भगवान श्री महावीर स्वामी जी
जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक एवं 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध लगभग समकालिक ही रहे हैं, जिस समय हिंसा, पशुबलि, जात पात का भेदभाव चरम पर था उसी कालावधि में इनका अवतरण हुआ था और इन दोनों के ही विषय में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि वे या तो चक्रवर्ती राजा बनेंगे या महान सन्यासी। ईसा पूर्व करीव 600 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर (बिहार के मुज्जफरपुर जिले का वर्तमान बसाढ़ नामक गांव को यह स्थान माना जाता है) में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला की तृतीय संतान के रूप में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जन्में बालक का नाम वर्धमान रखा गया था, यही बालक वर्धमान बाद में जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी हुवे। वर्धमान के बड़े भाई का नाम नंदिवर्धन और बहन का नाम सुदर्शना था।
ऐसा कहा जाता है कि बालक वर्धमान के जन्म के पूर्व एक दिन जब महारानी त्रिशला निंद्रा में थी तब उन्होंने 16 दिव्य एवं मंगलकारी स्वप्न देखे थे, प्रातः जागने पर महारानी त्रिशला ने महाराज सिद्धार्थ से अपने उन स्वप्नों की चर्चा करते हुवे उनके फल जानने की जिज्ञासा प्रकट की। महाराज सिद्धार्थ एक कुशल राजनीतिज्ञ के साथ ही ज्योतिष शास्त्र के भी विद्वान् थे, उन्होंने महारानी से एक एक स्वप्न बताने को कहा, जिसका फल महाराज ने महारानी को इस प्रकार से बताया - प्रथम स्वप्न में एक अति विशाल श्वेत हाथी दिखाई दिया जिसका फल महाराज ने बताया कि उन्हें एक अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। दूसरे स्वप्न में श्वेत वृषभ दिखाई देने का फल बताया कि वह पुत्र जगत का कल्याण करने वाला होगा। तीसरे स्वप्न में श्वेत वर्ण और लाल अयालों वाले सिंह के बारे में बताया कि वह पुत्र सिंह से समान बलवान होगा। चौथे स्वप्न में कमलासन लक्ष्मी जी का अभिषेक करते हुवे दो हाथी देखने के फल के बारे में राजा बोले कि देवलोक से देवगण आकर उस पुत्र का अभिषेक करेंगे।
दो सुगंधित पुष्पमाला के पांचवे स्वप्न का फल बताते हुवे राजा ने कहा कि वह धर्म तीर्थ स्थापित करेगा और जन जन द्वारा पूजित होगा। पूर्ण चन्द्रमा दिखने के छठे स्वप्न के बारे में बताया कि उसके जन्म से तीनों लोक में आनंद होगा। उदित होते सूर्य के सातवें स्वप्न का फल पुत्र के सूर्य सामान तेजस्वी और पापी प्राणियों का उद्धारक होना बताया तो कमलपत्रों से ढंके दो स्वर्ण कलश के आठवें स्वप्न का फल पुत्र को अनेक निधियों का स्वामी होना बताया। कमल सरोवर में क्रीड़ारत दो मछलियों के नवें स्वप्न का फल पुत्र को दुखहर्ता और महाआनंद दाता बताकर कमल वाले जलाशय के दसवे स्वप्न का फल एक हजार आठ शुभ लक्षणों वाला पुत्र होना बताया। समुद्र की उछलती लहरों के ग्यारहवे स्वप्न का फल त्रिकालदर्शी पुत्र और हीरे मोती व रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन के बारहवे स्वप्न के फल में राज्य का स्वामी और प्रजा का हितचिंतक पुत्र बताया गया। तेरहवे स्वप्न में स्वर्ग के विमान को देखा जाने पर पुत्र को इस जन्म से पूर्व स्वर्ग में देवता होने तथा चौदहवे स्वप्न में पृथ्वी को भेदकर निकलता नागों के राजा का विमान देखने का फल पुत्र का जन्म से ही त्रिकालदर्शी होना बताया। इसी प्रकार पन्द्रहवे और सोलहवें स्वप्न में रत्नों का ढेर और धुंआरहित अग्नि का फल महाराज ने बताया कि वह पुत्र अनंत गुणों से संपन्न होगा तथा अपने कर्मो का अंत करके मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करेगा।
बालक वर्धमान का बचपन राजमहल में राजसी वैभव में व्यतीत हुआ होकर आठ वर्ष की आयु में उन्हें शिक्षा हेतु भेजा गया। पश्चात् में उनका विवाह यशोदा के साथ संपन्न हुआ और उनकी एक पुत्री हुई, जिनका नाम विविध मतानुसार अयोज्या/अनवधा/प्रियदर्शना था किन्तु कुछ मतानुसार वर्धमान को अविवाहित बाल ब्रह्मचारी भी बताया गया है। राजकुमार वर्धमान जब 28 वर्ष के थे तब उनके माता पिता का देहांत हो गया था उनके माता पिता जैन धर्म के 23 वेँ तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी के अनुयायी थे, आध्यात्मिक वातावरण में पले बढ़े वर्धमान के मन में उच्चाटन आ गया किन्तु अपने बड़े भाई के अनुरोध पर उस समय वे रुक गए। दो वर्ष का समय व्यतीत होने पर तो उन्होंने वन गमन का दृढ़ निश्चय कर लिया और फिर उन्होंने श्रामणी दीक्षा ली और समण बन गए।
