नारी धर्म की शिक्षा

भारतवर्ष में प्रत्येक माता पिता अपनी पुत्री को विवाहोपरांत इस भावना के साथ अपने घर से विदा करते रहे हैं कि  उसका जीवन और भविष्य सुखमय एवं समृद्धिशाली बने तथा ससुराल में उसे सुयश की प्राप्ति हो। उस समय उसे  दी गई शिक्षा अत्यंत ही मार्मिक और महत्वपूर्ण होती थी, जो आज के समय में भी उतना ही महत्त्व रखती है जितना कि प्राचीन समय में रखती थी। रामचरित मानस शिक्षा की दृष्टी से अनुपम ग्रन्थ है। मानस के प्रत्येक पात्र कुछ न कुछ जीवनोपयोगी शिक्षा अवश्य देते हैं। रामचरित मानस में नारी शिक्षा सम्बन्धी सूत्र प्रारम्भ से अंत तक विध्यमान हैं। बालकाण्ड के प्रारम्भ में सती शिरोमणि पार्वती जी का चरित्र यह शिक्षा देता है कि पतिप्रेम में नारी की अचल निष्ठां होनी चाहिए। विवाह के पूर्व जब सप्तर्षि पार्वती जी की परीक्षा लेने जाते हैं, तब वे शिव जी के चरित्र में नाना प्रकार के दोष बतलाकर उनसे सकल गुणराशि भगवान विष्णु जी से विवाह करने का आग्रह करते हैं किन्तु पार्वती जी तो मन ही मन महादेव जी के चरणों में स्वयं को समर्पित कर चुकी थी तो गुण दोष के विचार करने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है, उनका शिव के प्रति समर्पण नारी समाज के लिए अनुकरणीय है। 
सीता जी का आदर्श चरित्र नारी समाज के लिए शिक्षा ग्रहण करने का अति उत्तम उदाहरण है।  भगवती सीता जी के चरित्र से यह शिक्षा मिलती है कि पति के पदचिन्हों का अनुसरण करना भारतीय नारी की गौरवमयी परम्परा रही है। जनकपुर से विवाहोपरांत जब सीता जी की विदाई होती है, तब उनकी माता महारानी सुनयना उन्हें आशीर्वाद के साथ साथ कहती है कि सास-ससुर और गुरुजन की सेवा के साथ ही पति के रुख के अनुसार जीवन को ढ़ालना पत्नी का पावन कर्तव्य है। पति के सुख दुःख की चिरसंगिनी बनकर वैदेही अपनी माता सुनयना की आज्ञा का अक्षरशः पालन करती हैं। श्री रामचंद्र जी को मनाने के लिए माताओं को साथ लेकर भरत जी जब चित्रकूट आते हैं तब सीताजी रात्रि में अपनी सभी सासु  माताओं की प्रेमपूर्वक सेवा करती हैं। सीता जी की सेवा का आदर्श यदि आज की नारी अपना ले तो सास बहू और पति पत्नी की कलह से भारतीय समाज को मुक्ति मिल जाय और परिवार न्यायालयों में मुकदमो का अम्बार ख़त्म हो जाय। 

नारी जीवन की सर्वोत्तम शिक्षा मानस के अरण्य काण्ड के प्रारम्भ मेँ अनुसूया जानकी संवाद के माध्यम से भी दी गई है। जानकी जी के बहाने श्री अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया ने पतिव्रत धर्म की अति दुर्लभ शिक्षा सम्पूर्ण नारी समाज के लिए दी थी।  सती अनुसूया ने जानकी जी को बताया कि नारी के लिए माता पिता तथा भाई बंधु सभी हितकारी हैं किन्तु पति उसके लिए परमेश्वर के समान है। पति सेवा से विमुख नारी निंदनीय होती है। नारी की पहचान विपत्ति काल में होती है, जो आपत्तिकाल में अपने पति का साथ निभाती है वही नारी वंदनीय होती है। जाने अनजाने में किसी भी प्रकार के रोगी, धनहीन और विकलांग पति का अपमान करने वाली नारी निंदनीय होती है। जो नारी पति परायणा होती है उसके किये कोई यज्ञ, दान, तपस्या आदि अनिवार्य नहीं है मात्र पति की सेवा द्वारा ही वह समस्त शुभकर्मो के फल की अधिकारिणी बन जाती है। 

पतिव्रत धर्म को समझाते हुवे ऋषि पत्नी अनुसूया जी ने नारियों की चार कोटियाँ बताई - (1) उत्तम, (2) मध्यम, (3) निकृष्ट और (4) अधम। उत्तम कोटि की नारी वह है जो स्वप्न में भी पर-पुरुष को सकाम भाव से नहीं देखती है, ये सभी नारी वंदनीय होती है। मध्यम कोटि की नारी वह है जो पर-पुरुष को भ्राता, पिता और पुत्रवत देखती है अर्थात समवयस्क है तो भाई मानकर, बड़ा है तो पिता मानकर और अल्पव्यस्क है तो पुत्र मानकर देखती है, ये भी वंदनीय होती है। निकृष्ट कोटि की नारी मन से तो पर-पुरुष के प्रति अनुरक्त हो जाती है किन्तु कुल मर्यादा के भय से उसका संग नहीं कर पाती है, ये नारी निंदनीय होती है। अधम कोटि की नारी मन से पतित तो पहले ही हो जाती है और अवसर मिलने पर तन से भी पतित हो जाती है, ऐसी नारी समाज के लिए कलंक है। जो नारी पति से वंचना करके पर-पुरुष से रति करती है, उस अभागिनी को यह भी ज्ञान नहीं है कि क्षणिक सुख के लिए उसने कब अपना जीवन नरकगामी बना लिया, ये भी निंदनीय है। 

