इनसे कभी विवाद नहीं करना चाहिए
कई लोगों की आदत होती है कि वे छोटी छोटी सी बात पर कहीं भी, किसी के साथ भी और किसी भी परिस्थिति में विवाद कर ही लेते हैं, हालांकि वे ऐसा जानबूझकर ना करते हों किन्तु उनका स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि ऐसी स्थिति निर्मित हो ही जाती है, जबकि कुछ लोग इस प्रकार के होते हैं जिनसे किसी भी स्थिति में विवाद नहीं करना चहिये या विवाद से यथासंभव बचना चाहिए। विवाद से बचने वालों के विषय में मनु स्मृति में उल्लेख है कि ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः। बालवृद्धातुरैर्वैधैर्ज्ञातिसम्बन्धिबांन्धवैः।। मातापितृभ्यां यामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया। दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्।। अर्थात मनु स्मृति अनुसार उक्त 15 लोगों से कभी भी विवाद नहीं करना चाहिए, मनु स्नृति में बताये अनुसार इन 15 लोगों में 1. यज्ञ करने वाले, 2. पुरोहित, 3. आचार्य, 4. अतिथि, 5. माता, 6. पिता, 7. निकटस्थ संबंधी अर्थात माता पिता के भाई बहन इत्यादि, 8. भाई, 9. बहन, 10. पुत्र, 11. पुत्री, 12. पत्नी, 13. पुत्रवधु, 14. दामाद तथा 15. गृह सेवकों अर्थात नौकरों से कभी भी वाद विवाद नहीं करना चाहिए।
1. यज्ञ करने वाला - यज्ञ करने वाला ब्राह्मण सदैव ही सम्मांन किये जाने योग्य होते हैं, उनसे कभी कोई विवाद नहीं करना चाहिए, यदि आप विवाद करते हैं तो इससे आपकी प्रतिष्ठा ही धूमिल होगी। इसलिए यज्ञ करने वाले ब्राह्मण से वाद विवाद नहीं करने में ही भलाई है।
2. पुरोहित - यज्ञ, पूजन आदि धार्मिक कार्य को संपन्न कराये जाने के लिए जिस योग्य और विद्वान् ब्राह्मण को नियुक्त किया जाता है, वे पुरोहित कहलाते हैं। पुरोहित के माध्यम से ही आपके धार्मिक एवं शुभ कार्य संपन्न होकर उनके पुण्यकर्म यजमान अर्थात यज्ञ पूजन आदि करवाने वाले को प्राप्त होते हैं, इसलिए इनसे भी कभी वाद विवाद नहीं करना चाहिए अन्यथा आपका कार्य व्यवस्थित नहीं हुआ तो आपको उसके दुष्परिणामों को भुगतना पड़ सकता है।
3. आचार्य - प्राचीनकाल में उपनयन संस्कार के पश्चात बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता था, जहाँ पर आचार्यगण उन्हें शिक्षा प्रदान किया करते थे। वर्तमान समय में उन गुरुकुल का स्थान स्कूलॉ ने और आचार्यगणों का स्थान स्कूल के शिक्षकगण ने ले लिया है, शिक्षकगण जिन्हे कि भगवान के समान माना जाता है जो सदैव ही अपने विद्यार्थियों का भला ही सोचते हैं और उन्हें अच्छी शिक्षा प्रदान करते हैं। शिक्षकगण यदि दण्डित भी करे तो सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। इनसे भी वाद विवाद नहीं करना चाहिए अन्यथा इन्होंने यदि बच्चों पर ध्यान देना बंद कर दिया तो उन बच्चों का भविष्य भी संकट में पड़ सकता है।
4. अतिथि - अतिथि को हमारे सनातन धर्म में देवतुल्य माना जाता है। अतिथि का यदि आपके घर आगमन होता है चाहे पूर्व सुचना के हो या भूले भटके आगमन हुआ हो, उन आगंतुक अतिथि का यथासम्भव स्वागत सत्कार करना चाहिए। अतिथि के साथ वाद विवाद करने पर आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को क्षति पहुँच सकती है, इस कारण से अतिथि के साथ कभी भी वाद विवाद नहीं करें।
