श्री मुचुकुन्द जी महाराज और कालयवन का प्रसंग

सूर्यवंश में इक्ष्वाकु कुल को किसी भी प्रकार के परिचय की आवश्यकता ही नहीं है, इसी कुल में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा प्रभु श्रीरामचन्द्र जी का अवतरण हुआ था। इसी वंश में महान प्रतापशाली राजा महाराज मान्धाता भी हुवे थे। महान राजा मान्धाता के पुत्र थे महाराज मुचुकुन्द जी।  इक्ष्वाकु कुल में महाराज मुचुकुन्द जी सम्पूर्ण पृथ्वी के एकछत्र सम्राट थे तथा बल और पराक्रम में इतने प्रतापी थे कि पृथ्वी के राजाओं के अलावा देवराज इंद्र भी इनकी सहायता के लिए आतुर रहते थे और देव दानव संग्राम में उनसे सहायता लेते रहते थे।  
एक बार दानवों ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया तब देवता बड़े ही व्यथित हो उठे, उनके पास योग्य सेनापति का भी आभाव था उस स्थिति में देवराज इंद्र ने महाराज मुचुकुन्द जी से सहायता की प्रार्थना की। महाराज मुचुकुन्द जी ने भी देवराज इंद्र की प्रार्थना स्वीकार की और देवताओं की सहायता के लिए जा पहुंचे और काफी समय तक वे देवताओं की रक्षा के लिए दानवों से लड़ते रहे। काफी समय पश्चात् देवताओं को शिवपुत्र स्वामी कार्तिकेय जी योग्य सेनापति के रूप में मिल गए।  

स्वामी कार्तिकेय जी के सेनापति बनने के बाद देवराज इंद्र ने महाराजा मुचुकुन्द जी से कहा कि राजन आपने हमारी बड़ी सेवा की है, आप अपना राजपाट, स्त्री बच्चों आदि सबको छोड़कर हमारी रक्षा में लग गए आपको यह भी नहीं मालूम कि आपको यहाँ कितना समय हो गया है, आपकी पृथ्वी पर तो युग भी बदल गए हैं, आपकी राजधानी आपके परिवार भी अब नहीं रहे हैं। आपने हमारी जो सहायता की है उससे हम आपसे काफी प्रसन्न हैं, मोक्ष को छोड़कर आप जो कुछ वरदान हमसे लेना चाहें मांग लें क्यॉकि मोक्ष हमारी सामर्थ्य से बाहर है।

महाराज मुचुकुन्द आखिर मानव थे और मानवीय बुद्धि अनुरूप ही माया के वशीभूत हो गए।  स्वर्ग में इतने दिन युद्ध करते समय वे न तो सोये थे और न ही उन्होंने विश्राम किया था तो उस स्थिति में नींद और थकान से व्यथित होकर उन्होंने देवराज से भरपूर निंद्रा की मांग करते हुवे कहा कि मैं चैन से सोना चाहता हूँ और कोई मेरी निंद्रा में विघ्न नहीं डाले, और जो मेरी निंद्रा भंग करे वह तुरंत ही भस्म हो जाये। देवराज इंद्र बोले ऐसा ही होगा अब आप  पृथ्वी पर जाकर शयन कीजिये और जो भी आपको निंद्रा से जगायेगा वह तुरंत ही भस्म हो जायेगा।  

देवराज से वरदान पाकर महाराज मुचुकुन्द जी पृथ्वी पर आकर एक पहाड़ी की गुफा में जाकर सो गए। मान्यता है कि शयन के लिए उन्होंने वर्तमान में गुजरात के जूनागढ़ स्थित गिरनार पर्वत की गुफा का चयन किया था। गुफा में महाराज मुचुकुन्द जी को सोते हुवे वर्षों बीत गए युग परिवर्तन हो गया। द्वापर युग आ गया और यदुवंश में भगवान श्रीकृष्ण जी ने अवतार लिया। उसी कालखण्ड  में कंस वध से क्रोधित जरासंध द्वारा मथुरा  पर कई बार आक्रमण किये और हर बार उन्हें पराजय का ही सामना करना पड़ा था किन्तु अब वह कालयवन नामक बाहरी शासक जिसे बल का बहुत ही अधिक घमंड था, को लेकर मथुरा आया और मथुरा नगरी को घेर लिया।  

