामाद तथा 15. गृह सेवकों अर्थात नौकरों से कभी भी वाद विवाद नहीं करना चाहिए।...

नारी धर्म की शिक्षा

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भारतवर्ष में प्रत्येक माता पिता अपनी पुत्री को विवाहोपरांत इस भावना के साथ अपने घर से विदा करते रहे हैं कि  उसका जीवन और भविष्य सुखमय एवं समृद्धिशाली बने तथा ससुराल में उसे सुयश की प्राप्ति हो। उस समय उसे  दी गई शिक्षा अत्यंत ही मार्मिक और महत्वपूर्ण होती थी, जो आज के समय में भी उतना ही महत्त्व रखती है जितना कि प्राचीन समय में रखती थी। रामचरित मानस शिक्षा की दृष्टी से अनुपम ग्रन्थ है। मानस के प्रत्येक पात्र कुछ न कुछ जीवनोपयोगी शिक्षा अवश्य देते हैं। रामचरित मानस में नारी शिक्षा सम्बन्धी सूत्र प्रारम्भ से अंत तक विध्यमान हैं। बालकाण्ड के प्रारम्भ में सती शिरोमणि पार्वती जी का चरित्र यह शिक्षा देता है कि पतिप्रेम में नारी की अचल निष्ठां होनी चाहिए। विवाह के पूर्व जब सप्तर्षि पार्वती जी की परीक्षा लेने जाते हैं, तब वे शिव जी के चरित्र में नाना प्रकार के दोष बतलाकर उनसे सकल गुणराशि भगवान विष्णु जी से विवाह करने का आग्रह करते हैं किन्तु पार्वती जी तो मन ही मन महादेव जी के चरणों में स्वयं को समर्पित कर चुकी थी तो गुण दोष के विचार करने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है, उनका शिव ...

क्रान्तिकारी रानी गाईदिन्ल्यू

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झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के ही समान वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए रानी गाईदिन्ल्यू को नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है। रानी गाईदिन्ल्यू भारत की नागा आध्यात्मिक एवं राजनैतिक नेत्री के साथ ही भारत की प्रसिद्द महिला क्रांतिकारियों में से एक रही थी। मणिपुर में तमेंगलोंग जिले के नुंगकाओ गांव में जन्मी रानी गाईदिन्ल्यू ने भारत की स्वतंत्रता के लिए  नागालैण्ड में क्रांतिकारी आंदोलन चलाते हुवे ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया था। नागा जनजाति में जन्मी रानी गाईदिन्ल्यू की शिक्षा भारतीय परम्परा के अनुसार हुई, वे बचपन से ही बड़े स्वतंत्र और स्वाभिमानी स्वभाव की रही। तेरह वर्ष की आयु में ही वे नागा नेता जादोनाग के संपर्क में आई थी, जादोनाग हेराका आंदोलन के माध्यम से मणिपुर में नागा राज स्थापित करने और यहाँ से अंग्रेजों को निकाल कर बाहर करने के प्रयास में लगे हुवे थे। जादोनाग अपने आंदोलन को क्रियात्मक रूप दे पाते उसके पहले ही उन्हें गिरफ्तार करके अंग्रेजो ने उन्हें फांसी दे दी थी।  

बूंदी का तीज महोत्सव

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राजस्थान के बूंदी जिले में रियासत काल से ही तीज उत्सव बड़ी ही धूमधाम से और उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि जिसे कजरी तीज भी कहते है, इस दिन बूंदी में तीज की भव्य सवारी निकाली जाती है। पहले राजघराने की तीज की प्रतिमा की सवारी राजमहलों में ही निकाली जाती थी, राजघराने द्वारा तीज की प्रतिमा नहीं दिए जाने के कारण तीज की दूसरी प्रतिमा निर्मित कराकर आम जनता के दर्शनार्थ सवारी निकालने की परम्परा बनी थी, उसके काफी समय बाद जिला प्रशासन के विशेष अनुरोध और आश्वासन के बाद राजघराने की तीज की भी सवारी निकाली जाने लगी। रियासत काल में इस अवसर पर विभिन्न कार्यक्रमों के साथ मदमस्त हाथियों का युद्ध भी होता था। इस दिन तीज का व्रत रखकर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा का विधान है। कहा जाता है कि 108 जन्म लेने के बाद देवी पार्वती की निस्वार्थ भक्ति से प्रसन्न होकर देवी पार्वती को भगवान शिव ने पत्नी रूप में स्वीकार किया था।  सुहागिन महिलाऐं अपने पति की लम्बी आयु और सुखी वैवहिक जीवन के लिए इस व्रत को करती हैं तथा अविवाहित कन्याएँ मनचाहा वर प्राप्त करने के लिए यह व्रत रख...

