भक्तिमती शबरी
भगवान की भक्ति कोई भी कर सकता है, उसमें देश, काल, कुल, गौत्र, आयु, स्त्री-पुरुष आदि का कोई भेद नहीं होता है। प्रेम से जिसने भी प्रभु का नाम लिया प्रभु उनका अपना हो जाता है। भगवान ने स्पष्ट कहा है कि " न में भक्त श्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्वपचः प्रियः " अर्थात किसी ब्राह्मण ने भले ही चारों वेद पढ़ लिए हों किन्तु यदि वह भक्त नहीं है तो मेरा प्यारा नहीं है और यदि किसी ने चाण्डाल होकर भी कुछ नहीं पढ़ा हो और मेरा भक्त हो तो वह मुझे अति प्रिय होता है। ऐसी ही प्रभु की परम प्रिय भक्त हो गई है भक्तिमती शबरी। शबर भील जाति के राजा की पुत्री थी शबरी। उस समय बाल विवाह का प्रचलन था, शबरी के विवाह की तैयारियां चल रही थी। विवाह का दिन जैसे जैसे नजदीक आने लगा सैकड़ो बकरे और भैंसे आदि जानवर बलिदान के लिए इकट्ठे किये जाने लगे। बालिका शबरी ने पूछ ही लिया तो ज्ञात हुआ कि विवाह में बलिदान के लिए व्यवस्था है, सुनकर शबरी का बाल मन आहत हो गया। बालिका शबरी ने सोचा कि यह कैसा विवाह जिसमे इतने प्राणियों का वध हो, इससे तो विवाह नहीं करना ही ठीक है, यह सोच कर शबरी रात्रि में ही उठकर जंगल में चली गई और फिर लौट कर नहीं गई।
दण्डकारण्य क्षेत्र में कई ऋषि मुनि तपस्या करते थे, शबरी उसी क्षेत्र में जा पहुंची। शबरी हीन जाति की अशिक्षित बच्ची थी उसे कोई ज्ञान तो था नहीं किन्तु उसके ह्रदय में प्रभु के लिए सच्ची चाह अवश्य थी, जिस चाह के होने मात्र से ही सभी गुण स्वतः आ जाते हैं। शबरी रात्रि में ही उठ जाया करती थी और उसे कोई देख नहीं ले यह सावधानी रख तत्परता से छिपकर ऋषि मुनि के आश्रम से नदी तक के मार्ग को झाड़ बुहार देती थी ताकि ऋषि मुनि गण के पैरों में कंकर पत्थर या कांटे न लगे। जंगल से लकड़ी कटकर आश्रम में डाल आती थी। शबरी इस प्रकार से काफी वर्षों तक सेवा करती रही। महर्षि मतंग ने शबरी पर कृपा की और आश्रम में आश्रय दिया। कालांतर में जब महर्षि मतंग देवलोक जाने लगे तब शबरी भी उनका हाथ पकड़ रोते हुवे साथ जाने के लिए जिद करने लगी तब महर्षि ने शबरी को समझाया कि पुत्री इस आश्रम में भगवान स्वयं आएँगे तुम उनकी प्रतीक्षा करो।अबोध शबरी इतना तो समझती थी कि गुरु वचन सत्य होकर रहेंगे फिर भी पूछ ही लिया कि कब आएँगे ?
महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे वे शबरी को नमन करके बोले पुत्री अभी तो उनका अवतरण ही नहीं हुआ है। पहले महाराज दशरथ जी का लग्न होगा उसके बाद लम्बी प्रतीक्षा होगी फिर उनका अवतरण होगा, उसके बाद मिथिलाकुमारी सीता जी के साथ उनका विवाह होगा और उन्हें 14 वर्ष का वनवास होगा, वनवास के अंतिम वर्ष में सीता जी का हरण होगा जिन्हे खोजते हुवे वे यहाँ पधारेंगे तब तुम उन्हें सुग्रीव से मित्रता करने के लिए कहना। गुरु आज्ञा मान कर शबरी वहीं आश्रम में रुक कर हर दिन प्रभु श्री राम की प्रतीक्षा करने लगी। कालचक्र अपना कार्य कर रहा था, गुरु वचनो के अनुसार समस्त घटनाक्रम व्यतीत होते हुवे प्रभु श्री राम जी को 14 वर्ष का वनवास हुआ और दण्डकारण्य क्षेत्र की ओर प्रभु के प्रस्थान की बात सर्वत्र फ़ैल गई।
शबरी को भी यह बात ज्ञात हुई फिर तो वह प्रतिदिन यह सोचकर जल्दी उठ जाती कि प्रभु आज पधारेंगे। प्रभु दर्शन की आस लेकर वह जल्दी जल्दी कुटिया से लेकर दूर तक रास्ते को बुहार आती, पानी का छिड़काव कर देती, गोबर से जमीन लीपती। जंगल में जाकर खुद चख चख कर मीठे फल लेकर आती, ताजे ताजे पत्तो के दोने बनाती शीतल जल भरकर रखती और खुद हाथों में माला लेकर रास्ते में बैठ जाती। एकटक निहारती रहती थोड़ी भी आहट होती तो उठकर खड़ी हो जाती, बिना खाये पिए ही सूर्योदय से सूर्यास्त तक प्रतीक्षा करती। अँधेरा हो जाने पर यह सोच कर उठती कि प्रभु आज किसी ऋषि मुनि के आश्रम पर रुक गए होंगे, कल अवश्य आएंगे। दूसरे दिन फिर वही दिनचर्या इस प्रकार कई वर्ष गुजर गए। गुरु के वचन असत्य नहीं हो सकते इस विश्वास के साथ प्रभु की प्रतीक्षा करने के क्रम को शबरी ने कभी नहीं तोडा। आसपास जिन ऋषि मुनियों के आश्रम थे वे सभी मुनिगण निश्चिंत थे कि सभी श्रेष्ठ, ज्ञानी, विद्वान् तपस्वी हैं इसलिए भगवान यहीं आएंगे, इसमें कही कही भक्ति कम और अभिमान अधिक था।
जब प्रभु श्री राम पधारे तो ऋषि मुनियों के आश्रम को छोड़ कर वे सीधे ही शबरी की कुटिया पर पहुंचे। शबरी के आनंद की कोई पार नहीं थी, वह प्रभु के चरणों में शरणागत हो गई, अश्रुओं से प्रभु के चरण पखारे, पलक पावड़े बिछाकर ह्रदय के सिहासन पर प्रभु को विराजित किया। शबरी पंखा लेकर बैठ गई, पंखा झलते हुवे प्रभु को मीठे फल खिलाते हुवे स्तुति करने लगी। भगवान श्री राम ने भी शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश कर शबरी को निहाल किया। इधर ऋषि मुनिगण को जब ज्ञात हुआ कि प्रभु आये और सीधे शबरी के यहाँ चले गए तो वे सभी वहाँ पहुंचे। शबरी ने सभी को प्रणाम किया। ऋषिगण के सीधे शबरी की कुटिया पर पहुँचने के बारे में पूछने पर प्रभु ने सभी ऋषिगणों की चरण वंदना की और बोले आप सभी तो मेरे वंदनीय हैं ही किन्तु भक्ति मुझे अति प्रिय है जब मैंने पूछा कि भक्त यहाँ कौन है तो सभी ने शबरी का नाम बताया तो उसी भक्ति के प्रभाव से मैं यहाँ आ गया।
इस प्रकार भगवान ने समस्त ऋषिमुनियों के सम्मुख भक्ति की महत्ता को स्थापित किया। सचमुच भक्तिमती शबरी भगवान की बहुत बड़ी भक्त थी, भगवान में उसके जैसा प्रेम बड़े भाग्य से ही होता है और भगवान ने भी प्रेम के वशीभूत शबरी के झूठे बैर स्वीकार किये जबकि उनकी तीनों माताओं ने उन्हें कभी झूठा नहीं खिलाया था। शबरी की उस भक्ति भावना का कुछ अंश भी यदि हमारे इस नीरस जीवन में आ जाये तो हमारा यह जीवन ही सार्थक हो जावे। शबरी की भक्ति को प्रणाम करते हुवे प्रभु श्रीराम से प्रार्थना है कि सभी का कल्याण कर सभी पर अपनी कृपा बनाये रखें। जय श्री राम - दुर्ग प्रसाद शर्मा।
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