बूंदी के हाडा वंशीय देशभक्त कुम्भा की देशभक्ति गाथा
हमारे भारत देश में संभवतः राजस्थान के बूंदी जिले का तारागढ़ किला ही एक ऐसा दुर्ग माना जाता है जोकि अजेय रहा है। बूंदी में लगभग तीन किलोमीटर की परिधि में निर्मित इस दुर्ग की लगभग सात बार अभेद किलाबंदी की गई थी। बूंदी में हाड़ा राजपूत वंश का शासन था। एक बार मेवाड़ के महाराणा लाखा किसी बात पर बूंदी राज्य के हाड़ा राजपूतों से नाराज हो गए और आवेश में उन्होंने प्रण कर लिया कि जब तक वे बूंदी को जीत नहीं लेते अन्न और जल ग्रहण नहीं करेंगे। महाराणा के सरदारों ने महाराणा को बहुत समझाया कि किसी भी राज्य को इतनी शीघ्रता से नहीं जीता जा सकता और जिन हाड़ा राजपूतों के शौर्य के चर्चे हर जगह होते हैं उन हाड़ा राजपूतों की बूंदी को जीतना इतना तो आसान ही नहीं है, किन्तु महाराणा तो प्रण कर चुके थे। ऐसी स्थिति में मेवाड़ सरदारों के समक्ष विकट समस्या आ खड़ी हुई कि न तो बूंदी के हाड़ा राजपूतों को इतनी जल्दी हराया जा सकता है और न ही बूंदी को बगैर जीते महाराणा अपने प्रण से पीछे हटने वाले हैं, तो आखिर क्या किया जाये ?
आपसी मंत्रणा करके काफी मनन चिंतन करने के बाद मेवाड़ के सरदारों ने समस्या के समाधान के रूप में एक प्रस्ताव महाराणा के समक्ष रखा कि असली बूंदी तो बाद में कभी जीत लेंगे, अभी तो चित्तोड़ के किले के बाहर बूंदी का एक मिटटी का नकली किला बनवाकर उस पर आक्रमण कर उसे जीत लेते हैं। इस प्रकार से प्रतीकात्मक रूप से बूंदी पर विजय प्राप्त करके आप अपना प्रण पूरा कर लीजिये। महाराणा का क्रोध भी अब तक शांत हो चुका था और उन्हें इस बात का भी एहसास हो गया था कि उन्होंने जल्दबाजी में ऐसा प्रण लेकर कुछ ठीक नहीं किया। महाराणा ने भी अपने सरदारों की बात मान ली। अब चित्तोड़ के किले के बाहर बूंदी का प्रतीकात्मक मिटटी का एक नकली किला बनवाया गया।
महाराणा कुछ घुड़सवारों और अपने सरदारों के साथ इस नकली बूंदी को जीतने के लिए निकले, चित्तोड़ के किले से बाहर निकल वे बूंदी के नकली किले पर आक्रमण के लिए जैसे ही आगे बढ़े, तभी अचानक एक सनसनाता हुआ तीर महाराणा लाखा के अश्व को लगा और अश्व वही गिर पड़ा, महाराणा अश्व से कूदकर एक ओर खड़े हो गए। उसी समय एक दूसरा तीर आकर एक सैनिक को लगा। महाराणा को समझ नहीं आया कि इस नकली बूंदी के किले से कौन उनका विरोध कर रहा है ? महाराणा के एक सामंत शांति दूत बनकर बूंदी के नकली किले की ओर यह देखने के लिए रवाना हुवे कि अंदर कौन है और क्यों विरोध कर रहा है ? अंदर जाकर देखा केसरिया बाने में शस्त्रों से सुसज्जित एक बांका नौजवान अपने कुछ साथियों के साथ उस नकली किले की रक्षार्थ मोर्चा बांधे खड़ा है।
यह नौजवान बूंदी का हाड़ा राजपूत कुम्भा जोकि महाराणा लाखा की सेना में नौकरी करता था किन्तु आज उसके देश बूंदी और हाड़ा वंश की प्रतिष्ठा के खातिर अपने दूसरे हाड़ा राजपूत साथियों के साथ महाराणा की सेना की नौकरी का परित्याग करके अपनी बूंदी की रक्षार्थ वहाँ खड़ा हुआ है। सामंत ने कुम्भा को महाराणा का प्रण याद दिलाते हुवे समझाया कि यदि महाराणा का प्रण पूरा नहीं हुआ तो वे अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगे, जिससे उनके जीवन पर संकट आ सकता है। यह भी कहा कि तुम महाराणा के सेवक हो तुमने उनका नमक खाया है इसलिए यहाँ से हट जाओ और महाराणा को अपना प्रण पूरा करने दो। इस पर कुम्भा ने जवाब दिया कि मैं महाराणा का सेवक हूँ उनका नमक खाया है इसीलिए तीर महाराणा को नहीं मारते हुवे अश्व को मारा था, आप महाराणा से कहिये कि वे बूंदी विजय के विचार को त्याग दें, बूंदी मेरा देश है इसलिए ये मेरे देश व हाड़ा वंश की प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है।