काशी पुरी स्वामिनी माता अन्नपूर्णा देवी

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अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राण वल्ल्भे, ज्ञान वैराग्य सिद्धर्थ भिक्षां देहि च पार्वती ।।  अन्नपूर्णा देवी सनातन धर्म में विशेष रूप से पूजनीय हैं, इन्हें माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना जाता है, जिनके द्वारा सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। समस्त जीवों के भरण पोषण की अधिष्ठात्री माता अन्नपूर्णा को सकल जगत की पालनकर्ता माना जाता है, अन्नपूर्णा का शाब्दिक अर्थ है धान्य अर्थात अन्न की अधिष्ठात्री।  सनातन धर्म की मांन्यता है कि प्राणियों को भोजन माँ अन्नपूर्णा की कृपा से ही प्राप्त होता है। सम्पूर्ण विश्व के अधिपति भगवान विश्वनाथ जी की अर्धांगिनी करुणा मूर्ति देवी पार्वती ही अन्नपूर्णा स्वरुप में समस्त जीवों का बिना किसी भेद भाव के भरण पोषण करती है।  जो भी भक्ति भाव के साथ इन वात्सलयमयी माता का आव्हान करता है, माता अन्नपूर्णा उसके यहाँ सूक्ष्म रूप से वास करती है तथा उसे भोग के साथ साथ मोक्ष भी प्रदान करती है।     

वनवासी क्रांतिकारी बुधु भगत

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भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में प्राणो की आहूति देने वाले वीर शहीदों में कुछ नाम तो भारतीय इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हुवे हैं किन्तु कई ऐसे नाम भी हैं जो गुमनामी के गर्त में समा गए हैं, इन गुमनाम शहीदों में कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनका त्याग, जिनकी आहूति उन कई नामों से अधिक मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण रही है जिन्हें इतिहास में जगह मिलती है। इन्हीं में बुधु भगत का नाम प्रसिद्द वनवासी क्रांतिकारी के रूप में जाना जाता है, इनकी लड़ाई अंग्रेजों, जमींदारों तथा साहूकारों द्वारा किये जा रहे अत्याचार और अन्याय के विरूद्ध थी।  कहा जाता है कि बुधु भगत को दैवीय शक्तियां प्राप्त थी और उन शक्तियों के प्रतीकस्वरुप अपने साथ सदैव शस्त्र रखते थे। बुधु भगत का जन्म वर्तमान झारखण्ड राज्य के राँची जिले के सिलांगाई नामक गांव में हुआ था। सामान्यतः सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को ही प्रथम संग्राम माना जाता है किन्तु इसके पहले ही वीर बुधु भगत ने अपने साहस और नेतृत्व क्षमता से सन 1832 में "लरका विद्रोह" के नाम से ऐतिहासिक आंदोलन का सूत्रपात करते हुवे क्रांति का शंखनाद कर दिया था।  