उत्तम और मध्यम कोटि की नारियां वंदनीय होती है और उनका चरित्र वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिए अनुकरणीय होता है किन्तु निकृष्ट और अधम कोटि की नारियां समाज के लिए कलंक और सर्वथा त्याज्य होती है। परम गति की प्राप्ति के लिए नारी जीवन जैसा सरल और सुलभ कोई जीवन नहीं है।  विभिन्न प्रकार के साधन, भजन, शम, दम, तितिक्षा और त्याग-वैराग्य के द्वारा पुरुष जिस गति की प्राप्ति में अपने आप को असमर्थ पाता है वह दुर्लभ गति नारी मात्र पति सेवा से ही प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार से रामचरित मानस में नारी धर्म की अमूल्य शिक्षा दी गई है, जिसे अपनाकर नारी अपना जीवन तथा समाज को धन्य बना सकती है। माता कौशल्या और माता सुमित्रा का त्यागमय दिव्य जीवन भारतीय ललनाओं के लिए वंदनीय और अनुकरणीय है। स्वयंप्रभा से योग साधना की शिक्षा, शबरी और त्रिजटा से भक्ति की शिक्षा तथा मंदोदरी से सत्कर्म की शिक्षा नारी शक्ति ग्रहण कर सकती हैं। 

पुरातन समय में माता पिता द्वारा अपनी पुत्री को विवाहोपरांत जो जीवनोपयोगी शिक्षाऐं दी जाती थी, उनमे प्रमुख इस प्रकार होती थी, जो आज के समय में भी नव विवाहिताओं को दी जाना अति आवश्यक है -  (1) बेटी आज विवाह होने के बाद से तू हमारी नहीं रहेगी। आज तक तू जिस प्रकार हमारी आज्ञा का पालन करती थी, उसी प्रकार अब अपने सास,  ससुर तथा पति की आज्ञा का पालन करना। (2) विवाह के बाद एकमात्र पति ही तेरे स्वामी होंगे, उनकी आज्ञा का पालन करते हुवे उनके साथ सदैव उचित और नम्रता का व्यवहार रखना। (3) अपनी  ससुराल में सदैव विनय और सहनशीलता रखना तथा कार्यकुशल बनना। (4) ससुराल के लोगों से कभी ऐसा व्यवहार मत करना जिससे उन्हें दुःख हो अन्यथा पति का प्रेम खो दोगी। (5) कभी क्रोध मत करना, पति यदि कोई भूल करे तो मौन रहना और जब वह शांत अवस्था में हो तब नम्रतापूर्वक उन्हें वास्तविक स्थिति से अवगत कराना। (6) अधिक बातें मत करना, असत्य मत बोलना, पड़ौसी की निंदा मत करना, जो कर सको वह सेवा सबकी करना क्योंकि सेवा वशीकरण का एक मन्त्र है। (7) हाथ देखने वाले और ज्योतिषियों से अपनी भाग्य रेखाओं के बारे  में मत पूछना, तेरा कर्म ही तेरा भाग्य निर्मित करेगा। (8) परिवार के सभी छोटे बड़ों की सेवा करने से सबका प्रेम प्राप्त होगा। (9) अपने घर का काम अपनी बुद्धि और विवेक से करते हुवे सावधानीपूर्वक सब व्यवस्था करना। (10) अपने पिता की उच्च शिक्षा या उनकी पद प्रतिष्ठा का अभिमान मत करना और अपने पिता के वैभव का गुणगान भी मत करना। (11) सदैव सादगी से रहते हुवे लज्जाशील कपडे पहनना।  भड़कीले, छोटे और आकर्षित करने वाले कपड़े मत पहनना। (12) आतिथ्य ही घर का वैभव है, प्रेम ही घर की प्रतिष्ठा है, व्यवस्था ही घर की शोभा है, सदाचार ही घर की सुगंध है और समाधान ही घर का सुख है। (13) ऋण हो जाय इतना खर्च मत करना, पाप हो ऐसी कमाई मत करना, क्लेश हो ऐसा मत बोलना, चिंता हो ऐसा काम मत करना, रोग हो वैसा मत खाना और शरीर दिखे ऐसा कपड़ा मत पहनना।  

सनातन धर्म की ये समस्त शिक्षाएँ वर्तमान परिपेक्ष्य में भी उतनी ही सार्थक और आवश्यक है, जितनी उस समय में हुआ करती थी। समस्त नारी शक्ति इन शिक्षाओं पर अमल करते हुवे अपना दाम्पत्य जीवन सुखमय बना सकती है। आवश्यकता इसी बात की है कि हर माता पिता अपने पुत्रों को भी नारी शक्ति का सम्मान करने की शिक्षा देवें,  किसी पुरुष सदस्य द्वारा अकारण नारी शक्ति का अपमान किया जाता हो तो उसे रोका जाय। यदि हम नारी में सीता जी की छबि देखना चाहते हैं तो पुरुष वर्ग को भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चंद्र जी के समान आचरण अपने जीवन में लाना होगा।  सभी को जय जय सियाराम - दुर्गा प्रसाद शर्मा।     

   
 

Comments

  1. आज कल मोबाइल ने सामान्य असहमति की परिस्थितियों को भी विकराल रूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लड़की अपने ससुराल में हमेशा अपने मायके से हर छोटी सी बात के लिए भी संपर्क में रहती है। और जरा सा उबाल गृहस्थ जीवन में जहर घोल देता है बह फिर न्यायालय तक जाकर ही रुकता है।

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