दीक्षा लेने के बाद उन्होंने वन में जाकर ज्ञान प्राप्ति के लिए 12 वर्ष तक कठोर तपस्या की। वे अधिकतर मौन रहते हुवे ध्यानमग्न अवस्था में ही रहते थे। गृहस्थों से कुछ भी नहीं मांगते थे, भोजन भी हाथों में ही कर लेते थे। प्रथम 13 महीने में उन्होंने अपना वस्त्र नहीं बदला, सभी प्रकार के जीव जंतु उनके शरीर पर रेंगते थे। बाद में उन्होंने अपने वस्त्रो का भी त्याग कर दिया, दिगंबर अवस्था में ही समस्त शारीरिक कष्टों की उपेक्षा कर वे अपनी साधना में लीन रहते थे। लोगों ने उन पर कई प्रकार के हिंसक और अमानवीय अत्याचार किये किन्तु उन्होंने न तो कभी अपना धैर्य खोया और न ही उन लोगों के प्रति मन में द्वेष या प्रतिशोध रखा। वे मौन और शांत रहकर बगैर विचलित हुवे 12 वर्ष तक कठोर तपस्या में लीन रहे। अपनी इन्द्रियों को जीत लेने के कारण वे जिन कहलाये तथा 12 वर्ष तक जिस धैर्य और साहस के तप किया तो उन्हें महावीर कहा जाने लगा। पिता का एक नाम ज्ञातृक होने के कारण ज्ञातृपुत्र भी कहलाये।
बारह वर्ष की कठोर तपस्या के बाद जुम्मिक ग्राम के बाहर ऋजुपालिका नदी के तट पर साल्व वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, तभी से उनका एक नाम केवलिन भी हुआ। ग्रह त्याग और ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने समस्त सांसरिक बंधनो को तोड़कर जनकल्याण के लिए उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया, जिससे वे निर्ग्रन्थ कहलाये। ज्ञानप्राप्ति के पश्चात 30 वर्षों तक उन्होंने कई स्थानों पर भ्रमण करते हुवे अपने धर्मपूर्ण और शिक्षात्मक उपदेश देते हुवे लोगों की समस्याओं व उनके दुःख दूर करने लगे, इस कारण उनका एक नाम अर्हत भी पड़ा, इसके अलावा बौद्ध साहित्य में उनका एक नाम निगण्ठ नाटपुत्त भी वर्णित है। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार उनके प्रवचनों का सार हुआ करता था। भगवान महावीर स्वामी जी के प्रवचनों में अधिकतर वे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर ही बल देते थे।
भगवान महावीर ने सत्य को सबसे शक्तिशाली बताते हुवे कहा है कि एक अच्छे इंसान को कभी भी किसी भी हालत में सच का साथ नहीं छोड़ना चाहिए, उसे हर परिस्थिति में सच ही बोलना चाहिए। उसी प्रकार से अहिंसा का पालन करने का उपदेश देते हुवे कहा है कि जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दुसरो से भी करना चाहिए, दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखना चाहिए। अस्तेय के विषय में उन्होंने अपने उपदेश में कहा है कि जो कुछ मिला है उसमे ही संतुष्ट रहें, दूसरों की वस्तुएँ चुराना, हड़पना या दुसरो की चीजों की इच्छा करना भी महापाप है। श्री महावीर स्वामी जी ने जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन करना सबसे कठिन बताते हुवे कहा है कि जो भी मनुष्य इसको जीवन में स्थान देता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है। इसी प्रकार से अपरिग्रह के विषय में उपदेश करते हुवे श्री महावीर स्वामी जी का उत्तम सन्देश रहा कि ये दुनिया नश्वर है, किसी सांसारिक वस्तु या किसी के प्रति मोह ही आपके दुखो का कारण है। सच्चे इंसान सांसारिक मोह नहीं किया करते हैं।
तेवीसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के करीब 300 वर्ष बाद जन्में महावीर स्वामी जी का सम्पूर्ण जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत रहा होकर उनके द्वारा दिए गए पंचशील सिद्धांत ही जैन धर्म का आधार बने हैं। ज्ञानप्राप्ति के बाद 30 वर्षों तक जन जन को शिक्षा एवं उपदेश देते हुवे, लोगो की समस्याओं एवं दुःखों का निवारण करते करते अपनी 72 वर्ष की आयु में बिहार के पावापुरी नामक स्थान में कार्तिक अमावस्या अर्थात दीपावली के दिन उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। आज श्री महावीर स्वामी जी के जन्मोत्सव के पावन अवसर पर इस लेख के माध्यम से श्री महावीर स्वामीजी के चरण वंदन करते हुवे प्रार्थना है कि सभी के कष्ट दूर हो सबका कल्याण हो। जय जिनेन्द्र - दुर्गा प्रसाद शर्मा।
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