राजा भोज की विद्व्ता का प्रसंग

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धार नगरी के राजा भोज की विद्व्ता के कई किस्से जगजाहिर हैं, और यह किस्से अक्सर कहने सुनने में आ जाया करते हैं। एक बार राजा भोज के दरबार में उनके समक्ष विभिन्न विषयों के चार विशिष्ट विद्वान् उपस्थित हुए। उन सभी ने अपना अपना परिचय दिया। एक विद्वान् बोले - राजन मैं राजनीति का विद्वान् हूँ और राजनीति पर एक लाख श्लोक का एक ग्रन्थ लिखा है। दूसरे विद्वान् बोले - राजन मैं धर्मशास्त्र का विद्वान् हूँ और धर्मशास्त्र पर एक लाख श्लोक से एक ग्रन्थ की रचना की है। तीसरे विद्वान् बोले - राजन मैं आयुर्वेद का ज्ञाता हूँ और मैंने भी एक लाख श्लोक का आयुर्वेद पर एक ग्रन्थ तैयार किया है। अंत में चौथे विद्वान् बोले राजन मैं कामशास्त्र का विद्वान् हूँ और कामशास्त्र पर एक लाख श्लोक से एक ग्रन्थ की रचना की है, और हम चारों विद्वान् आपके सामने अपने अपने ग्रंथों को सुनाना चाहते हैं। राजा भोज उन चारॉ विद्वानों की बातों से काफी प्रभावित हुवे किन्तु उन्होंने सोचा कि ये सभी विस्तार से तो लिख कर लाये ही हैं, पर गागर में सागर भरने की कला भी इन्हें आती है या नहीं अर्थात ग्रन्थ को सारगर्भित कर सकते है या नहीं इस बात की परी...

बूंदी के हाडा वंशीय देशभक्त कुम्भा की देशभक्ति गाथा

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हमारे भारत देश में संभवतः राजस्थान के बूंदी जिले का तारागढ़ किला ही एक ऐसा दुर्ग माना जाता है जोकि अजेय रहा है। बूंदी में लगभग तीन किलोमीटर की परिधि में निर्मित इस दुर्ग की लगभग सात बार अभेद किलाबंदी की गई थी। बूंदी में हाड़ा राजपूत वंश का शासन था। एक बार मेवाड़ के महाराणा लाखा किसी बात पर बूंदी राज्य के हाड़ा राजपूतों से नाराज हो गए और आवेश में उन्होंने प्रण कर लिया कि जब तक वे बूंदी को जीत नहीं लेते अन्न और जल ग्रहण नहीं करेंगे। महाराणा के सरदारों ने महाराणा को बहुत समझाया कि किसी भी राज्य को इतनी शीघ्रता से नहीं जीता जा सकता और जिन हाड़ा राजपूतों के शौर्य के चर्चे हर जगह होते हैं उन हाड़ा राजपूतों की बूंदी को जीतना इतना तो आसान ही नहीं है, किन्तु महाराणा तो प्रण कर चुके थे। ऐसी स्थिति में मेवाड़  सरदारों के समक्ष विकट समस्या आ खड़ी हुई कि न तो बूंदी के हाड़ा राजपूतों को इतनी जल्दी हराया जा सकता है और न ही बूंदी को बगैर जीते महाराणा अपने प्रण से पीछे हटने वाले हैं, तो आखिर क्या किया जाये ?

अक्षय तृतीया (आखा तीज)

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बैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि, जिसे आखा तीज या अक्षय तृतीया कहा जाता है। अक्षय का अर्थ है, जिसका कभी क्षय नहीं हो जो स्थाई रहे। ऐसी मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन किया हुआ कोई भी पुण्य कार्य, दान, पूजन, हवन आदि अक्षय फल प्रदान करता है। किसी भी मांगलिक कार्य को करने के लिए यह दिन अत्यंत ही शुभ माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि इस दिन बगैर मुहूर्त के भी कार्य संपन्न किया जा सकता है, क्योंकि यह एक स्वयंसिद्ध मुहूर्त है। वैवाहिक कार्यक्रम इस दिन इस मान्यता के साथ किये जाते हैं कि पति पत्नी में प्रेम और स्नेह अक्षय रहे, इसी प्रकार इस दिन पितृकार्य भी इस आशय से किये जाते हैं कि पितृगण को अक्षय फल की प्राप्ति हो। समृद्धि के लिए इस दिन स्वर्ण खरीदने की भी परम्परा है। यह भी मान्यता है कि इस दिन मनुष्य अपने या अपने स्वजनों द्वारा किये गए जाने अनजाने अपराधों के बारे में सच्चे मन से क्षमा प्रार्थना भगवान से करे तो भगवान उन अपराधों को क्षमा कर उसे सदगुण प्रदान कर देते हैं। इस दिन अपने दुर्गुणों को सदैव के लिए प्रभु के चरणों में अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान प्राप्त करने की भी परंपरा ...

