बूंदी का तीज महोत्सव
राजस्थान के बूंदी जिले में रियासत काल से ही तीज उत्सव बड़ी ही धूमधाम से और उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि जिसे कजरी तीज भी कहते है, इस दिन बूंदी में तीज की भव्य सवारी निकाली जाती है। पहले राजघराने की तीज की प्रतिमा की सवारी राजमहलों में ही निकाली जाती थी, राजघराने द्वारा तीज की प्रतिमा नहीं दिए जाने के कारण तीज की दूसरी प्रतिमा निर्मित कराकर आम जनता के दर्शनार्थ सवारी निकालने की परम्परा बनी थी, उसके काफी समय बाद जिला प्रशासन के विशेष अनुरोध और आश्वासन के बाद राजघराने की तीज की भी सवारी निकाली जाने लगी। रियासत काल में इस अवसर पर विभिन्न कार्यक्रमों के साथ मदमस्त हाथियों का युद्ध भी होता था। इस दिन तीज का व्रत रखकर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा का विधान है। कहा जाता है कि 108 जन्म लेने के बाद देवी पार्वती की निस्वार्थ भक्ति से प्रसन्न होकर देवी पार्वती को भगवान शिव ने पत्नी रूप में स्वीकार किया था। सुहागिन महिलाऐं अपने पति की लम्बी आयु और सुखी वैवहिक जीवन के लिए इस व्रत को करती हैं तथा अविवाहित कन्याएँ मनचाहा वर प्राप्त करने के लिए यह व्रत रखती हैं। बूंदी के इस मेले में आसपास के ग्रामीण अंचल के लोग बड़ी संख्या में तीज माता के दर्शन करने मेले में सम्मिलित होते हैं। ग्रामीणों की अपनी अलग ही मस्ती होती है, ढोल मंजीरों और अलगोजों की धुनों पर नाचते गाते इस मेले का भरपूर आनंद उठाते हैं।
बूंदी के तीज मेले के विषय में भी अत्यंत ही रोचक कथानक है, बूंदी रियासत में गोठड़ा के ठाकुर बलवंत सिंह जी मजबूत इरादों वाले जांबाज सैन्य भावनाओं से ओत प्रोत व्यक्ति थे। एक बार उनके एक मित्र ने बात बात में उनसे कहा कि जयपुर में तीज की भव्य सवारी निकलती है, यदि अपने यहाँ भी निकले तो कितनी शान हो। मित्र की सहज भाव में कही यह बात ठाकुर साहब के दिल में जा लगी और उन्होंने जयपुर की उसी तीज को जीत कर लाने का मन बनाकर जयपुर सवारी स्थल पर जा पहुंचे। जयपुर में निश्चित कार्यक्रम अनुसार शाही तौर तरीके से तीज की सवारी निकल रही थी, काफी चहल पहल में चल रहे उस कार्यक्रम में ठाकुर बलवंत सिंह जी हाडा और उनके पराक्रमी जांबाज साथीगण अपने पराक्रम के बल पर लूट कर जयपुर की तीज को गोठड़ा लेकर आ गए। जयपुर के सैनिक उनका सामना करना तो दूर उन तक पहुँच भी न सके। उसके बाद से ही तीज माता की सवारी गोठड़ा में निकलने लगी।
ठाकुर बलवंत सिंह जी हाडा की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह जी तीज माता को बूंदी लेकर आ गए और तब से तीज माता की राजसी ठाठ बाट के साथ भव्य सवारी बूंदी से निकलना प्रारम्भ हो गई। तीज माता की इस सवारी को शाही अंदाज में निकालने के कारण सवारी और अधिक भव्यता से परिपूर्ण हो गई। तीज माता की सवारी में बूंदी रियासत के समस्त जागीरदार, ठाकुर, सभासद, धनाढ्यजन अपनी परम्परागत पोशाख धारण कर रियासत की पूरी गरिमा के अनुसार सम्मिलित होते थे, जिसमें कई प्रतियोगिताएं और सैनिको का शौर्य प्रदर्शन होता था। एक पखवाड़े तक बूंदी में उत्सवी वातावरण में तीज महोत्सव मनाया जाता था। बूंदी के आसपास के गांवों के कई लोगों के इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने से बूंदी में उत्सवी मेला लग जाता था।