मथुरा नगरी और जनमानस की सुरक्षार्थ भगवान श्रीकृष्ण जी रणक्षेत्र से भागे और रणछोड़ राय कहलाये। श्रीकृष्ण को भागते देख कालयवन भी उनके पीछे पीछे भागा।  कालयवन भी अजेय था और भगवान को तो महाराज मुचुकुन्द जी पर भी अपनी कृपा  करनी थी तो वे कालयवन को उस स्थान तक ले आये जहां महाराज मुचुकुन्द जी निंद्रामग्न थे।  भगवान श्री कृष्ण उस गुफा में प्रवेश कर गए जहाँ महाराज मुचुकुन्द जी सो रहे थे, सोते हुवे महाराज मुचुकुन्द को उन्होंने अपना पीताम्बर ओढा दिया और स्वयं गुफा में ही अंदर जाकर छिप गए।  अपने बल के मद  में चूर कालयवन ने जब  गुफा में प्रवेश किया और पीताम्बर ओढ़े शयन करते मुचुकुन्द जी महाराज को देखा तो भ्रमित होकर श्रीकृष्ण समझ कर  महाराज श्री मुचुकुन्द जी को जगाने का प्रयास करने लगा। 
ईश्वर की लीला ही थी कि कालयवन के प्रयास से महाराज मुचुकुन्द जी की निंद्रा टूटी और कालयवन पर उनकी दृष्टी पड़ते ही कालयवन तुरंत ही भस्म हो गया। आज भी गिरनार पर्वत श्रृंखला में एक पहाड़ी का काला रंग इस प्रकार का एहसास कराता है मानो वहां कुछ समय पूर्व ही आग लगी हो, उस क्षेत्र में पहाड़ी पर कोई वनस्पति भी दिखाई नहीं देती है। मुझे भी आज से करीब 25 वर्ष पूर्व उस स्थान के दर्शन लाभ का अवसर प्राप्त हुआ था वहाँ पास वाली पहाड़ी हरी भरी है और दूसरी पहाड़ी पर कुछ नहीं। कालयवन के भस्म होने के बाद महाराज मुचुकुन्द जी गुफा में आश्चर्य से इधर उधर देखने लगे, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण जी की उपस्थिति मात्र से ही वह गुफा अलौकिक प्रकाश से जगमगा रही थी। उस वीरान गुफा में जब भगवान श्रीकृष्ण जी को उन्होंने मंद मंद  मुस्कुराते हुवे देखा तो उनसे परिचय जानना चाहा, जब प्रभु ने परिचय देकर सम्पूर्ण स्थिति समझाते हुवे कहा कि मेरी प्रेरणा  से ही कालयवन यहाँ आ सका उसका भी उद्धार करना था  और आपका भी  उद्धार करना था, इस कारण इस प्रकार यहाँ एकत्र हुवे।  

भगवान श्री कृष्ण जी से सम्पूर्ण घटनाक्रम जानकर महाराज मुचुकुन्द जी को भी गर्गाचार्य जी के वचन स्मरण हो गए कि द्वापर में साक्षात्  भगवान श्री विष्णुजी ही श्री कृष्णजी  के रूप में अवतरित होंगे, और प्रभु को अपने समक्ष देखकर भाव विव्हल हो गए तब तक माया का पर्दा भी हट गया था, प्रभु ने उन्हें उठाकर गले से लगाया और मनोवांछित वरदान मांगने को कहा तो महाराज मुचुकुन्द जी बोले प्रभु यदि कुछ देना ही है तो अपनी भक्ति दीजिये जिससे कि मैं सच्ची लगन से आपके श्री चरणों की भक्ति कर सकूँ।  भगवान ने उन्हें भक्ति प्रदान की और महाराज  मुचुकुन्द जी भी प्रभु कृपा प्राप्त कर समर्पित भाव से भगवद भक्ति करते हुवे प्रभु मिलन कर मोक्ष को प्राप्त हुवे। आप सभी को दुर्गा प्रसाद शर्मा की ओर से जय श्री कृष्ण विदित हो।             

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