श्री हनुमान जी महाराज को बाली द्वारा युद्ध की चुनौती का प्रसंग

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किष्किंधा नगरी के राजा वानर श्रेष्ठ ऋक्ष के पुत्र थे बाली और सुग्रीव। बाली और सुग्रीव दोनों को ही हमारे धर्मशास्त्रों में वरदान पुत्र भी माना गया है, जिसमे बाली को ब्रह्मा जी का औरस पुत्र एवं सुग्रीव को सूर्य देव का औरस पुत्र माना गया है। बाली को यह वरदान प्राप्त था कि जो भी उससे युद्ध करने के  लिए उसके सामने आएगा उसकी आधी शक्ति बाली के शरीर में चली जाएगी और बाली सदैव ही अजेय रहेगा। बाली को अपने बल पर बड़ा ही घमंड था और यह घमंड कई बलशाली योद्धाओं जिनमे लंकापति रावण भी सम्मिलित थे, से युद्ध और मुठभेड़ के बाद दिनोदिन बढ़ता ही गया। हालांकि लंकापति रावण के साथ बाली का युद्ध नहीं हुआ था, जबकि लंकापति रावण युद्ध के लिए ही वहां आये थे किन्तु संध्या वंदन में रत बाली ने अपनी साधना में व्यवधान से बचने के लिए लंकापति को अपनी कांख में दबा लेने से ही लंकापति रावण ने युद्ध का विचार त्याग बाली से मित्रता कर ली थी। 

भगवान श्री महावीर स्वामी जी

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जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक एवं 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध लगभग समकालिक ही रहे हैं, जिस समय हिंसा, पशुबलि, जात पात का भेदभाव चरम पर था उसी कालावधि में इनका अवतरण हुआ था और इन दोनों के ही विषय में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि वे या तो चक्रवर्ती राजा बनेंगे या महान सन्यासी। ईसा पूर्व करीव 600 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर (बिहार के मुज्जफरपुर जिले का वर्तमान बसाढ़ नामक गांव को यह स्थान माना जाता है) में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला की तृतीय संतान के रूप में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जन्में बालक का नाम वर्धमान रखा गया था, यही बालक वर्धमान बाद में जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी हुवे। वर्धमान के बड़े भाई का नाम नंदिवर्धन और बहन का नाम सुदर्शना था।  

क्रांतिकारी वीरांगना कनकलता बरुआ

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हम भाग्यशाली हैं जो हमारा जन्म आजाद देश में हुआ बोलने, खेलने, घुमने, फिरने से लेकर कार्य व्यवसाय चुनने करने आदि सभी की आजादी है किन्तु पहले ऐसा नहीं था, तब तो बच्चे के जन्म से ही संघर्ष प्रारम्भ हो जाता था। गुलामी की दीवारों में बचपन, जवानी, बुढ़ापा सब खिलकर मुरझा जाते थे। उस ज़माने में प्रत्येक स्वाभिमानी व्यक्ति के समक्ष एक ही प्रश्न होता था - आजादी। आजादी के दीवाने उन लोगों को किसी उम्र, जाति, लिंग अथवा क्षेत्र के बंधन में नहीं बांधा जा सकता था, हर वर्ग के लोगों ने आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया है किन्तु कुछ जानकारी में रहे तथा कुछ गुमनामी के अंधेरों में खो गए।  केवल 17 वर्ष आयु की बलिदानी कनकलता बरुआ अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से छोटी रही हों किन्तु त्याग और बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं है।

