भगवान श्री राम जी के वनवास के समय के विश्राम स्थल

अयोध्या के महाराजा दशरथ जी के चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जिनमें युवराज श्री रामचंद्र जी के राज्याभिषेक का समय नजदीक था, अयोध्या में उत्सव मनाया जा रहा था। उसी समय मंथरा दासी की राय पर सहमत होकर रानी कैकयी ने महाराजा दशरथ जी से देव दानव संग्राम के समय संकल्पित दो वरदान चाहे, जिनमे से एक रामचंद्र जी को 14 वर्ष का वनवास और दूसरा पुत्र भरत को राजगादी। महाराजा दशरथ हतप्रभ रह गए थे और वे भरत को राजपाट देने के लिए तैयार भी हो गए थे किन्तु प्राणप्रिय रामचंद्र को वनवास भेजने के लिए सहमत नहीं थे किन्तु रानी कैकयी तो हठ किये बैठी थी। श्री रामचंद्र जी को यह जानकारी होने पर उन्होंने रघुकुल रीत और अपने पिताजी के वचनों का मान रखते हुवे सहर्ष ही वनवास जाना स्वीकार कर पिताजी को भी उनके दिए वचन का पालन करने का निवेदन किया। श्री रामचंद्र जी के वनवास जाने की बात सुनकर माता जानकी और अनुज श्री लक्ष्मण जी भी उनके साथ प्रस्थान करने के लिए तत्पर हो गए। प्रभु श्री रामचंद्र जी के 14 वर्ष वनवास के समय उनके मुख्य रूप से 14 विश्राम स्थल रहे जिनके विषय में हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं। 

हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार श्री रामचंद्र जी वनवास के लिए अयोध्या से प्रस्थान करने के बाद सबसे पहले अयोध्या से अंदाजन 20 - 22 किलोमीटर की दुरी पर स्थित तमसा नदी के तट पर पहुंचे। आगे चलकर श्री रामचंद्र जी गोमती नदी पार करके श्रृंगवेरपुर जो कि तीर्थराज प्रयाग से करीब 20-22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुह्यराज निषादराज जी का राज्य था।  यह वही स्थान है जहाँ पर उन्होंने केवट से गंगा नदी पार करवाने को कहा था, यहाँ पर वे एक दिन ठहरे थे। लंका से वापसी के समय केवट से पुनः यहीं भेंट की थी उस समय केवट ने माता सीता सहित गंगा जी का पूजन किया था।

प्रयागराज में संगम पार करने के बाद श्री रामचंद्र जी यमुना नदी पार करके चित्रकूट पहुंचे। इसी स्थान पर भरत जी अपने गुरुदेव और सेना सहित बड़े भाई श्री रामचंद्र जी को वापस अयोध्या ले जाने के लिए पधारे थे किन्तु रामजी ने वापस लौटने से मना कर अपनी चरण पादुका भरत को प्रदान की थी, जिन चरण पादुकाओं को राज सिंहासन पर विराजित कर बड़े भ्राता श्रीराम को राजा मानते हुवे उनकी अनुपस्थिति में राज्य का कार्यभार भरत जी ने सम्भाला था।  चित्रकूट के ही समीप सतना में ऋषिवर अत्रि जी का आश्रम था, जहाँ पर प्रभु श्री रामचंद्र जी ने कुछ समय वयतीत किया था।  यहाँ पर ऋषिवर अत्रि जी की धर्मपत्नी अनसुइया देवी से माता सीता ने शिक्षा भी प्राप्त की थी।  यहीं पर भागीरथी गंगा की एक पवित्र जलधारा का भी उदगम हुआ था, जो जलधारा मन्दाकिनी के नाम से प्रसिद्द है।  

अपने वनवास का सबसे अधिक समय श्री रामचंद्र जी ने दंडकारण्य क्षेत्र के जंगलों में अपना आश्रय स्थल बनाकर व्यतीत किया था। इसके पश्चात वे शहडोल के अमरकंटक गए यहाँ पर एक जलप्रपात कुंड में गिरता है, जिस कुंड का नाम सीताकुण्ड है। इसी स्थान पर वशिष्ठ गुफा भी स्थित है। दंडकारण्य क्षेत्र के पश्चात् श्री रामचंद्र जी नासिक अर्थात पंचवटी पहुंचे थे, जहाँ ऋषिवर अगस्त्य जी के आश्रम में कुछ समय व्यतीत किया था।  ऋषिवर अगस्त्य जी द्वारा श्री रामचंद्र जी को अग्निशाला में निर्मित शस्त्र भेंट किये थे। श्री रामचंद्र जी के वनवास काल के समय का एकमात्र यही स्थान ऐसा है, जिससे कई प्रसंग जुड़े हुवे हैं। यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर श्री रामचंद्र जी, लक्ष्मण जी और माता सीता द्वारा पांच वृक्षों पीपल, बरगद, आंवला, बेल और अशोक का रोपण अपने हाथों से किया था, जिस कारण ही इस स्थान का नाम पंचवटी पड़ा था।  

