होलाष्टक
होली का पर्व हमारे धार्मिक पर्वों में से एक पर्व है। होली के इस पर्व को सामान्य रूप से नौ दिवसीय पर्व के रूप में मनाया जाता है, जोकि फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से प्रारम्भ होकर धुलेंडी तक चलता है और इस सम्पूर्ण कालावधि को ही होलाष्टक के नाम से जाना जाता है। होलाष्टक की कालावधि में शुभ एवं मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार होलाष्टक की कालावधि में कोई भी शुभ अथवा मांगलिक कार्य करने से उनमें विघ्न बाधाऐ आने की संभावनाएँ अधिक रहती हैं उसी प्रकार से ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बताया गया है कि इस कालावधि में अधिकांश ग्रह उग्र स्वरुप में रहते होने से शुभ कार्यों को निषेधित किया गया है। मान्यता यह भी है कि होलाष्टक की इस कालावधि में अष्टमी तिथि को चन्द्रमा, नवमी तिथि को सूर्य, दशमी तिथि को शनि, एकादशी तिथि को शुक्र, द्वादशी तिथि को गुरु, त्रयोदशी तिथि को बुध, चतुर्दशी को मंगल और पूर्णिमा तिथि को राहु-केतु उग्र रहते हैं, इस कारण इनके विपरीत प्रभाव से बचने के लिए शुभ व मांगलिक कार्य करना वर्जित होता है।
होली का डांडा प्रायः माघ मास की पूर्णिमा तिथि को स्थापित किया जाता है किन्तु कहीं कहीं फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी को भी स्थापित करने की परम्परा है। इस प्रकिया में दो डांडे स्थापित किये जाने की परम्परा है, जिनमे से एक को होलिका का और दूसरे को प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है । डांडा स्थापना के पूर्व उस स्थान को शुद्ध किया जाता है उसके बाद डांडा स्थापित कर गोबर के उपले, लकड़ी, घांस आदि से होलिका को एक बड़ा आकार दिया जाता है। होलिका दहन के पूर्व विधिवत होलिका का पूजन किया जाता है ततपश्चात होलिका का दहन किया जाता है। होलिका दहन के समय प्रह्लाद के प्रतीक स्वरुप स्थापित डांडे को निकाल लिया जाता है।
पौराणिक कथाओं एवं धर्म शास्त्रों के अनुसार कहा जाता है कि इस होलाष्टक की कालावधि में ही देवताओं के कहने पर उनकी इष्ट प्राप्ति के प्रयोजन से कामदेव ने भगवान शिवजी की समाधि भंग की थी, जिसपर शिवजी ने अत्यंत ही क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र से उत्पन्न अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था। कामदेव के भस्म होने पर उनकी पत्नी रति ने भगवान शिवजी से विनती की थी कि वे कामदेव को पुनर्जीवित कर दे तब शिवजी ने द्वापर युग में कामदेव को पुनः जीवन देने का आश्वासन रति को दिया था। इसी प्रकार दूसरी कथा भक्त प्रह्लाद की है, जिस अनुसार राजा हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवद भक्ति से हटाने और हिरण्यकश्यप को ही भगवान की तरह पूजने के लिए अनेक यातनाएँ दी थी और जब किसी भी तरकीब से प्रह्लाद पर कोई प्रभाव नहीं हुआ तो इस होलाष्टक की कालावधि में ही हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के प्रयास आरम्भ कर दिए थे। लगातार आठ दिनों तक भगवान ने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की और होलिका के अंत होने तक हिरण्यकश्यप के ये प्रयास चलते रहे। इस कारण भी इस कालावधि को अशुभ माना जाता है।
होलाष्टक में भगवान की पूजा अर्चना के लिए किसी प्रकार की कोई मनाही नहीं है किन्तु किसी कामना की प्राप्ति हेतु किये जाने वाले अनुष्ठान, यज्ञादि कार्यों को इस कालावधि में किया जाना वर्जित है। इसी प्रकार से जिस जिस तिथि को जो जो ग्रह उग्र है उस तिथि को उस ग्रह की शांति पूजा का भी विधान होता है। हमारे सनातन धर्म में जो सोलह संस्कार बताये गए हैं, उनमे से किसी भी संस्कार को होलाष्टक की इस कालावधि में संपन्न नहीं करना चाहिए। दुर्भाग्यवश इस अवधि में किसी की मृत्यु होती है तो उसकी अंत्येष्टि से पूर्व शान्तिपूजन कराये जाने की परंपरा है। भवन निर्माण, भवन या वाहन की खरीददारी, यज्ञादि अनुष्ठान, नवीन नौकरी या नव व्यवसाय प्रारम्भ करने से इस कालावधि में बचना चाहिये। गर्भवती स्त्री को भी यात्रादि से इस अवधि में बचना चाहिए।
कुछ मान्यता अनुसार सतलज, व्यास, इरावती (रावी) नदियों के तटवर्ती क्षेत्र और त्रिपुष्कर क्षेत्र अर्थात व्यास नदी के किनारे होशियारपुर, गुरुदासपुर, मण्डी, काँगड़ा, सुल्तान, कपूरथला इसी प्रकार इरावती नदी के किनारे मुल्तान, मांटगोमट्टी, लाहौर, अमृतसर, पठानकोट,तथा सतलज नदी के किनारे जालंधर, लुधियाना, पटियाला, भावलपुर के साथ ही अजमेर, पुष्कर वाले भूभाग में ही होलाष्टक दोष लगता है और इनको छोड़कर शेष स्थानों पर होलाष्टक में भी शुभ और मांगलिक कार्य किया जा सकता है। होलाष्टक के लगने के बाद से ही मौसम में परिवर्तन शुरू हो जाता है ठण्ड का मौसम समाप्त होकर गर्मी की शुरुआत हो जाती है। होलाष्टक को होली की खबर लेकर आने वाला हलकारा भी कहा जाता है। होली के पर्व के आगमन की इस बेला में आप सभी को भी दुर्गा प्रसाद शर्मा की ओर से होली के पावन पर्व की अग्रिम शुभकामना। जय श्री कृष्ण।
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