भगवान श्री राम जी के वनवास के समय के विश्राम स्थल

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अयोध्या के महाराजा दशरथ जी के चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जिनमें युवराज श्री रामचंद्र जी के राज्याभिषेक का समय नजदीक था, अयोध्या में उत्सव मनाया जा रहा था। उसी समय मंथरा दासी की राय पर सहमत होकर रानी कैकयी ने महाराजा दशरथ जी से देव दानव संग्राम के समय संकल्पित दो वरदान चाहे, जिनमे से एक रामचंद्र जी को 14 वर्ष का वनवास और दूसरा पुत्र भरत को राजगादी। महाराजा दशरथ हतप्रभ रह गए थे और वे भरत को राजपाट देने के लिए तैयार भी हो गए थे किन्तु प्राणप्रिय रामचंद्र को वनवास भेजने के लिए सहमत नहीं थे किन्तु रानी कैकयी तो हठ किये बैठी थी। श्री रामचंद्र जी को यह जानकारी होने पर उन्होंने रघुकुल रीत और अपने पिताजी के वचनों का मान रखते हुवे सहर्ष ही वनवास जाना स्वीकार कर पिताजी को भी उनके दिए वचन का पालन करने का निवेदन किया। श्री रामचंद्र जी के वनवास जाने की बात सुनकर माता जानकी और अनुज श्री लक्ष्मण जी भी उनके साथ प्रस्थान करने के लिए तत्पर हो गए। प्रभु श्री रामचंद्र जी के 14 वर्ष वनवास के समय उनके मुख्य रूप से 14 विश्राम स्थल रहे जिनके विषय में हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं। 

भक्तिमती शबरी

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भगवान की भक्ति कोई भी कर सकता है, उसमें देश, काल, कुल, गौत्र, आयु, स्त्री-पुरुष आदि का कोई भेद नहीं होता है। प्रेम से जिसने भी प्रभु का नाम लिया प्रभु उनका अपना हो जाता है। भगवान ने स्पष्ट कहा है कि " न में भक्त श्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्वपचः प्रियः " अर्थात किसी ब्राह्मण ने भले ही चारों वेद पढ़ लिए हों किन्तु यदि वह भक्त नहीं है तो मेरा प्यारा नहीं है और यदि किसी ने चाण्डाल होकर भी कुछ नहीं पढ़ा हो और मेरा भक्त हो तो वह मुझे अति प्रिय होता है।  ऐसी ही प्रभु की परम प्रिय भक्त हो गई है भक्तिमती शबरी। शबर भील जाति के राजा की पुत्री थी शबरी। उस समय बाल विवाह का प्रचलन था, शबरी के विवाह की तैयारियां चल रही थी।  विवाह का दिन जैसे जैसे नजदीक आने लगा सैकड़ो बकरे और भैंसे आदि जानवर बलिदान के लिए इकट्ठे किये जाने लगे। बालिका शबरी ने पूछ ही लिया तो ज्ञात हुआ कि विवाह में बलिदान के लिए व्यवस्था है, सुनकर शबरी का बाल मन आहत हो गया। बालिका शबरी ने सोचा कि यह कैसा विवाह जिसमे इतने प्राणियों का वध हो, इससे तो विवाह नहीं करना ही ठीक है, यह सोच कर शबरी रात्रि में ही उठकर जंगल में चली गई और फिर लौट...

महायोद्धा आल्हा और ऊदल

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भारत देश में उत्तर क्षेत्र में चंदेल राजवंश के बड़े ही प्रतापी शासक हुवे थे राजा परमर्दीदेव, जिनके राज्य में सेना के सेनापति थे दसराज सिंह और सरदार बछराज सिंह। इन दोनों भाइयों को राजा अपने पुत्र की तरह मानते थे। ऐसा माना जाता है कि दसराज सिंह और सरदार बछराज सिंह के पूर्वज बिहार के निवासी वनाफर (वनों में रहने के कारण वनाफर कहलाये) अहीर संप्रदाय से थे तथा माता शारदा इनकी कुलदेवी रही हैं। उसी कालखंड में ग्वालियर क्षेत्र में हैहय शाखा के यदुवंशी अहीर राजा दलपत सिंह का शासन था, जिनकी पुत्री राजकुमारी देवल के शौर्य की चर्चा सम्पूर्ण मध्य भारत में थी। कहते हैं कि एक बार राजकुमारी देवल ने अपनी शमशीर के एक ही वार से एक सिंह को मार गिराया था, जिस घटना को देखकर दसराज सिंह बहुत प्रभावित हुवे और वे राजकुमारी देवल से विवाह का प्रस्ताव लेकर राजा दलपत सिंह के पास पहुंचे। राजा दलपत सिंह ने भी प्रस्ताव स्वीकार कर दोनों का विवाह कर दिया। इन्हीं दसराज सिंह और देवल को माँ शारदा की कृपा से आल्हा और ऊदल के रूप में दो महावीर पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिनके पराक्रम के किस्से आज भी सुनने को मिल जाते हैं।...