5. माता - माता अर्थात जननी को भी भगवान का ही रूप माना जाता है, माता अपने शिशु को नौ माह गर्भ में धारण कर उसका पोषण करती है और उसके जन्म के पश्चात् उसका पालन पोषण करने के साथ ही उसे जीवन का प्रथम पाठ भी माता के ही द्वारा पढ़ाया जाता है। भगवान और गुरु के भी ऊपर माता का स्थान है, इस प्रकार माता सदा ही पूजनीय होती है। माता से कभी कोई भूल चूक हो जाये या अस्वस्थता या वृद्धावस्था में उन्हें प्रेम से समझा देना चाहिए किसी प्रकार का कोई विवाद नहीं करना चाहिए।
6. पिता - माता के सामान ही पिता को भी पूजनीय माना जाता है। पिता जन्म से लेकर युवावस्था तक हमारा पालन पोषण करते हैं, हमें संकट से दूर रखने का प्रयास करते हैं। जब भी हम कहीं मुसीबत में उलझते है तब सर्वप्रथम हमें अपने पिता ही याद आते हैं और पिता भी हमें उस मुसीबत से बाहर निकलने के समाधान बताते हैं, अपने अनुभव के आधार पर हमारा मार्गदर्शन करते हैं, इस कारण से पिता से भी कभी वाद विवाद नहीं करना चाहिए। माता पिता और गुरुजन का सदैव ही सम्मान कर उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए।
7. निकटस्थ सम्बन्धी - काका-काकी, ताऊ-ताई, बुआ-फूफाजी, दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-मामी आदि वे सभी लोग जोकि बचपन से ही हम पर स्नेह रखते हैं, प्रेम करते हैं, हमारी कुछ जरूरतें पूरी करते हैं, उनका सदैव सम्मान करना चाहिए। निकटस्थ सगे सम्बन्धियों से कभी वाद विवाद नहीं करना चाहिए, इनसे वाद विवाद करने से हमारी प्रतिष्ठा भी धूमिल हो सकती है और हमें असभ्य भी समझा जा सकता है। कभी विवदित स्थिति बन भी जाती है तो बातचीत के माध्यम से ही सुलझाने का प्रयास करना चाहिए।
8. भाई - हमारे सनातन धर्म में बड़े भाई को पिता के समान और छोटे भाई को पुत्र से समान माना जाता है। बड़ा भाई सदैव ही मार्गदर्शक बन कर उचित मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है और छोटे भाई को उसकी गलतियों के लिए माफ़ किया जाना ही बड़प्पन होता है। विपत्ति आने पर भाई ही भाई की मदद करता है, बड़ा भाई यदि हमारे परिवाररूपी वटवृक्ष का तना है तो छोटा भाई उस वृक्ष की शाखा स्वरुप का होता है, इसलिए भाई छोटा हो या बड़ा उनसे किसी भी प्रकार का वाद विवाद नहीं करना चाहिए।
9. बहन - हमारे सनातन धर्म में बड़ी बहन को माता स्वरुप तथा छोटी बहन को पुत्री स्वरुप माना जाता है। बड़ी बहन अपने छोटे भाई बहनों पर माता के समान ही स्नेह रखती है, संकट के समय सही मार्ग भी बताती है साथ ही विपत्ति के समय उनका साथ भी देती है। छोटी बहन पुत्री के सामान होती है, परिवार में जब भी कोई शुभ प्रसंग आता है उसे छोटी बहन ही खास बनाती है, वह जब घर में रहती है तो घर के माहौल को भी सुखद बनाती है। इसलिए बहनो से भी वाद विवाद नहीं करना चाहिए।