बूंदी के लोकोत्सव के रूप में मनाये जाने वाले इस त्यौहार में तीज माता को सम्मानपूर्वक इक्कीस तोपों की सलामी देने के बाद सवारी नवल सागर से प्रमुख बाजार से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी, जहां पर कई सांस्कृतिक कार्यक्रम, कलाकारों के करतब, नृत्यांगनाओं के नृत्य, कवि सम्मलेन, स्कूली छात्र छात्राओं के विभिन्न कार्यक्रम आदि होते थे। कार्यक्रम के बाद कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और अतिथियों का आत्मीय स्वागत किया जाता था, जिसके बाद तीज माता की सवारी सम्मानपूर्वक वापस राजमहल में लौटती है। सुहागिन महिलाएं सज धज कर लहरिया धारण कर इस महोत्सव की शोभा और अधिक बढाती हैं, तो मेले में विभिन्न सामग्रियों की दुकानें, बच्चों के झूले, सर्कस आदि भी दर्शकों के लिए मनोरंजन के विशेष आकर्षण के केंद्र होते हैं। बूंदी का यह लोकप्रिय वार्षिक मेला आज भी कम चर्चित नहीं है, आज भी दूर दूर से बड़ी संख्या में कई लोग इसमें सम्मिलित होने आते हैं। वर्षा ऋतु के मौसम में भी कजली तीज के इस मेले के प्रति श्रद्धालुओं के उत्साह में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है।
कजली तीज से जुड़े एक पौराणिक कथानक के अनुसार कजली मध्य भारत में स्थित एक घने जंगल का नाम था, उस जंगल के आसपास के क्षेत्र पर दादुरई नामक राजा का शासन था, राजा की पत्नी का नाम नागमती था। राजा के निधन होने के बाद उनकी पत्नी रानी नागमती स्वयं को सती प्रथा में अर्पित कर सती हो गई थी। वहां की जनता राजा रानी के सम्मान में उनकी याद में उनकी कथा का गान करने लगे, इस गान को कजली का नाम दिया गया। कहते हैं कि रानी नागमती इस तीज को ही सती हुई थी, जिनकी याद में कजली उत्सव मनाना आरम्भ हुआ था और कजरी गाने इस उत्सव का एक अभिन्न हिस्सा है।
कजली तीज के दिन नीम के वृक्ष की पूजा का भी प्रचलन कई स्थानों पर है। कई जगहों पर गायों की पूजन भी इस दिन की जाती है। इस दिन जौ, चने, चांवल और गेहूं से सत्तू बनाया जाता है और उसमें घी, मेवा आदि मिलाकर कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाने की भी परम्परा है। सुहागिन महिलाएं इस दिन व्रत रखती हैं, झूले लगते है और महिलाएं हास परिहास तथा उल्लासपूर्ण तरीके से नृत्य गान करते हुवे झूला झूलते हुवे यह त्यौहार मानती है। रात्रि में चन्द्रमा का पूजन करने के और अर्ध्य प्रदान करने के पश्चात ही उपवास तोड़ने की परम्परा चली आ रही हैं। देवी पार्वती जी को सम्मानित करने और उनकी पूजा करने के लिए मनाया जाने वाला यह पर्व देवी पार्वती जी के समान अपने पति के लिए एक महिला की भक्ति और समर्पण को दर्शाता है। सभी को देवी पार्वती स्वरूपा कजली तीज माता का आशीर्वाद प्राप्त हो, जय माता दी - दुर्गा प्रसाद शर्मा।
Comments
Post a Comment