क्रान्तिकारी तिलका मांझी

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सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम और मंगल पाण्डे के ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह से भी कई दशक पहले भारत में ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी थी बहादुर आदिवासी जनजाति क्रान्तिकारी तिलका मांझी ने। बिहार के सुल्तानपुर के तिलकपुर नामक गांव में आदिवासी समुदाय के एक संथाल परिवार में तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 को हुआ था। तिलका मांझी का वास्तविक नाम था जबरा पहाड़िया, तिलका मांझी ब्रिटिश सरकार द्वारा दिया गया नाम था, इनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। पहाड़ी भाषा में समुदाय के मुखिया को मांझी कहा जाता है और लाल लाल आँखॉ वाले क्रोधी व्यक्ति को तिलका कहा जाता है, इस प्रकार जबरा पहाड़िया से तिलका मांझी कहलाने लगे। तिलका मांझी ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध एक लम्बी और कभी आत्मसमर्पण नहीं करने वाली लड़ाई लड़ते हुवे स्थानीय साहूकारों, सामन्तों और ब्रिटिश सरकार को नाकों चने चबवा दिए थे, इसीलिए अंग्रेजो ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डकैत तिलका मांझी के नाम से प्रचारित किया हुआ था। 

महत्वपूर्ण प्राचीन स्थापित परम्पराएँ

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सनातन धर्म में स्थापित एवं प्रचलित परम्पराएं जिनका प्राचीन समय से ही अनुसरण हमारे पूर्वज करते चले आ रहे होकर वे सभी परम्पराएं आज किसी न किसी रूप में हमारे समक्ष है, जिनका वर्तमान समय में भी कई लोग पालन कर रहे हैं।  ये सभी परम्पराएं हमें कहीं धर्म से जुडी हुई दिखाई देती है तो कहीं हमारे स्वास्थ्य और जीवन  से जुडी हुई दिखाई पड़ती है तो कभी उनके पीछे कोई ऐसा कारण जान पड़ता है जिससे उन परम्पराओं का निर्वाह करना हमें अत्यंत ही आवश्यक प्रतीत होता है। प्रायः यह भी देखा गया है कि जो लोग इनका निर्वहन करते हैं अथवा इन्हें अपने जीवन में आत्मसात करते हैं वे कई परेशानियों या समस्याओं से बचे रहते हैं और जो इनको नजरअंदाज करते हैं वे कई उलझनों का सामना करते हैं। कुछ ऐसी ही परम्पराओं पर हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं, जिस पर चिंतन और मनन करते हुवे पालन करने की आवश्यकता है ताकि हमें किसी प्रकार की कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़े।  