10. पुत्र - हमारे सनातन धर्म अनुसार पुत्र को पिता का ही स्वरुप माना जाता है, यह भी मान्यता है कि पिता या कोई वंशज ही पुत्र के रूप में पुनः जन्म लेता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार पुत्र ही पिता को पुं नामक नरक से मुक्ति दिलाता है, इसलिए उसे पुत्र कहते हैं। पुत्र द्वारा पिंडदान, तर्पण आदि करने पर ही पिता की आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। पुत्र यदि धर्म के मार्ग पर चलने वाला हो तो वृद्धावस्था में माता पिता का सहारा बनता है और पुरे परिवार का मार्गदर्शन करता है। इसलिए पुत्र से भी वाद विवाद नहीं करना चाहिए।
11. पुत्री - हमारे सनातन धर्म में पुत्री को साक्षात् लक्ष्मी स्वरुप माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान जिस पर प्रसन्न होते हैं उन्हें ही पुत्री प्रदान करते हैं। कई बार देखने में आता है कि पुत्र माता पिता की व्रद्धावस्था में सेवा नहीं करता है किन्तु पुत्री सदैव ही अपने माता पिता का साथ निभाती है। पुत्रियों से ही परिवार में होने वाले मंगल कार्यों की रौनक होती है। विवाह के बाद भी पुत्री अपने माता पिता के करीब ही होती है इसलिए पुत्री से भी कभी वाद विवाद नहीं करना चाहिए।
12. पत्नी - हमारे सनातन धर्म अनुसार पत्नी अर्धांगिनी कही जाती है अर्थात पति के शरीर का आधा अंग। किसी भी शुभ कार्य, हवन. पूजन आदि में पत्नी का साथ अनिवार्य होता है, पत्नी के बगैर पूजा अधूरी मानी जाती है। पत्नी कदम कदम पर अपने पति का साथ देती है, उसके सुख दुःख में साथ निभाती है। वृद्धावस्था में चाहे कोई साथ हो या न हो एक पत्नी ही पति का ख्याल रखती है इसलिए पत्नी से भी कभी वाद विवाद नहीं करना चहिये।
13. पुत्रवधू - पुत्र की पत्नी को पुत्रवधू कहा जाता है, भारतीय संस्कृति में पुत्रवधू को पुत्री के समान माना जाता है। पुत्रियों के आभाव में पुत्रवधू ही घर की रौनक होती है। कुल परिवार की मान मर्यादा पुत्रवधू के ही हाथों में होती है। परिवारजन और अतिथियों की सेवा भी पुत्रवधू द्वारा ही की जाती है। पुत्रवधू ही कुटुंब परिवार की वंशवृद्धि में अपना योगदान करती है। पुत्रवधू से यदि कोई त्रुटि हो जावे तो उसे समझाना चाहिए उसके साथ वाद विवाद कभी भी नहीं करना चाहिए।
14. गृह सेवक अर्थात नौकर - नौकर को आपकी और आपके घर परिवार की छोटी से छोटी और परिवार की गोपनीय बातों की भी जानकारी होती है, वाद विवाद करने पर उसने यदि आपकी बातों को सार्वजनिक कर दिया तो उससे आपके परिवार की प्रतिष्ठा भी ख़राब हो सकती है इसलिए गृह सेवकों अर्थात नौकरों से कभी भी वाद विवाद नहीं करना चाहिए।
15. दामाद - पुत्री के पति को दामाद अर्थात जमाई कहा जाता है। हमारे सनातन धर्म में दामाद को भी पुत्र ही माना जाता है। पुत्र के न होने की स्थिति में दामाद ही उससे संबंधित सभी जिम्मेदारी का निर्वाह करता है आपकी पुत्री उसकी पत्नी है इस कारण कोई विवाद पुत्री के दाम्पत्य जीवन में व्यवधान भी उत्पन्न कर सकता है, इस कारण दामाद के साथ भी कभी वाद विवाद नहीं करना चाहिए।
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