सामंत ने समझाया कि यह तो नकली बूंदी है, महाराणा जब असली बूंदी पर आक्रमण करें तब तुम प्रतिष्ठा की रक्षा करना। इस पर हाडा कुम्भा बोला मेरे लिए तो यह दुर्ग असली बूंदी से कम नहीं है, महाराणा जब असली बूंदी जीतने पधारेंगे तो वहां अपनी प्रतिष्ठा बचाने वाले कई हाड़ा मिल जायेंगे, इसलिए जाओ और महाराणा से कहो कि बूंदी जीतने का अपना विचार त्याग दें। मैंने महाराणा का नमक खाया है, वे मेरे इस सर के मालिक तो हैं किन्तु इज्जत के नहीं। यहाँ तो प्रश्न केवल इज्जत का भी नहीं बल्कि मेरी मातृभूमि और हाड़ा वंश की इज्जत का है। कुम्भा के वहां से नहीं हटने पर महाराणा ने अपने सैनिकों को नकली बूंदी पर आक्रमण करने का आदेश दिया तो कुम्भा ने महाराणा से कहा - ठहरिये अन्नदाता। आपके साथ सैनिक कम हैं इसलिए कदाचित आप इस नकली बूंदी को जीत पाएंगे अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए आप किले से सेना की बड़ी टुकड़ी बुलवा लीजिये, बूंदी इतनी निर्बल नहीं है जिसे आसानी से जीता जा सके। महाराणा ने भी सेना की बड़ी टुकड़ी बुलवा ली।
उधर चित्तोड़ के दुर्ग की प्राचीर पर कई लोग इस नकली बूंदी विजय अभियान को देख रहे थे। उन्होंने देखा महाराणा सैकड़ों घोड़े हाथी की सेना से सजधज कर नकली बूंदी की ओर बढ़े, उसके बाद पूरी सेना ने उस नकली बूंदी के किले को घेर लिया और युद्ध प्रारम्भ हो गया, उदघोष चित्तोड़ के दुर्ग तक सुनाई पड़ रहे थे। सभी लोग अचंभित थे कि नकली बूंदी के लिए यह कैसा युद्ध ? महासंग्राम काफी देर तक चला उसमें दोनों ओर से तीरों की बौछारें हुई मेवाड़ के कई सैनिक वीरगति को प्राप्त हुवे, सैकड़ों घायल हो गए। अपनी मातृभूमि और हाडा वंश की प्रतिष्ठा के लिए वीरतापूर्वक लड़ते हुवे देशभक्त कुम्भा वीरगति को प्राप्त हुआ। कुम्भा के बलिदान के बाद ही महाराणा की नकली बूंदी पर विजय की प्रतिज्ञा पूरी हुई।
एक समय हमारे देश में कुम्भा जैसे देशभक्त हुवे हैं, जो अपनी नकली और प्रायोजित मातृभूमि की प्रतिष्ठा के लिए न्यौछावर हो गए, उसे आसानी से कुचलने नहीं दिया और आज देश के कुछ भ्रष्ट नेतागण, अधिकारीगण, व्यापारीगण, सत्ता के दलाल जो देश की इज्जत आबरू को नीलाम करने में नहीं चूक रहे, इस देश की सम्पदा को लूटकर विदेशी बैंकों में काले धन के रूप में जमा कर रहे हैं, खिलाड़ी मैच फिक्सिंग करके चंद रुपयों की खातिर देश की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहे हैं। आज देश को आवश्यकता है ऐसे युवाओं की जो पूर्ण समर्पित भाव से अपने देश, मातृभूमि की प्रतिष्ठा के अनुरूप कार्य करे ताकि हमारा देश विश्वगुरु बन सके। मुझे गर्व है कि मेरे पूर्वज बूंदी जिले में निवासरत रहे होकर मेरे पिता बूंदी से ही निकल कर इन्दौर नगर में आकर बसे। उनके मुख से बचपन में बूंदी के हाड़ा वंशीय राजपूतों के कई किस्से सुने, वे हाड़ा राजपूतों की स्थिति के सम्बन्ध में एक उक्ति सदैव कहा करते थे कि ""गाड़ा हटे पर हाड़ा नहीं हटे। " आज मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री गोपालजी शर्मा की अष्टम पुण्यतिथि के अवसर पर यह लेख प्रस्तुत कर अपने बूंदी जिले के साथ साथ पिताजी को स्मरण करते हुवे हाड़ा राजपूतों की मातृभूमि भक्ति और वीरता को नमन करता हूँ - दुर्गा प्रसाद शर्मा।
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