संस्कारों की कमी ही पतन का कारण

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वर्तमान समय में आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर हम अपने संस्कारों से दूर होते जा रहे हैं।संयुक्त परिवार की व्यवस्था समाप्त होती जा रही है और एकल परिवार बढ़ते जा रहे हैं, रही सही कमी इंटरनेट और मोबाईल ने पूरी कर दी जिसके प्रभाव से घर के चार सदस्य भी एक कमरे में बैठने के बाद भी अपने अपने मोबाइलों में व्यस्त होकर एक दूसरे से बातचीत करना तो दूर एक दूसरे को देख भी नहीं पा रहे हैं। परिवार के बड़े लोग ही जब इस स्थिति में हैं तो वे बच्चों को क्या समझायेंगे। स्कूली शिक्षा भी आज संस्कारों से दूर हो गई है, जिसमे बड़े स्कूल, मिशनरी स्कूल की स्थिति तो और भी अलग है वहाँ तो संस्कारों और नैतिक व्यावहारिक ज्ञान का कोई स्थान ही नहीं है, मात्र किताबी ज्ञान तक ही शिक्षा सीमित हो गई है। थोड़ी बहुत कमी रही थी तो वह फिल्मों और टी वी सीरियलों ने पूरी कर दी होकर बच्चों, युवाओं और महिलाओं की मानसिकता ही बदल दी है।  इन सबसे आज हमारा समाज पतन की गर्त में जा रहा है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। आज समय रहते हम नहीं संभले तो आने वाला समय और भी विकट हो सकता है। 

मातृशक्ति के सोलह श्रृंगार का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व

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  सौभाग्यवान हिन्दू मातृशक्ति के लिए सोलह श्रृंगार का विशेष महत्त्व होता है। विवाह के बाद महिलाएं सोलह श्रृंगार के रूप में इन सभी सौभाग्य चिन्हों को अनिवार्यतः धारण करती हैं। प्रत्येक श्रृंगार का अपना अलग ही महत्त्व होता है।  प्रत्येक महिला यह चाहती है कि वे सजधज कर सुन्दर लगे।  सोलह श्रृंगार उनके रूप को और भी अधिक सौन्दर्यवान बना देता है। समस्त मातृशक्ति द्वारा धारण किये जाने वाले इन सभी सोलह श्रृंगार के अपने अपने धार्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व भी हैं, जिनका वर्णन आगे किया जा रहा है।   

होलाष्टक

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होली का पर्व हमारे धार्मिक पर्वों में से एक पर्व है।  होली के इस पर्व को सामान्य रूप से नौ दिवसीय पर्व के रूप में मनाया जाता है, जोकि फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से प्रारम्भ होकर धुलेंडी तक चलता है और इस सम्पूर्ण कालावधि को ही होलाष्टक के नाम से जाना जाता है। होलाष्टक की कालावधि में शुभ एवं मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार होलाष्टक की कालावधि में कोई भी शुभ अथवा मांगलिक कार्य करने से उनमें विघ्न बाधाऐ  आने की संभावनाएँ अधिक रहती हैं उसी प्रकार से ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बताया गया है कि इस कालावधि में अधिकांश ग्रह उग्र स्वरुप में रहते होने से शुभ कार्यों को निषेधित किया गया है। मान्यता यह भी है कि होलाष्टक की इस कालावधि में अष्टमी तिथि को चन्द्रमा, नवमी तिथि को सूर्य, दशमी तिथि को शनि, एकादशी तिथि को शुक्र, द्वादशी तिथि को गुरु, त्रयोदशी तिथि को बुध, चतुर्दशी को मंगल और पूर्णिमा तिथि को राहु-केतु उग्र रहते हैं, इस कारण इनके विपरीत प्रभाव से बचने के लिए शुभ व मांगलिक कार्य करना वर्जित होता है।    

श्री मुचुकुन्द जी महाराज और कालयवन का प्रसंग

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सूर्यवंश में इक्ष्वाकु कुल को किसी भी प्रकार के परिचय की आवश्यकता ही नहीं है, इसी कुल में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा प्रभु श्रीरामचन्द्र जी का अवतरण हुआ था। इसी वंश में महान प्रतापशाली राजा महाराज मान्धाता भी हुवे थे। महान राजा मान्धाता के पुत्र थे महाराज मुचुकुन्द जी।  इक्ष्वाकु कुल में महाराज मुचुकुन्द जी सम्पूर्ण पृथ्वी के एकछत्र सम्राट थे तथा बल और पराक्रम में इतने प्रतापी थे कि पृथ्वी के राजाओं के अलावा देवराज इंद्र भी इनकी सहायता के लिए आतुर रहते थे और देव दानव संग्राम में उनसे सहायता लेते रहते थे।