वनवास के तेरहवें वर्ष में इसी स्थान पर लक्ष्मण जी द्वारा शूर्पणखा की नासिका  काटी थी। यहीं स्वर्ण मृग का पीछा करते हुवे रामचद्र जी दूर तक चले गए थे और माता सीता जी ने  श्री रामचंद्र जी को संकट में जान सहायता हेतु लक्ष्मण जी को जाने के लिए प्रेरित किया था और जाने से पहले लक्ष्मण जी ने कुटिया के बाहर एक रेखा खींच कर उनके आने तक माता सीता को उस रेखा के अंदर ही रहने का निवेदन किया था। उधर श्री रामचद्र जी का खर दूषण से युद्ध हुआ था और इधर लंकापति रावण सन्यासी के वेष में भिक्षा लेने के बहाने उपस्थित हुवे थे। सन्यासी को भिक्षा देने के लिए जब माता सीता कुटिया के बाहर आई और रेखा के अंदर से भिक्षा देना चाही तो सन्यासी वेषधारी लंकापति रावण ने बंधी भिक्षा लेने से इंकार कर माता सीता को रेखा से बाहर निकलने के लिए उकसाया और जैसे ही माता सीता ने रेखा पार की, लंकापति रावण ने उनका अपहरण कर लिया था।  

नासिक से आगे सर्वतीर्थ नामक स्थान के बारे में कहा जाता है कि उस स्थान पर लंकापति रावण और पक्षीराज जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु को घायल करके लंकापति रावण माता सीता को लेकर आगे बढ़ गए थे।  प्रभु श्री रामचंद्र जी से मिलकर यह घटित घटना बताने के बाद इसी स्थान पर पक्षीराज जटायु ने रामचंद्र जी की गोद में अपने प्राण त्यागे थे। पक्षिराज जटायु से मिलने के बाद श्री रामचंद्र जी अनुज लक्ष्मण जी के साथ पम्पा नदी के समीप स्थित माता शबरी के आश्रम पहुंचे।  उसके बाद माता सीता की खोज में निकले श्री रामचंद्र जी वानरों की राजधानी किष्किंधा नगरी के निकट स्थित ष्यमूक पर्वत पहुंचे, जहां उनकी भेंट हनुमान जी और सुग्रीव से हुई। इस स्थान पर श्री रामचंद्र जी ठहरे यहीं पर बाली वध के उपरांत सुग्रीव को किष्किंधा का राजपाट सुपुर्द किया गया था और वानरराज सुग्रीव द्वारा माता सीता की खोज में चारों ओर वानर सेना को भेजा था।  

हनुमान जी द्वारा माता सीता का पता लगा लेने के बाद वानर सेना के साथ यहीं से श्री रामचंद्र जी ने लंका पर चढाई करने के लिए प्रस्थान किया था फिर समुद्र तट पर लंका जाने से पहले रामेश्वरम शिवलिंग की स्थापना करके भगवान शिव जी की पूजा की थी। श्री वाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण में उल्लेख मिलता है कि इस स्थान के पास ही प्रभु श्री राम ने लंका जाने के लिए सबसे सुगम धनुषकोड़ी नामक स्थान का चयन किया था। इस स्थान से सेतु निर्माण कर नुवारा एलिया पर्वत श्रृंखला में स्थित लंका में प्रवेश किया था। कहा जाता है कि इन्हीं पहाडियों के मध्य बान्द्रवेला में लंकापति रावण का महल था। प्रभु श्री रामचंद्र जी और रावण का युद्ध 13 दिनों तक चला था जिसमे रावण वध होने के बाद युद्ध की समाप्ति हुई, जिसके पश्चात् विभीषण जी को लका का राजपाट सौंपकर माता सीता को लेकर श्री रामचंद्र जी  ने लंका से वापस अयोध्या के लिए प्रस्थान किया। 

अयोध्या वापसी के समय पुनः रामेश्वरम पहुंचे फिर नासिक होते हुवे प्रयागराज स्थित श्रद्धेय श्री भारद्वाज ऋषि के आश्रम पहुंचे और अंत में भक्तराज केवट से भेंट करते हुवे अयोध्या आये। प्रभु श्री रामचंद्र जी के अयोध्या आने पर समस्त प्रजाजन ने उत्सव मनाया और तत्पश्चात श्री रामचंद्र जी का राज्याभिषेक संपन्न हुआ। आज रामनवमी का पावन अवसर है, आज प्रभु श्री रामचंद्र जी के वनवास काल की सम्पूर्ण यात्रा से सम्बंधित यह प्रसंग आपके सम्मुख प्रस्तुत कर प्रभु के चरण वंदन करते हुवे प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे सबके संकट दूर करें, सभी पर अपनी कृपा बनाये रखें, सभी का कल्याण करें। दुर्गा प्रसाद शर्मा की ओर से आप सभी को जय जय सिया राम।          

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