वनवासी क्रांतिकारी बुधु भगत

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में प्राणो की आहूति देने वाले वीर शहीदों में कुछ नाम तो भारतीय इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हुवे हैं किन्तु कई ऐसे नाम भी हैं जो गुमनामी के गर्त में समा गए हैं, इन गुमनाम शहीदों में कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनका त्याग, जिनकी आहूति उन कई नामों से अधिक मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण रही है जिन्हें इतिहास में जगह मिलती है। इन्हीं में बुधु भगत का नाम प्रसिद्द वनवासी क्रांतिकारी के रूप में जाना जाता है, इनकी लड़ाई अंग्रेजों, जमींदारों तथा साहूकारों द्वारा किये जा रहे अत्याचार और अन्याय के विरूद्ध थी।  कहा जाता है कि बुधु भगत को दैवीय शक्तियां प्राप्त थी और उन शक्तियों के प्रतीकस्वरुप अपने साथ सदैव शस्त्र रखते थे। बुधु भगत का जन्म वर्तमान झारखण्ड राज्य के राँची जिले के सिलांगाई नामक गांव में हुआ था। सामान्यतः सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को ही प्रथम संग्राम माना जाता है किन्तु इसके पहले ही वीर बुधु भगत ने अपने साहस और नेतृत्व क्षमता से सन 1832 में "लरका विद्रोह" के नाम से ऐतिहासिक आंदोलन का सूत्रपात करते हुवे क्रांति का शंखनाद कर दिया था।  
छोटा नागपुर के आदिवासी इलाकों में अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता अपनी चरम सीमा पर थी जमींदारों और साहूकारों के विरूद्ध पहले से ही मुण्डाओं ने भीषण विद्रोह छेड़ रखा था और उरांओ ने भी अपने बागी तेवर अंग्रेजो को दिखाने शुरू कर दिए थे। बुधु भगत बचपन से ही जमींदारों और अंग्रेजी सेना की क्रूरता देखते आये थे।  उन्होंने यह भी देखा था कि किस प्रकार से गरीब किसानों की तैयार फसल और उनके मवेशी जमींदार और अंग्रेज जबरदस्ती उठा ले जाते थे और उन गरीबों के घर कई कई दिनों तक चूल्हे नहीं जल पाते थे। 

बालक बुधु भगत सिलांगाई की कोयल नदी के किनारे घंटो एकांत में बैठकर अंग्रेजो और जमींदारों से सामना करने की योजना बनाया करते थे साथ ही शस्त्र विद्या का अभ्यास भी किया करते थे। एकांतप्रिय, तलवार और धनुष बाण चलाने में पारंगत बुधु को गांववाले देवदूत समझने लग गए थे और बुधु की बातें सुनकर गांव के आदिवासियों ने उन्हें अपना उद्धारकर्ता मानना शुरू कर दिया था, बुधु भगत को सभी ओर से जन समर्थन मिल रहा था। उनके एक इशारे पर हजारों लोग अपनी जान कुर्बान करने के लिए तैयार रहते थे। 

अंग्रेजों ने इन पर दमन के आशय से कई गांव वालों को बंदी बना लिया था तब विद्रोह के लिए समुचित जन समर्थन मिलने के बाद बुधु भगत ने अन्याय के विरूद्ध बगावत का आव्हान किया तो हजारों हाथ तीर, धनुष, तलवार और कुल्हाड़ी के साथ उठ खड़े हुवे। विद्राहियों ने साहसपूर्वक लड़कर उन सभी बंदी बनाये ग्रामीणों को मुक्त करवा लिया।  बुद्धू भगत का दस्ता समय के साथ साथ बढ़ने लगा, बुधु भगत ने अपने दस्ते को गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया। घने जंगलों और दुर्गम पहाड़ियों का फायदा उठा कर कई बर अंग्रेजी सेना को परास्त भी किया। 

अंग्रेज सरकार पर बुधु भगत का इतना खौफ हो गया था कि उन्होंने बुधु को पकड़ने के लिए एक हजार रूपये इनाम की घोषणा कर दी थी। हजारों लोगों के हथियारबंद विद्रोह से अंग्रेज सरकार और जमींदार कांप उठे। बुधु भगत को पकड़ने का काम कैप्टन इम्पे को सौंपा गया।  बनारस की पचासवीं देसी पैदल सेना की छह कंपनी और घुड़सवार सैनिकों का एक बड़ा दल जंगल में भेज दिया गया।  आसपास के गांवों से हजारों ग्रामीणों को गिरफ्तार कर लिया गया किन्तु बुधु भगत के दस्ते ने घाटी में ही सभी को मुक्त करवा लिया, जिससे कैप्टन बौखला गया।   

बौखलाए कैप्टन इम्पे ने सिलांगाई गांव में बुधु भगत और उनके साथियों को घेर लिया और अंधाधुंध गोलीबारी करने लगे तब निर्दोष ग्रामीण नहीं मारे जाएं, यह सोच कर बुधु भगत ने खुद आत्म समर्पण करना चाहा किन्तु उनके साथियों ने मना कर दिया और बुधु भगत को चारों ओर से घेरा बनाकर घेर लिया। कैप्टन ने गोली चलने का आदेश दे दिया, अंधाधुंध गोलियां चलने लगी, बूढ़े, बच्चों, युवाओं और महिलाओं की भीषण चीत्कार से इलाका कांप उठा, उस खुनी तांडव में लगभग 300 - 400 निर्दोष ग्रामीण मारे गए। अन्याय के विरूद्ध जन विद्रोह को हथियार  के बल पर जबरन खामोश कर दिया गया, इस मुठभेड़ में बुधु भगत तथा उनके बेटे हलधर और गिरधर भी अंग्रेजो से लोहा लेते हुवे शहीद हो गए।  ऐसे वनवासी क्रांतिकारी बुधु भगत को नमन।  दुर्गा प्रसाद शर्मा।  


             

 



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